आरव इस साल इंजीनियरिंग कॉलेज के सेकंड ईयर में था। पुणे के एक छोटे से मोहल्ले में, किराए के कमरे में वह अकेला रहता था। कमरा छोटा था, लेकिन उसकी दुनिया उसमें सिमटी हुई थी। उसकी दीवारों पर अलग-अलग जर्नल्स, केस फाइलें, और कुछ किताबें बिखरी पड़ी रहती थीं। वह एक ऐसा लड़का था, जो दिन-रात पुरानी जघन्य घटनाओं और अनसुलझे मामलों को पढ़ता रहता था। उसका सपना था एक दिन वो भी उस पत्रकारिता के संसार का हिस्सा बने, जहां वो उन रहस्यों को सुलझा सके, जिनका जवाब आज तक नहीं मिल पाया था।
हर तरफ छोटे-छोटे कागज चिपके थे। छोटा सा स्टडी टेबल छोटे-छोटे कागजों से भर चुका था। छोटा सा बुक शेल्फ पूरी तरीके से भरा था और किताबें अस्त-व्यस्त थी।कमरा साफ नहीं था। सिंगल बेड जिस पर बेडशीट इस वक्त नहीं थी क्योंकि वो फर्श पर पड़ी थी। छोटा सा डस्टबिन था पर ज्यादातर कचरा डस्टबिन से बाहर ही था।एक 20 वर्षीय नौजवान लड़के के कमरे की कल्पना इसी प्रकार की जा सकती है।
इस समय वह स्टडी टेबल के सामने चेयर पर बैठा था और टेबल पर हिस्ट्री की किताब रखी थी। इस वक्त उसने हरे की टी-शर्ट और ब्लैक रंग का लोवर पहन रखा था। वह बड़ी गहनता से किताब पढ़ रहा था। उसकी आंखों में चमक और चेहरे से नूर झलक रहा था। वह गेंहूए रंग का एक बेहद ही आकर्षक युवक था।पढ़ाई में अच्छा था। जाहिर सी बात है इंजीनियरिंग कॉलेज में था तो पढ़ाई में अच्छा होना लाजिमी था। लेकिन ऐसा लग रहा था कि कुछ दिनों से वह अपने पढ़ाई के मार्ग से भटक रहा था।"पापा को तो और कुछ आता ही नहीं बस इंजीनियर बन जाओ, ऐसे कैसे बन जाऊं हलवा है क्या?"आरव बड़बड़ाया।
सेमेस्टर अभी 2 दिन पहले ही खत्म हुए थे। पढ़ाई की टेंशन बहुत ज्यादा थी उस पर। ऊपर से उसके पिताजी चाहते थे कि वह इंजीनियर बने।उसके पापा आशुतोष शर्मा बैंक मैनेजर थे। आरव उनका इकलौता बेटा था तो वह उसे हमेशा से कामयाब देखना चाहते थे। लेकिन वह हमेशा से जर्नलिस्ट बनने का सपना ही देखता था। लेकिन हर बार उसके सपने के बीच उसकी माता-पिता की इच्छा आ ही जाती थी। जिसे हर बार उसे ना चाहते हुए भी पूरा करना होता था। यह बात वह भी समझता था कि अपने माता-पिता का वह इकलौता है।
आरव खुद से बातें कर ही रहा था कि टेबल पर पड़ा उसका फोन बजने लगा। फोन उठा कर देखा तो उसके सबसे चहीते दोस्त आकाश का कॉल था।"हां बोल अब क्या कहना है?" आरव ने कॉल उठाते ही कहा।
"तुझे पता है क्या कॉलेज में एनुअल डे फंक्शन सेलिब्रेट करने वाले हैं?"आकाश ने कहा तो आरव जोर से बोला "सुबह ही नोटिफिकेशन मिला था!"
आकाश ; "वैसे इस वक्त क्या कर रहा है? जरूर हिस्ट्री पढ़ रहा होगा? वहां पिताजी इंजीनियर बनने के सपने देख रहे हैं और यहां बेटा आर्कियोलॉजिस्ट बनने पर तुला है? क्या मिलेगा तुझे यह सब कर के?"
आरव ; "भाई नहीं बनना मुझे इंजीनियर! मैं दादू की तरह रिपोर्टर बनना चाहता हूं! तुझे पता है ना मेरे दादू नेडकैती का वो कैस सॉल्व किया था जो पुलिस 3 साल तक नहीं कर पाई। तू जानता होगा ना वनराज शर्मा को!छोड़ मैं पढ़ रहा हूं बाद में कॉल करता हूं ...!!
