ONE SIDED LOVE - 4 in Hindi Fiction Stories by ekshayra books and stories PDF | ONE SIDED LOVE - 4

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ONE SIDED LOVE - 4

लाइब्रेरी की वो खिड़की वाली टेबल अब उनकी दुनिया का हिस्सा बन चुकी थी।जहाँ कभी किताबें और नोट्स रखे जाते थे, अब वहाँ अनकहे जज़्बात बिखरने लगे थे।


अन्विता ने खुद को कभी इतना जुड़ा हुआ महसूस नहीं किया था — न किसी इंसान से, न किसी पल से। लेकिन अब हर शाम की बेसब्री बस उसी एक शख्स के लिए होती थी — आरव मेहता। पर कल उसकी गैरहाज़िरी ने दिल के किसी कोने में हल्की सी बेचैनी भर दी थी।


आज जब वो लौटा, तो चेहरे पर वो मुस्कान थी, लेकिन आँखों में कोई थकन, कोई बोझ छुपा हुआ था।

"सब ठीक है?"अन्विता ने आखिर पूछ ही लिया।आरव ने एक पल के लिए नज़रें झुका लीं।


"हाँ, बस घर पे कुछ tension थी... Dad की तबियत थोड़ी खराब है," उसने धीरे से कहा। उसकी आवाज़ में वो usual हलकापन नहीं था। पहली  बार अन्विता ने उसे कुछ कमज़ोर सा पाया।


"तुम... बताना चाहो तो..."वो आगे कुछ नहीं कह सकी, लेकिन उसकी आँखों में साफ़ था — वो सुनने के लिए तैयार थी।


आरव हल्का मुस्कुराया, "Thanks... बस ये कि जब कभी पापा की तबीयत खराब होती है न, तो मम्मी बहुत घबरा जाती हैं। उस माहौल में सब कुछ manage करना थोड़ा भारी लगता है कभी-कभी।"अन्विता चुप रही, पर उसके मन में एक भाव उमड़ आया — शायद वो आरव को अब सिर्फ पसंद नहीं करती, बल्कि समझना भी चाहती है।


अगले कुछ दिन प्रोजेक्ट के साथ-साथ उनके रिश्ते को भी गहराई देने लगे।अब आरव कभी-कभी कैंटीन में उसके लिए उसकी पसंद की अदरक वाली चाय ले आता, तो कभी किसी random song का mention करके पूछता — “ये तुम्हें पसंद है न?”अन्विता हैरान रह जाती — क्या वो उसकी इतनी सी बातें नोटिस करता है?


एक शाम जब लाइब्रेरी में भीड़ ज़्यादा थी, तो दोनों कैंपस के बगीचे में जाकर बैठ गए।ठंडी हवा चल रही थी, और सूरज ढलने को था।

"कभी सोचा है कि हम जो लिखते हैं, वो कहीं न कहीं हमें ही खोलता है?" आरव ने पूछा।

अन्विता ने सिर हिलाया, "हाँ... शायद जो हम कह नहीं पाते, वही लिख देते हैं।" 


"तुम्हारे लिखे में जो honesty है, वो rare है,"
आरव ने उसे देखते हुए कहा, "तुम खुद को underestimate मत किया करो।"वो कुछ नहीं बोली, बस ज़मीन पर पड़ी पत्तियों को धीरे-धीरे अपने पैरों से हिलाती रही।


लेकिन जहाँ रिश्ते धीरे-धीरे खिलने लगते हैं, वहीं उलझनों के बीज भी खुद-ब-खुद बोए जाते हैं।


एक दिन कॉलेज की कॉमन गैलरी में अन्विता ने आरव को एक लड़की के साथ देखा — काफ़ी करीब, काफ़ी हँसते हुए।


लड़की आरव के कंधे पर हाथ रखे थी, और आरव भी उसे बहुत casually पकड़कर बातें कर रहा था। दिल ने झूठा तसल्ली दी — "शायद दोस्त हो..."लेकिन उस पल में जो चुभन थी, वो कोई तसल्ली नहीं मिटा सकी।


उस शाम आरव नहीं आया लाइब्रेरी। अन्विता ने अपने आप से बहस की —"मुझे फर्क क्यों पड़ रहा है?""हम तो सिर्फ प्रोजेक्ट पार्टनर्स हैं, है न?"

  "मैं कुछ ज़्यादा सोचने लगी हूँ क्या?"उस रात उसने अपनी डायरी में सिर्फ एक लाइन लिखी —“कभी-कभी कोई एक मुस्कान, पूरी दुनिया को सवालों से भर देती है।”


अगले दिन आरव आया।वही usual energy, वही casual vibe।

“कल आए नहीं तुम,” अन्विता ने हल्के से कहा।

“हाँ यार, एक पुरानी दोस्त मिली थी… बातों में टाइम निकल गया,” उसने हँसते हुए कहा। पुरानी दोस्त? कुछ तो बदला था अब।


अन्विता पहले जैसी ease से बात नहीं कर पा रही थी। उसका मन कर रहा था पूछने का, जानने का — पर हक किस रिश्ते से माँगे?

आरव कुछ समझा या नहीं, पता नहीं…लेकिन उसने अचानक पूछा — “तुम मुझसे नाराज़ हो क्या?”



अन्विता ने हल्के से सिर हिला दिया, “नहीं... बस थोड़ा थक गई हूँ शायद।”आरव ने उसे गौर से देखा, और फिर बिना कुछ कहे मुस्कुराया।वो मुस्कान अब उतनी सुकून देने वाली नहीं थी…बल्कि और सवाल जगा गई थी।


शायद अब उनके बीच कुछ और शुरू हो रहा था —एक खामोश उलझन। एक अनकही चाहत या फिर दोनों के बीच एक अधूरा सा रिश्ता जो नाम नहीं मांगता था… बस महसूस होना चाहता था।