Love and Crosses - 1 in Hindi Love Stories by Saurabh Sangani books and stories PDF | Love and Cross - 1

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Love and Cross - 1

अध्याय 1: प्रेम का पहला इनकार

उस दिन उसने ज़्यादा कुछ नहीं कहा था।

बस एक लाइन —

“मुझे नहीं लगता कि मैं तुम्हारे लिए वैसे कुछ महसूस करती हूं।”

इतना ही।

पर उस लाइन के बाद जो चुप्पी आई,

वो अब तक मेरे अंदर जिंदा है।

(1) शुरुआत का भ्रम

जब भी वो सामने आती थी,

कुछ भी बोलने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी।

बस उसकी मौजूदगी ही इतनी साफ़ थी

कि मैं हर बार अपने मन में वही स्क्रिप्ट लिखता —

“शायद ये भी कुछ सोचती होगी। शायद ये भी थोड़ा उलझी होगी। शायद…”

पर अब समझ आता है —

वो सोच नहीं रही थी,

मैं ही अकेला ख़्वाब में चल रहा था।

(2) छोटा-सा जवाब, बड़ा असर

“मैं तुम्हें उस तरह से नहीं देखती।”

ये लाइन दुनिया में सबसे सच्चे झूठ जैसी लगती है।

क्योंकि तुम कैसे समझाओ किसी को,

कि “तुम जिसे इग्नोर कर रही हो,

वो हर रात तुम्हारे ‘ऑनलाइन’ आने का इंतज़ार करता है।”

तुम्हारी हर ‘seen’ एक जवाब है,

पर न मैं पूछना छोड़ पाया,

न तुम टालना।

(3) इनकार के बाद की दुनिया

इनकार के बाद सब कुछ वैसा ही रहा—

क्लास, दोस्त, बातें…

पर कुछ बदल गया था।

अब मैं मुस्कुरा तो रहा था,

पर सिर्फ़ उतना जितना ज़रूरी था।

जैसे कि किसी रिश्ते की मौत के बाद भी लोग काम पर जाते हैं।

दिल की बात करना छोड़ दिया था,

क्योंकि अब कोई बात पूरी नहीं लगती थी

जब तक उसमें उसका नाम न हो।

(4) मैं और मेरा झूठ

मुझे लगता था—

“वो कभी तो समझेगी। कभी तो पलटेगी। शायद किसी रोज़ उसे भी एहसास होगा…”

पर सच्चाई ये है:

कभी-कभी लोग नहीं बदलते।

बस हम ही देर से समझते हैं।

और उस देर में,

हम अपने आप को इतना झूठ सुना चुके होते हैं

कि सच्चाई किसी और की नहीं,

हमारी ही दुश्मन बन जाती है।

(5) आख़िरी बात

उसने कहा था — “तुम बहुत अच्छे इंसान हो।”

मैं उस लाइन पर हँस भी नहीं पाया।

क्योंकि वो आखिरी लात थी

किसी ऐसे को जो पहले से ही गिरा पड़ा था।

अंतिम लकीर

प्रेम का पहला इनकार हमेशा बाहर से छोटा लगता है,

पर अंदर से वो एक पूरी किताब की तरह फैल जाता है।

मैं अब भी नहीं कहता कि मुझे पछतावा है।

मैंने प्यार किया था — बेझिझक, बिना किसी शर्त के।

और उसने जो किया, वो भी ठीक था।

क्योंकि कुछ लोग साथ नहीं आते…

वो सिर्फ़ हमें बेहतर अकेला बनाना सिखाते हैं।

अध्याय 2: चुप रहने वाले रिश्ते

कुछ रिश्ते शोर नहीं करते।

ना ही इज़हार चाहते हैं।

वो बस… रहते हैं।

उनका होना भी आवाज़ नहीं करता,

और उनका चला जाना भी।

पर जब वो नहीं होते,

तो अंदर एक ख़ाली जगह बहुत बोलती है।

1. हर दिन थोड़ा-थोड़ा

हमने कभी एक-दूसरे से ‘प्यार’ नहीं कहा।

ना ‘आई मिस यू’, ना ‘गुड मॉर्निंग’, ना ‘गुड नाइट’।

पर फिर भी,

उसके बिना कोई दिन पूरा नहीं लगता था।

हर बात बस इतनी सी —

“क्या कर रहे हो?”

“कुछ नहीं, तू?”

बस ये छोटे छोटे संवाद,

एक बड़े रिश्ते के खंभे थे।

2. नाम नहीं था, पर रिश्ता था

जब भी कोई पूछता —

“क्या चल रहा है तुम दोनों के बीच?”

