Teri Meri Khamoshiyan - 10 in Hindi Love Stories by Mystic Quill books and stories PDF | तेरी मेरी खामोशियां। - 10

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तेरी मेरी खामोशियां। - 10

हफ़्ते कैसे बीते, उसे खुद नहीं पता चला…
हर दिन जैसे एक साए की तरह गुज़रता गया।
नायरा खामोश हो गई थी…
हँसी अब भी थी, पर आँखों की रौशनी कहीं खो सी गई थी।
उसकी और अमन की वो आख़िरी मुलाक़ात...
हर रोज़ उसके जहन में दस्तक देती थी।

वो पल…
वो ठहरी हुई निगाहें…
वो चुपचाप लौटता हुआ साया…
कुछ तो था उस खामोशी में, जो अब उसके अंदर घर कर गया था।

इन चंद मुलाक़ातों ने उसके दिल में एक अजीब सी हलचल पैदा कर दी थी।
एक बेनाम एहसास,
एक अलफाज़ों से परे जुड़ाव…
और अब... वो यकीन में बदलता जा रहा था।
जैसे किसी अनजाने रिश्ते में उसकी रूह बंध चुकी हो…
जैसे मोहब्बत हो गई हो।

और फिर...
वो दिन आ ही गया, जिसका बेसब्री से सब इंतज़ार कर रहे थे।

घर में चहल-पहल थी,
दीवारों पर सजावट,
चाय की खुशबू में मेहंदी की हल्की सी महक घुली हुई थी,
बुआ-दादी की आँखों में दुआएं थीं,
अम्मी की मुस्कान में तसल्ली…
मगर—

नायरा का दिल खामोश था।

हर किसी की आँखों में चमक थी,
सिवाय उसकी।

ना जाने क्यों,
वो इस रिश्ते से पीछे हटना नहीं चाहती थी,
पर आगे भी नहीं बढ़ पा रही थी।
जैसे उसका मन… दो राहों पर अटका हो।

हर सोच के छोर पर बस एक नाम…
हर सवाल के जवाब में बस एक चेहरा—

"अमन।"

वो कौन था… क्यों उसकी सोचों में यूँ गहराता जा रहा था…
नायरा नहीं जानती थी,
मगर उसे यक़ीन था—

कुछ तो अधूरा रह गया था… या शायद अभी शुरू होना बाकी था।


निकाह के वक़्त—

महफ़िल गुलज़ार थी, हर तरफ चाँदनी रौशनी, फूलों की खुशबू और सजे हुए चेहरे।
नायरा का दिल धड़क रहा था—सामने शेहरे में ढँका दूल्हा, जिसकी एक झलक तक उसने नहीं देखी थी।

क़ाज़ी साहब ने दूल्हे से पूछा: "निकाह कबूल है?"

और झुकी सी, गूंजती हुई आवाज़ में जवाब आया, 

"क़ुबूल है..."

तीन बार दोनों तरफ से आवाज़ें गूँजीं —और रिश्ता मुकम्मल हो गया।

निकाह के कुछ ही देर बाद,
बिना किसी से मिले, बिना कोई रस्म निभाए,
दूल्हा उठकर चला गया।

महफ़िल सन्नाटे में बदल गई।

"अरे ये क्या? दूल्हा कहाँ चला गया?"
"अब रस्में भी बाकी थीं..."
"कहीं नाराज़ तो नहीं...?"

लोग खुसर-पुसर करने लगे।

तभी दूल्हे की अम्मी नजमा बेगम आगे आईं—
सफ़ेद ज़री की रेशमी साड़ी,
आँखों में नवाबी की रुतबा और चेहरे पर तहजीब का ठहराव।

उन्होंने हल्के से मुस्कराकर कहा,
"बेटा है मेरा... काम को इबादत समझता है।
निकाह से पहले ही उसने कहा था—एक अर्जन्ट बिजनेस मीटिंग है,
निकाह होते ही जाना पड़ेगा।"

"प्यार इज़हार से नहीं, ज़िम्मेदारी से साबित होता है।
और आज उसने अपनी ज़िम्मेदारी को तवज्जो दी है।"

सब कुछ शांत हो गया।
लोगों ने सिर हिलाया — जैसे इस एक बात में हर सवाल का जवाब छुपा हो।

नायरा…
उसने शेहरे की ओर देखा,
जहाँ कोई चेहरा था… पर अब नहीं था।
दिल के किसी कोने में अब भी एक उम्मीद बसी थी—

"काश, एक बार… बस एक बार चेहरा दिखता..."