आरव ने कॉल कट किया और एक लंबी सांस ली। वो फिर से किताब में लग गया ।आरव कुछ देर तक पढ़ता रहा, लेकिन दिमाग में अब भी बातें घूम रही थीं—आकाश की बातें, पापा का दबाव, और खुद का सपना। किताब बंद की और कुर्सी से उठकर लंबी अंगड़ाई ली। घड़ी देखी—शाम के 6 बज चुके थे। हल्की ठंडी हवा चल रही थी। उसने जैकेट उठाई और दरवाज़ा बंद करके सोसाइटी की खाली सड़कों पर टहलने निकल गया।
जैसे ही वो सोसाइटी के गेट तक पहुंचा, वहां खड़े सिक्योरिटी गार्ड शंकर अंकल ने आवाज़ दी,"अरे आरव बाबू, आपके लिए एक पार्सल आया है। बहुत पुराना सा डिब्बा है, नाम भी हाथ से लिखा गया है।"आरव ने थोड़ा चौंक कर पूछा, "कौन भेजा है?""कोई नाम तो नहीं बताया, एक लड़का था। डिलीवरी बॉय लग रहा था मास्क लगा रखा था उसने। पर भेजने वाले के कॉलम में लिखा है—'शास्त्री जी'।"
आरव के चेहरे पर जैसे बिजली सी कौंध गई।"शास्त्री जी? सुभाष शास्त्री?"उसके मन में भावनाओं का सैलाब उमड़ आया। चार दिन पहले ही तो उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा था। उसके दादाजी के सबसे करीबी, और आरव के प्रेरणा स्रोत। वह उसके दादाजी के साथ अपने समय के बेहद ही कामयाब रिपोर्टर थे। उसके दादाजी के चले जाने के बाद भी उसने कई केस सॉल्व किए थे। 4 दिन पहले उनके आकस्मिक मृत्यु हो चुकी थी। परिवार के नाम पर कोई नहीं था। पुणे में ही उनका खुद का एक छोटा सा मकान था। चार दिन पहले ही उनका मृत शरीर उनके फूलों के बगीचे में पड़ा मिला।
वो जल्दी से डिब्बा लेकर कमरे की तरफ भागा। जैसे ही कमरे में पहुंचा, दरवाज़ा बंद किया और पैकेज को टेबल पर रखा। उसकी पैकिंग पुरानी थी, हल्की सी धूल जमी हुई। ऐसा लग रहा था यह डिब्बा कई दिनों से बंद था। और इसकी पैकिंग कई दिन पहले की गई हो। दिल तेजी से धड़क रहा था।
आखिर जो इंसान चार दिन पहले मर चुका था आज उसका पार्सल उसके पास कैसे आ सकता है? उनकी मृत्यु के तीन दिन पहले वह मिला था उनसे। पर ऐसी किसी चीज का जिक्र तो उन्होंने नहीं किया। तो फिर आज ये पार्सल?
धीरे-धीरे उसने टेप हटाया और ढक्कन खोला।
अंदर कुछ पुरानी केस फाइलें थीं। भूरे रंग की, कुछ जगहों से फटी हुईं। साथ ही कुछ नोटबुक्स और किताबें थीं, जिन पर सुभाष शास्त्री के हस्ताक्षर थे। हर पन्ना जैसे एक इतिहास बोल रहा था।
हां अगर कोई और इस चीज को देखता तो उसके लिए यह सिर्फ कचरा था। लेकिन आरव जैसे लड़के के लिए यह किसी खजाने से कम नहीं था।
आरव ने सबको एक तरफ रखी हुई वो फाइल उठाई, जो बाकियों से अलग थी—नीले रंग की, बेहद पुरानी और मोटी। उसका ऊपर का कवर लगभग फट चुका था और अंदर के पन्ने भरे पड़ चुके थे। ऐसा लग रहा था कि वह फाइल सबसे पुरानी है। उस पर मोटे अक्षरों में लिखा था:"नारायण मलिक – 1882"
वह थोड़ा चौंक पड़ा।"शास्त्री जी के पास इतनी पुरानी फाइल?" असमंजस के भाव से उसने खुद से कहा।
"ये क्या है?"एक किताब के पीछे छुपा हुआ बेहद ही पुराना चांदी का लॉकेट आरव को दिखाई दिया।
बाकी जो सारी फाइलें थी वह 1950 के बाद की थी केवल यही फाइल थी जो 1882 की थी। लेकिन यह फाइल उनके पास क्या कर रही थी क्योंकि 1882 में तो वह पैदा भी नहीं हुए थे।
इन सबके अलावा एक डायरी भी थी।आरव ने उसे उठाया और ऊपर से धूल साफ की।वह शायद उनकी पर्सनल डायरी थी जिसमें वह कुछ लिखा करते थे।अरे उसे खोलने वाला ही था कि तभी उसकी नजर एक फाइल के नीचे दबे पड़े लॉकेट पर गई। वह चांद के आकार का एक चांदी का लॉकेट था काफी पुराना।
"शास्त्री जी ने मुझे क्यों भेजा यह सब?"
