आरव का साथ अन्विता के लिए किसी सपने जैसा था — वो सपना जिसे वो खुली आँखों से देख रही थी, पर छूने से डरती थी।
लंच टेबल पर पहली बार उनके बीच जो बातचीत शुरू हुई थी, वो यूँ धीरे-धीरे आगे बढ़ी जैसे कोई धीमी, मधुर धुन — ना तेज़, ना अचानक… बस महसूस करने के लिए बनी हो।
“तो… क्या लिखती हो? शायरी? कहानियाँ?” आरव ने हल्के से पूछा, चाय की प्याली हाथ में थामे।
अन्विता थोड़ी सकुचाई, “थोड़ा बहुत… जो मन में आए, लिख देती हूँ। ज़्यादातर तो डायरी में ही रहता है।”
आरव मुस्कुराया, “मुझे पढ़ाओगी कभी? I mean… सिर्फ अगर तुम्हें ठीक लगे।”
वो कुछ बोलती उससे पहले ही उसकी दोस्त सिमरन पास आ गई, “अरे अन्विता! तू यहाँ है, मैं तुझे ढूंढ रही थी… ओह, सॉरी, डिस्टर्ब तो नहीं किया?”
अन्विता जल्दी से बोली, “नहीं-नहीं, बस बात कर रहे थे प्रोजेक्ट की…”
आरव ने सिमरन को हल्का सा सिर हिलाकर ग्रीट किया और बोला, “I should go, see you in the library at 4 for project discussion?”
“हाँ,” अन्विता ने धीरे से कहा।
शाम 4 बजे लाइब्रेरी की एक खिड़की वाली टेबल पर दोनों आमने-सामने बैठे थे। आरव के पास लैपटॉप था, और अन्विता के हाथ में एक मोटी नोटबुक।
“Presentation के लिए हम कोई real-life example भी ले सकते हैं,” आरव ने सुझाव दिया,“तुम्हें क्या लगता है?”
“हां… अगर हम ‘social media और youth’ को लें, तो काफी कुछ explore कर सकते हैं,” अन्विता ने थोड़ा कॉन्फिडेंट होकर कहा।
आरव ने मुस्कुराते हुए उसकी तरफ देखा — “I like that… तुम बस सीरियस ही नहीं, स्मार्ट भी हो।”वो नज़रें नहीं मिला पाई, पर उसकी मुस्कान छुप नहीं सकी।
धीरे-धीरे, अगले एक घंटे में, उन्होंने न सिर्फ प्रोजेक्ट का outline बनाया, बल्कि आपसी बातचीत में एक नया comfort भी पाया। आरव बीच-बीच में उसके लिखे नोट्स को देखकर तारीफ करता रहा — “तुम्हारी हैंडराइटिंग भी वैसी ही है, जैसी तुम हो… साफ, सलीकी वाली।”
अन्विता का दिल हर उस वक़्त धड़कता जब वो कुछ ऐसा कहता, जो किसी और के लिए शायद छोटी बात होती, लेकिन उसके लिए बड़ी।
अगले कुछ दिन ऐसे गुज़रे जैसे किसी नई शुरुआत का ट्रेलर हो — रोज़ शाम की लाइब्रेरी मीटिंग, हल्की-फुल्की बातचीत, और आरव का बार-बार उसकी डायरी को देखने की कोशिश करना।
एक दिन, जब वो उसे अपने कुछ लिखे हुए पन्ने पढ़ाने लगी, आरव ने चुपचाप सुना। फिर बोला —“तुम्हारे शब्दों में सच्चाई है… तुम्हारी तरह, अन्विता। I think I wanna know you more.”उस एक लाइन ने जैसे अन्विता की पूरी दुनिया को pause पर डाल दिया। वो कुछ नहीं बोली। बस हल्के से मुस्कुरा दी।शायद अब उसके ‘अलग’ दिन आने लगे थे।
लाइब्रेरी की मीटिंग्स अब सिर्फ प्रोजेक्ट तक सीमित नहीं रहीं। अन्विता को ये एहसास होने लगा था कि उसकी दुनिया अब धीरे-धीरे बदल रही है — या शायद सजने लगी है।
एक दिन जब आरव नहीं आया, तो उसे बेचैनी सी हुई। फोन नंबर तक तो नहीं था, लेकिन नज़रें बार-बार दरवाज़े की तरफ उठती रहीं।
अगले दिन आरव आया, आंखों में वही मुस्कान, लेकिन चेहरे पर थकावट भी थी।
“Sorry कल नहीं आ पाया… कुछ personal था।”
अन्विता कुछ नहीं पूछ पाई। पर अब वो जानना चाहती थी — उसका ‘personal' क्या है?