Parimal in Hindi Short Stories by Madhavi Marathe books and stories PDF | परिमल

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परिमल

 

                                                                                         ओंकार

     चलते चलते एक मंदिर के सामने अचानक मेरे पैर रुक गए। अंदर से ओंकार धुन का नाद सुनाई दे रहा था। एक लय, ताल में छोटे से बडे बुढों तक, तन्मयता से ओंकार धुन का उच्चारण कर रहे थे। सबके चेहरे पर एक अगम्यता का भाव स्पष्ट रुप से दिखाई दे रहा था। गुढ, शांत भाव की झाँकिया उन स्वरों में झलक रही थी। ऐसे वातावरण में एकरूप होने की आकांक्षा मेरे मन में भी जागृत हो गई। कितनी पवित्रता समायी हुई थी उस नाद में। विश्व की उत्पत्ति ओंकार से ही हुई है यह सार्थ भाव अंदर से जागृत हो रहा था। ओंकार धुन का स्वागत वे लोग अपने तन-मन से कर रहे थे। हृदय के ताल से ताल मिलाकर वहाँ से वलय निर्माण हो रहा होगा। यह सुक्ष्म दृष्टी का खेल स्थूल दृष्टी कैसे अनुभव कर सकती है? वहाँ अनुभव होती है केवल अगम्य शांती।

         अर्थात किसी भी सिर्फ विचार से अनुभव प्राप्ती नही होती। उस संवेदना को महसुस करने के लिए कर्म, कृती की आवश्यकता होती है। तभी स्थूल, सुक्ष्म स्थिती का अनुभव हम जान पाते है। महसुस कर सकते है। खुद का यह अनुभव मनुष्य की शक्ती बन जाता है। प्रेरणा बन जाता है। ओंकारध्वनी को अध्यात्मिकता का पहला सोपान माना जाता है। वही से भगवान के तरफ जाने का मार्ग खुल जाता है। ऐसे ओंकार के समीप जाने के लिए मैने कदम बढा दिए तभी महसुस होने लगा इस राजमार्ग पर केवल कदम बढाने की जरूरी है, फिर अपने आप सब घटित होने लगता है। फिर रहता है केवल एहसास आत्मा-परमात्मा के अंश का। आकाशतत्व के विशालता का।

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                                                                                            लिली

            बसंतऋतु के एप्रिल महिने के आस-पास मेरा मन बारं-बारं लिली के गमले के तरफ जा रहा था। पिछले साल लिली का रंगीन, बहारदार फुलों का मौसम याद आते ही मन को बहुत सुकून महसुस होने लगता। वह नजाकत भरे गुलाबी फुलों से पुरा गमला सज गया था। अभी इस साल भी ऐसे ही फुलों से बगिया खिल उठने की आशा से मन पल्लवांकीत हो जाता, लेकिन लिली के पौधों को शायद किसी बात की चिंता ही नही थी। अपने ही मस्ती में वह जी रहा था। पुराने पत्तों की मुरझाहट से लग नही रहा था की वह पौधा नये निर्माण का कार्य कर रहा होगा। दिन पलटने लगे। लिली के पौधों में कोई भी बदलाव नजर न आने लगा। अब शायद मुझे लिली का दुसरा पौधा लगाना पडेगा इस पौधे में अब शायद जान नही रही होगी ऐसे खयाल अब मन में आने लगे। दिन गुजरने लगे।

              एक दिन सुबह की ठँडी हवाओं का लुफ्त उठाते मैं बगीचे में घुम रही थी। बसंतऋतु की बहार पुरे वातावरण को मदहोश कर रही थी। खिले हुए फुलों पर मँडराते भँवरे, गुनगुनाती धुप, जैसे एक अंतरिक आनंद का बहाव बह रहा हो। उसी बहाव में बहते चल रहे मेरे पैर, लिली का गमला देखते ही रुक गए। उस गमले में, दो-तीन नए पत्तों का आगमन हुआ था। उनको देखते ही मेरा मन आनंद से भर गया। एक-दो दिन में ही हरे-भरे पत्तों की काली मिट्टी के उपर घनी छाया बन गई ओैर एक दिन मुस्काती कली का पदार्पण हुआ। नये जग में प्रवेश का आनंद उसके अबोधता में झलक रहा था। गुलाबी रंग की कोमल कांती सँभालकर हवाँ से वह बात करती। कभी पत्तों के पिछे छुप जाती, तो कभी आकाश का असीम निलापन अपने बाहों में भर लेती। जल्दी ही प्रतिक्षा खत्म हुई ओैर एक सुबह अचानक उस कली का खिले हुए फुल में रूपांतरण हुआ। अब वह फुल दुनिया को जान चुका था, पहचान गया था। सारे संसार का रहस्य, एक कली से फुल बनने तक की प्रक्रिया में सीख गया था। अपने वैभवशाली दिन की कहानियाँ, पुरे दिन अब वो एक-दुसरे को सुना रहे थे।