अचानक से उसके दिमाग में आया।"लेकिन उनकी डेथ 4 दिन पहले हो चुकी है, फिर यह पार्सल आज क्यों? अगर उन्हें मुझे कुछ देना ही था तो मैं उनसे पहले मिला था तब क्यों नहीं दिया?"
"शायद शास्त्री जी चाहते थे कि मुझे यह उनकी मौत के बाद मिले। पर क्यों?"
इतने सारे सवाल उसके दिमाग में आ रहे थे। लेकिन वह जवाब किसी से नहीं पूछ सकता था क्योंकि शास्त्री जी तो चार दिन पहले मर चुके थे।
उसने अपना दिमाग झटका।"शायद शास्त्री जी ने मुझे इस 4 दिन पहले ही भेज दिया होगा लेकिन शायद डिलीवरी में कोई देरी हो गई होगी?"
उसने वह लॉकेट उठाया और ड्राइवर में डाल दिया। नारायण मलिक की फाइल और शास्त्री जी की डायरी बस यह दो चीज निकल और बाकी बक्सा वापस बंद करके अलमारी के ऊपर सरका दिया।
पता नहीं क्यों? उसके दिमाग में एक तूफान सा मच चुका था। उसने वह दोनों चीज अपनी स्टडी टेबल की साइड में रख दी लेकिन उसकी नजर बार-बार उन पर जा रही थी।
आरव का मन अब किताबों से पूरी तरह हट चुका था। सामने फैली नीली फाइल जैसे उसे किसी और ही दुनिया में खींच रही थी। उसने फाइल को फिर से देखा, कुछ कागज़ धुंधले अक्षरों में टाइप किए हुए थे, और कुछ जगहों पर हाथ से लाल स्याही से रेखाएं खींची गई थीं। हर कागज़ चीख-चीखकर कह रहा था कि ये मामला सामान्य नहीं है।
आरव ने गहरी सांस ली, कुर्सी पर ठीक से बैठ गया और अपनी जेब से फोन निकाला। इंटरनेट ब्राउज़र खोला और सर्च बार में टाइप किया—"Narayan Malik 1882"
पहले तो कुछ किताबों की लिस्ट आई, कुछ विकी टाइप पेज और इतिहास से जुड़ी वेबसाइट्स। लेकिन एक लिंक उसके ध्यान में आया—"The Shadow of Narayan: Unsolved Crimes of Colonial India"(नारायण की परछाईं: औपनिवेशिक भारत के अनसुलझे अपराध)
जैसे ही आरव ने लिंक पर क्लिक किया, एक पुराना-सा ब्लॉग खुला। पेज की पृष्ठभूमि धुंधली ग्रे थी और फॉन्ट टाइप राइटर की तरह। लेख की शुरुआत कुछ इस तरह थी:
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"नारायण मलिक: एक नाम, जिसने 19वीं सदी के उत्तरार्ध में उत्तर भारत को कंपा कर रख दिया।1882 से 1887 के बीच, ब्रिटिश इंडिया के संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) और बिहार के कई हिस्सों में लगभग 47 अपराध—चोरी, हत्या, बलात्कार, और लूटपाट के केस सामने आए। हर बार, घटनास्थल पर कोई सुराग नहीं मिलता था—सिर्फ एक चिन्ह छोड़ दिया जाता था: एक ताश का जोकर।ब्रिटिश सरकार ने उस पर 10,000 रुपये का इनाम रखा था—जो उस समय की बड़ी राशि थी। लेकिन वह किसी के हाथ नहीं आया।
1887 में एक रात वह अचानक गायब हो गया। बिना कोई सुराग छोड़े, वह मानो हवा में उड़ गया।लेकिन यह रहस्य यहीं खत्म नहीं होता।
