सूरज की रोशनी खिड़की से छनकर कमरे में आ रही थी। कमरे के कोने में रखी एक पुरानी लकड़ी की कुर्सी पर अब धूल जम चुकी थी। ये वही कुर्सी थी जिस पर हर सुबह रामकिशan जी बैठा करते थे — अख़बार पढ़ते, चाय पीते और कभी-कभी अपनी बीवी से हल्की-फुल्की तकरार भी किया करते थे।
अब उस कुर्सी पर कोई नहीं बैठता।
रामकिशan जी अब इस दुनिया में नहीं रहे।
उनकी पत्नी, शारदा देवी, अब भी हर सुबह उठती हैं, रसोई में जाकर दो कप चाय बनाती हैं — एक अपने लिए और एक उस खाली कुर्सी के लिए। हर सुबह वो चाय वहीं रख देती हैं, जैसे रामकिशन जी कभी भी आएंगे और बोलेंगे — "शारदा, चाय में चीनी थोड़ी कम है!"
लेकिन वो नहीं आते।
उनकी मौत को अब छह महीने हो चुके हैं, लेकिन शारदा देवी को आज भी लगता है कि रामकिशan कहीं बाहर गए हैं, या मंदिर में होंगे… वो बस अभी आने वाले हैं।
शारदा और रामकिशन की शादी को पचपन साल हो गए थे। वो प्यार नहीं करते थे फिल्मों जैसा, लेकिन जो बंधन था, वो गहरा था — बिना कहे समझने वाला, बिना जताए निभाने वाला।
जब बेटा, अर्जुन, अमेरिका चला गया तो दोनों ने एक-दूसरे को ही दुनिया मान लिया। अर्जुन ने कहा था — “पापा, जब यहां सेट हो जाऊंगा तो आपको और मम्मी को यहीं बुला लूंगा।” लेकिन उस बात को अब दस साल हो गए।
रामकिशन जी को दिल का दौरा पड़ा। अस्पताल ले जाने का वक्त नहीं मिला। जाते-जाते बस एक शब्द कहा — “शारदा…” और सब कुछ थम गया।
अब शारदा देवी उस हर कोने में उनकी परछाई ढूंढती हैं। हर छोटी चीज़ में रामकिशan की कोई बात याद आ जाती है।
वो कुर्ता जो उन्होंने आखिरी बार पहना था, अब भी अलमारी में वैसे ही रखा है।
हर रात जब शारदा देवी अकेली होती हैं, तो उसी कुर्सी के सामने बैठ कर रोती हैं। कई बार तो सो भी नहीं पातीं। बेटे को फोन करती हैं, लेकिन या तो टाइम ज़ोन का फर्क आ जाता है, या अर्जुन कहता है — “मम्मी, मीटिंग में हूं, बाद में बात करता हूं।”
शारदा देवी ने उसे कभी नहीं बताया कि उन्होंने अब खाना बनाना बंद कर दिया है। सिर्फ दो रोटियां और एक कटोरी दाल — वही, जो रामकishan जी को पसंद थी।
पड़ोस की रीता बहन जी कहती हैं — “कभी बहू-बेटा को बुला लो ना!”
शारदा हल्के से मुस्कुरा देती हैं — “बेटा बहुत बिज़ी है।”
लेकिन दिल जानता है कि वो मुस्कान झूठी है।
एक दिन अर्जुन को एक डिब्बा मिला, जो उसके नाम शारदा देवी ने पोस्ट किया था। अंदर एक चिट्ठी थी:
“बेटा अर्जुन,
तेरे पापा अब नहीं रहे। मैं ठीक हूं। लेकिन अब इस घर में बहुत खामोशी है। वो कुर्सी जिस पर वो बैठते थे, अब भी खाली है। शायद मैं भी अब ज़्यादा दिन उस कुर्सी के सामने ना बैठ पाऊं।
अगर तुझे कभी लगे कि वक्त है, तो आ जाना। इस घर में अब बस यादें हैं... और एक ‘खाली कुर्सी’।
तेरी माँ।”**
अर्जुन हक्का-बक्का बैठा रहा। इतने सालों की दूरी, व्यस्तता और ‘बड़ा आदमी’ बनने की दौड़ में उसने सबसे कीमती चीज़ खो दी थी — अपने माँ-बाप का साथ।**खामोशियाँ भी कभी-कभी चीखती हैं,