मैं मुस्कुरा देता।

क्योंकि जवाब मेरे पास कभी था ही नहीं।

हमने कभी नाम नहीं रखा इस बंधन का —

पर ये हर नाम से ज़्यादा गहरा था।

3. दरारें चुपचाप आती हैं

फिर कुछ बदल गया।

न उसने कुछ कहा,

न मैंने।

बस बातों में विराम आने लगा।

और फिर…

उसकी टाइपिंग  कभी ‘टाइपिंग…’ नहीं बन पाई।

4. समझ और स्वीकार

अब मैं जानता हूँ —

कुछ रिश्ते सिर्फ़ चुप्पी में पलते हैं,

और चुप्पी में ही खत्म हो जाते हैं।

उनका कोई अंत नहीं होता,

बस एक मोड़ आता है,

जहां से दोनों अलग रास्तों पर

बिना कुछ कहे चल पड़ते हैं।

अंतिम पंक्तियाँ:

कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं

जिनकी आवाज़ कभी सुनाई नहीं देती,

पर जब वो चले जाते हैं,

तो सारा वक़्त गूँज उठता है।

अध्याय 3: तुम थे, और मैं पूरा नहीं था

तुम आए ज़िंदगी में जैसे कोई ठंडी हवा चलती है

किसी टूटे खिड़की वाले कमरे में।

ताज़गी थी,

पर खिड़की टूटी ही रही।

1. तुम्हारा होना, अधूरेपन का आराम

तुमसे पहले, मैं बिखरा हुआ था।

तुम आए,

तो लगा — चलो, कोई है जो समेटेगा।

पर असल में,

तुम बस पास आ गए।

समेटा कुछ भी नहीं।

और शायद… समेटना तुम्हारा काम भी नहीं था।

2. मैं उम्मीद करता रहा

मैं चाहता था कि तुम मेरे हर खाली हिस्से को भर दो।

मेरे अंदर की हर आवाज़ को सुनो।

हर डर को पकड़कर शांत कर दो।

लेकिन अब समझता हूँ —

तुम कोई इलाज नहीं थे,

तुम बस एक राहत थे,

वो भी थोड़ी देर की।

3. प्यार था… शायद

तुम्हारे साथ जो था,

वो प्यार जैसा कुछ था —

पर पूरा नहीं।

शायद क्योंकि मैं खुद पूरा नहीं था।

शायद क्योंकि तुम भी मेरी दरारों में नहीं रहना चाहती थीं।

4. जाने से पहले एक बात

अगर कभी दोबारा मिलो तो

ये मत पूछना, “कैसे हो?”

बस ये जान लेना कि

अब मैं किसी से भरने की उम्मीद नहीं करता।

अब मैं टूट कर जीना सीख गया हूँ।

अंतिम पंक्तियाँ:

कभी-कभी लोग आते हैं

पूरा करने नहीं,

सिखाने कि अधूरे रहकर भी जिया जा सकता है।

अध्याय 4: एक रिश्ता जो नाम नहीं माँगता था

हम साथ थे…

पर कोई नाम नहीं था हमारे बीच।

ना दोस्ती कहा जा सकता था,

ना प्यार…

बस एक एहसास जो बिना किसी परिभाषा के भी

पूरा लगता था।

1. नाम के बिना जुड़ना

रिश्तों को जब नाम मिल जाता है,

तो ज़िम्मेदारियाँ भी आने लगती हैं।

तुम्हारे साथ…

सब कुछ था —

बिना किसी ‘तू मेरा क्या है?’ के।

ना कोई दायरा,

ना कोई दावा।

बस एक मौन समझदारी।

2. कभी ज़्यादा, कभी कम

कभी तुम मुझे अपनी हर बात बताते थे,

कभी कई दिन तक कुछ नहीं कहते थे।

और मैंने कभी शिकायत नहीं की।

क्योंकि शिकायतें वहां होती हैं

जहां रिश्ते का कोई नाम होता है।

3. जो हम नहीं कह पाए

कभी-कभी मैं सोचता हूं —

क्या हम दोनों को ये डर था कि

अगर इस रिश्ते को नाम दे दिया,

तो कहीं सब कुछ टूट न जाए?

या फिर हम दोनों इतने बचे हुए थे

कि किसी नए शब्द का वज़न उठाना ही नहीं चाहते थे।

4. और अब…

अब तुम कहीं और हो,

किसी और के साथ —

शायद नाम के साथ।

और मैं अब भी वही हूं,

बिना नाम के रिश्तों में सबसे ज़्यादा यक़ीन रखने वाला।

अंतिम पंक्तियाँ:

कुछ रिश्ते नाम मांगते हैं…

कुछ पहचान।

पर जो सबसे गहरे होते हैं —

वो बस होते हैं।

बिना कोई दावा किए।

बिना कोई वादा तोड़े।