1975 के आसपास बिहार के दरभंगा, गया और पश्चिम बंगाल के कुछ इलाकों में कुछ बुजुर्गों ने दावा किया कि उन्होंने एक वैसा ही आदमी देखा है जैसा उन्होंने अपने बचपन में नारायण मलिक की तस्वीरों में देखा था।'वह नहीं बदला था... वो वैसा ही था।' – यह बयान है 1975 में एक चायवाले का, जो आज जीवित नहीं है।कई लोगों ने कहा—'वह इंसान नहीं हो सकता।'कुछ ने कहा—'वह मर चुका था, लेकिन फिर क्यों दिखा?'कुछ मानते हैं कि वह अपनी आत्मा बेच चुका था—शैतान से अमरता के लिए।
अंत में उस लेख में एक ब्लैक एंड वाइट तस्वीर लगी थी—एक नौजवान, तीखी आँखें, हल्की मुस्कान, और एक अजीब तरह का आत्मविश्वास चेहरे पर।
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आरव ने बिना सोचे तस्वीर डाउनलोड कर ली।फिर उसने नीली फाइल से वो पुराना फोटो उठाया जो गिर गया था। ध्यान से तुलना करने लगा—चेहरे की बनावट, नाक का आकार, आँखों का तेज... सब कुछ मिलता-जुलता था।
"ये… कैसे हो सकता है?" आरव फुसफुसाया।
आर्टिकल के अंत में लिखा था—1. नारायण मलिक: 1882–1887 के बीच सक्रिय2. गायब – 18873. दोबारा दिखा – 19754. उम्र का कोई असर नहीं – अमरता?5. क्या उसने कभी पकड़े जाने के डर से पहचान बदली?
जैसे-जैसे वो नोट्स ले रहा था, उसके कमरे में एक गहरा सन्नाटा छा गया। बाहर की लाइट धीमी होने लगी थी। हल्की हवा खिड़की के पर्दे से टकरा रही थी। आरव को अहसास हुआ—वह अब सिर्फ एक केस नहीं पढ़ रहा, वह इसके भीतर उतरता जा रहा है।
उसने दोबारा फाइल खोली और एक कागज पर नजर पड़ी जिस पर हाथ से लिखा था—"शास्त्री की टिप्पणी – यह केस तर्क की सीमाएं पार करता है।"
एक पल को उसने सोचा, “अगर नारायण मलिक वाकई 1975 में देखा गया था, तो क्या वह अब भी ज़िंदा है?”उसके दिल में सिहरन दौड़ गई।
क्या यह संभव था कि नारायण मलिक आज भी जीवित हो...?
आरव का दिमाग घूमने लगा।"मैं भी यह क्या लेकर बैठ गया? अभी तो हाफ इयरली के सेमेस्टर पूरे हुए हैं, और मैं शास्त्री जी के कैस पढ़ रहा हूं!"
फिर उसने अपना सारा ध्यान एक जगह केंद्रित किया और फिजिक्स की मोटी किताब को सामने रखकर अपनी नोटबुक में कुछ इंपॉर्टेंट टॉपिक लिखने लगा। लेकिन अभी उसका मन बिल्कुल भी नहीं कर रहा था।
"एक दिन मेरा मूड मेरे करियर की बैंड बाजा कर रहेगा!"वह खुद से ही बड़बड़ाया।।
कुछ सोच कर उसने अपना फोन उठाया और इंस्टाग्राम खोल कर रिल्स स्क्रोल करने लगा।कभी कोई डांस वीडियो कभी कोई कॉमेडी वीडियो कभी कुकिंग तो कभी क्या? वह लगातार रील्स स्क्रोल कर रहा था
उसे लगभग 15 मिनट हो चुकी थी। एक डांस वीडियो पर जाकर उसका फोन रुक, और जैसे ही उसने अगला वीडियो निकला वह एक विज्ञापन था किसी ऐप का। एक अजीब सा सफेद कलर का मुकुटा बना हुआ लोगो था जिसमें पीछे ब्लैक बैकग्राउंड था।
"FACESWAP"
"Make your imagination your face "
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जारी है........
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