         मन को अब कुछ काम ही नही बचा था, क्युंकी लिली जग के अंत तक खिलतीही रहनेवाली थी।

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                                                                                         शिशिरगंध

           एक दिन अलग रास्ते से मैं गुजर रही थी तब यकायक अनोखे सुगंध की खुशबू से मेरे पैर रुक गए। फुलों के मंद परिमल ने अलग विश्व की जैसे अनुभूती करा दी। कहाँ से सुगंध आ रहा है यह जानने के लिए इधर-उधर देखने लगी तो सामने अपने विशालता में लहराता वृक्षराज शिशिर दिखाई दिया। कुछ लोग उसे एप्रिलफुल भी कहते है। उस वृक्ष के हरे ओैर लाल रंग की दो प्रजातिया जादातर दिखायी देती है। हरे रंग के फुलों में सबसे ज्यादा खुशबु रहती है। लाल रंग के फुलोंवाला शिशिर दुर से भी दिखायी देता है, लेकिन हरे रंग के फूल, हरे पत्तो में छिप जाने के कारण जल्दी दिखायी नही देते फुलों के परिमल से ही उनकी आहट लग जाती है।

          सामने लहराता शिशिरराज अपने पुरे हरे रंग में झुम रहा था। अपने ही पत्तों के रंग से जैसे खुशबु की बरसात कर रहा था।   

          हरे बुंदों के गोलाकार मे, अंदर का पीला रंग फवाँरे की तरह उछल रहा है। वृक्ष के नीचे भी फुलों की पखरण फैली हुई थी। कभी अपने समय में वृक्ष के उपर खुशबू फैलाता वह फुलों का समा उसने जिया था। अब वही फुल मुरझाए अवस्था में धरती पर बिखर गए थे। ऐसे सुगंध के माहोल में से बाहर आना बहुत ही मुश्किल हो रहा था, लेकिन जाना भी तो पडेगा। वृक्ष के पैरोंतले अभी-अभी गिरे हुए फुलों का गुलदस्ता बनाकर अपने बॅग रख दिया ओैर मैं वहाँ से निकल गई। घर पहुँचते ही फुलों को एक फुलदान में सजाकर अपने काम में लग गई ओैर काम में फुलों की याद न रही। रात को सब काम निपटाकर उस कमरे में जब पहुँची, तब वही खुशबू मन में समा गई। आँखे अपने आप मुँदकर मन की गहराई में, उस स्वर्गीय पलों में रममाण हो गई। उस वृक्षराज को अपने भीतर समाने लगी ओैर सुगंध पे सवाँर होकर अनोखे विश्व की यात्रा में चली गई, मानो कभी भी इस धरती पर न आने के लिए।

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                                                                                                 आकाश की रेखाँए

 