"बिदाई"

रात की चुप्पी में बस हल्का-सा शोर था—
अलविदा की फुसफुसाहट,
आँखों में ठहरी हुई नमी
और उस नायरा की ख़ामोशी,
जो आज किसी के नाम हो चुकी थी,
बिना जाने… बिना समझे कि वो कौन है।

उसने झुक कर अपनी अम्मी के पाँव छुए—
अम्मी ने उसका चेहरा थामा और बस आँसू बहा दिए।
"मेरी बच्ची… जब भी लगे कि रास्ता मुश्किल है, तो दुआ करना… मैं हर वक्त तेरे साथ हूँ।"

अब्बू कुछ नहीं बोले,
बस नायरा की झुकी पेशानी को चूम कर पीछे हट गए,
क्योंकि अगर एक पल और रुकते,
तो उनकी मर्दानगी रो पड़ती।

बुआ दादी ने अपनी कांपती उंगलियों से उसका दुपट्टा सीधा किया।
"ये सिर झुकाने के लिए नहीं, सर उठाकर जीने के लिए है नायरा… तुझे अब अपना घर बसाना है।"

निम्मी ने उसे सीने से लगाया,
"तू हमेशा कहती थी ना, शादी मेरी समझ में नहीं आती… अब समझ आए तो मुझे भी बताना।"
उसकी हँसी और आँसू एक साथ नायरा की दिल में उतरते चले गए।

गाड़ी सामने थी,
और सब पीछे।

नायरा के पाँव भारी थे…
जैसे हर क़दम पर उसका कोई टुकड़ा पीछे छूट रहा था।

गाड़ी के अंदर बैठते हुए, उसने एक आख़िरी बार पलटकर देखा—

वो घर…
जिसकी दीवारें उसकी हँसी से बसी थीं,
अब उसे ख़ामोशी से देख रही थीं।

वो गलियाँ…
जिन्होंने उसके बचपन को अपने आँगन में दौड़ते देखा था,
अब चुप थीं।

सुल्तान मेंशन…

बड़ा, शानदार, तहज़ीब और विरासत की मिसाल सा नज़र आता था। ऊँचे दरवाज़े, नक्काशीदार खंभे, संगमरमर की सीढ़ियाँ और हर कोने में सलीक़ा टपकता हुआ। जैसे किसी पुराने नवाबी दौर की महक अब भी सांसों में बसी हो।

नायरा गाड़ी से उतरी तो उसकी आँखें हैरानी से हर ओर घूम रही थीं। ये जगह वैसी नहीं थी, जैसी उसने कभी सोची थी। ये महल था… और अब ये उसका घर था।

सामने पूरे परिवार के लोग खड़े थे—
लड़के की दादी, सलीके से सफेद साड़ी में, चेहरे पर गरिमा और सादगी की झलक लिए,
उसकी माँ—खामोश, पर बहुत गहरे संस्कारों से भरी,
बड़े भाई साहब और भाभी—जो बहुत अपनापन लिए मुस्कुरा रहे थे।

जैसे ही नायरा दरवाज़े के करीब पहुँची, दादी ने उसके सिर पर हाथ रखा—
"बड़ी ही नसीबों वाली है तू, बच्ची… इस घर में बरकत और खुशियाँ लेकर आई है तू।"

ना कुरआन की तिलावत, ना ही स्वागत की भीड़… बस एक शांति सी थी।

दादी ने गहरी सांस ली, और कहा।
"बिस्मिल्लाह..."
और वो तीन अक्षर जैसे पूरे माहौल में बरकत की हवा घोल गए।

नायरा ने बिना कुछ पूछे सिर झुका लिया और अपने रेशमी लिबास को सँभालते हुए दहलीज़ लाँघ गई।

पर नायरा की आँखें अब भी किसी को ढूंढ रही थीं…
उस चेहरे को…
उस नाम को…
जिससे उसका निकाह हुआ था।

पर वह वहाँ नहीं था।

उसके मन में खामोशी थी, और दिल में एक सवाल—
"क्या मैं उस अजनबी घर में, उस अनजान शख्स की बीवी बनकर, खुद को पहचान पाऊँगी?"

और तभी दादी ने उसकी कलाई थाम कर कहा,
"चलो बिटिया, अब तुम्हारा कमरा तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है।"

पीछे से नजमा की सादगी भरी आवाज़ आई—
"रूबी, अपनी भाभी को उनके कमरे तक छोड़ आ बेटा।"

रूबी ने नायरा की तरफ बढ़ते हुए हल्की मुस्कान दी,
"चलिए भाभी, अब ये आपका घर है..."

नायरा बस सिर हिला पाई… दिल में हलचल थी, एक अजनबी घर, अजनबी रिश्ते और सबसे अजनबी—वो शख्स जिससे निकाह हुआ था।

रूबी उसे लेकर ऊपर चली… हर सीढ़ी जैसे एक नए मोड़ की तरफ ले जा रही थी।
कमरा—जिसे अब उसका कहा जाने वाला था, सजावट से नहीं, उसकी मौजूदगी से पूरा होना था।

नायरा ने एक लंबी साँस ली…
सुल्तान मेंशन के उसके पहले कदम के साथ,
उसकी नई ज़िन्दगी की कहानी शुरू हो गई थी—
बिना जाने, उसका शौहर कौन है…
बिना समझे, उसकी किस्मत क्या कहती है…
बस एक अजनबी उम्मीद के सहारे…

"लीजिए भाभी, आ गया आपका कमरा।"
रूबी ने हल्की मुस्कान के साथ दरवाज़ा खोला।