           आकाश में उडते रॉकेट को देखकर ऐसे लगता है की, अवकाश जैसे मन में कभी भी पता नही चलेगा की वह कहाँ उड रहा है, उडता ही जा रहा है। मैं कभी उसे ढुंढ भी नही पाऊँगी उसे। जो कभी अपने साथ था भी या नही? वह तो हमेशा खयालों की नगरी में बसा हुआ है। अपने मन में भी हम ऐसे ही रेखा खिंचते चले जाते है। वह कितनी काल्पनिक, तरल है इसका अहसास हमें मन की रेखा खिंचते वक्त भी नही रहता। जैसे-जैसे काल बदलता रहता है, वैसे-वैसे अपने मन की रेखाऐं भी बदलती रहती है। दो बाजू व्दंव्द में जिंदगी व्याप्त हो जाती है। आकाश की रेखाऐं जैसे कुछ समय बाद लुप्त हो जाती है, वैसे समय की परिभाषा में भी अपना मन रेखाऐं खिंचना बंद कर देता है, क्युंकी अब तक खिंची हुई रेखाओं को देखकर ऐसा लगता है की मकडी के जाल में जैसा भक्ष फँस गया हो वैसे ही हमारा मन भी अपने विचारों के जाल में फँस गया है। यह तीव्र अनुभूती मन को बेचैन कर देती है। आकाश की विशालता में रेखाए मिटाने का जो सामर्थ्य होता है वह तो अपने अंदर महसुस भी नही कर सकते, तो मन की रेखाए मिटाने का सामर्थ्य कहाँ होगा? उसके लिए तो आकाश ही होना होगा। एकही अथांग, चारों ओर फैला हुआ। अपनी आँखों को तुकडो-तुकडों में नजर आते हुए भी, आकाश की महसुस होनेवाली एकसंधता कुछ अलग, समय की रेखापार लगती है। कभी-कभी लगता है हम भी उस एकसंधता में समा जाए, लेकिन ऐसे बह जाने से क्या होगा अपना मन फिरसे वापिस उसी जगह पर आएगा। तो चलो फिर, चल रहे जिंदगी के मोड पे ही गुजरते रहे। अपने हिस्से में आए हुए आकाश के तुकडों में दिखनेवाले बादल, रंगबिरंगी छाया-प्रकाश के खेल, उडते पंछी, रेखा को पिछे छोडते हुए जानेवाला रॉकेट, सबकुछ  एक जगह बैठकर निहारते रहेंगे। फिर भी एक अदृश्य इच्छाशक्ती, अपने हिस्से में आए हुए आकाश के पार देखने की लालसा मन में जागृत रहती है। हम आगे चलने लगते है, लेकिन उससे आगे बढने कुछ चिन्ह महसुस न होने के कारण केवल क्षितिज अपने हिस्से में आ रहा है यह जानकर बडा दुःख होता है। पैर थम जाते है। आगे बढने की उम्मीद अब हम खो चुके होते है। ऐसे मायूसी का कोई आधार तो नही है। वह एक अंतराल होता है। अंतराल में कही कोई बात का आधार नही होता है। जीवन की क्षणिकता, फोलता का अहसास होने लगता है। केवल एक प्रसन्नता का किरण उदासिन विचारों का हरण कर सकता है। फिर एक बात मन में आती है, सकारात्मक सोच ही जीवन को आगे ले जा सकती है। तुम आगे नही बढ पाओगे यह जतानेवाले आकाश के एक टुकडे को छोडकर पहाडीओं के उपर से आकाश की विस्तीर्णता का सामना करतेही वह हमे पुकारने लगता है। तुम कही भी उडान भर सकते हो का एहसास दिलाने लगता है। यह विशाल आसमंत तुम्हारा है, अंधेरे अंतराल में प्रकाशरेखा खिंचने की ताकद तुझमें है यह यकीन दिलाती है। सिर्फ जब तुम आकाश के मर्यादित तुकडे से बाहर आ जाओगे तब कोई भी रेखाओं का जाल तुम्हे कही भी फँसा न पाएगा। वह एक आव्हान तुम्हारे मन में कोई भी सामर्थ्यता का बल प्रदान करेगा। आकाश में प्रकाशरेखा खिंचते जाने की सामर्थ्यता।

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                                                                                              रंगपंचमी  

               हर एक व्यक्ती अपने जीवन में पुर्णतः रंग जाती है। आयुष्य में आने-जानेवाले सुख-दुःखों का सामना करते-करते वही पल जीवन का अविभाज्य भाग बन जाती है। अनजाने में कभी उपर, कभी नीचे इसी प्रकार की जिंदगी जीती रहती है। व्यक्ती कुछ रिश्तों में प्यार, खुषी, अपनापन के गहरे रंग जमाता है, तो कुछ रिश्तों में धोखा, बेवफाई, बदला जैसे रंग बिखर देता है।

           अलग-अलग तरह से व्यक्ती के जीवन में रंगों के उतार-चढाव शुरू ही रहते है। ऐसे रंगे जीवन में लोग, साल के एक दिन रंगपंचमी में असली रंगों के साथ खेल खेलते है। वह खेलना एक बेहोशी जैसा मालूम होता है। रंग खेलते समय कोई भी मुखवटा पहनने की जरूरत नही होती। उल्टा अपने बहुरंगी रुप को देखकर मन ही मन एक निर्लेप भाव से हँसी खिलती है। अधीर मन फिर चारों तरफ अपनी नजर घुमाता है तो सब के खिले हुए चेहरे की रंगत खिली हुई मालूम पडती है। उसी हँसी की, बेहोशी के वातावरण में एक तरह की मदहोशी महसुस होने लगती है। वह हँसी स्त्री, पुरुष, बाल, वृद्ध ऐसा कोई भी भेद नही रखती। उन्मत्त, बेबंदता से, दिन का पल-पल जीने की कला सिखाता है। इन्ही पलों को पुरे सालभर जतन करना होता है, अगले साल के रंगपंचमी तक।

            इतना अगर पसंद है रंग में रंग जाना तो रोज होली खेलेंगे, लेकिन नही। ऐसा हम नही कर सकते अगर रोज होली खेली जाएगी तो मन उसमें लीन नही हो पाएगा। फिर तो अपने अस्तित्व को ही धक्का लग जाने की संभावना पैदा हो जाएगी। अपना खुद का मन अपनी पहचान खो बैठेगा, लेकिन सिवाय मन के व्यक्ती होली के रंग कैसे किसी के साथ खेल पाएगा? क्युंकी हर एक व्यक्ती अपने स्वभावानुसार जीवन सँवारता है। मनुष्य कभी अकेला नही जी सकता, जीवन में आनेवाली व्यक्ती भी अपने रंग मिला देती है। ऐसे में रंगों की मिलावट बढते जाकर कालांतरण में अपना जीवन एक पेंटिंग बन जाता है। उसी पेंटिंग में रंगों का सुसंवाद होना चाहिये, सुसंगती होनी चाहिए। पुरा आत्मविश्वास हमेशा जागृत रहना चाहिए। इन सब में अपने मन के असली रंग को खोना नही है। उन्ही रंगों के साथ हम रोज होली खेल सकते है। उसके लिए जगत से दूर रहने का अभ्यास जरूरी है। अपने मन के साथ रहना हम सीख सके तो दुनिया हँसीन है, ओैर जगत के साथ जीवन बिताना है तो वह कभी खुशी कभी गम है।

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                                                                                                  सायंबेला

            शाम होने लगी। एक अनामिक कंपन से लहराकर सायंज्योती अपने उजाले में शांती से जलने लगी।

            सायंबेला का वक्त ही ऐसा होता है की हर एक व्यक्ती को अपने सुख या दुःख का अनुभव तीव्रता से महसुस होने लगता है। फिर वह शाम दिन की हो या जिंदगी की। दसों दिशाए जब अपनी आँखे मुँद लेती है तब अँधेरे के डर से, गुढताभरा वातावरण मन में ऐसेही विचारों का कोहराम मचा देता है। फिर मन अपने सुख-दुःख की गिनती शुरू कर देता है। यही से एक अनाम उलझन मन में मचलने लगती है। हर एक व्यक्ती के पास सुख का प्याला तो पुरा भरा हुआ होता है लेकिन इसका अहसास उस सुख से समाप्ती पर ही पता चलता है। या मेरा यह सुख-चैन कोई छिन ना ले जाए इस चिंता में अपनेही सुख को ग्रहण लगा लेता है। फिर अनजान डर से दुःख का वलय निर्माण होने लगता है। ऐसी कौनसी चीज की कमी है की इस प्रकार के डर की स्थिती उत्पन्न हो जाती है? इस स्थिती से निकलने के लिए अपना मन मैं कितना सुखी हूँ इस बात को जतलाने लगता है। एक तरह का खालीपन सताने लगता है।

            इससे बाहर निकलने के लिए दिनभर हुए घटनाओं अंदाज लेने की लिए मन का बहाव उस तरफ मूड जाता है। अभी व्यक्ती अगर अच्छे खयालों में होगा तो वह घटनाए मजेदार लगने लगती है ओैर खराब खयालों में होगा तो ऐसी घटना से अब कुछ बुरा तो न होगा ना? इस विचार से चिंतित हो जाता है।

              किसी चीज की तलाश में भटक रहा मन अब घबराने लगता है। उसे क्या चाहिए? कैसे स्थिर रखे यह न जानकर मन में सवाल उठता है की हम मन के पिछे भाग रहे है या हम मन को दौडा रहा है? यह प्रश्न अनुत्तरित है फिर भी ऐसे दौडते-दौडते मन अपने आप से दूर होने लगता है, तो आदमी, आदमी से दूर होने में कितना वक्त लगेगा? इस प्रश्न की गहनता सायंबेला में तीव्ररुप से महसुस होती है। अपना घर, अपने लोग इनकी याद आने लगती है। उन सबके प्रति प्यार उमड आता है।

                प्यार की, जिंदगी के शाम में बहुत जरुरत होती है इस बात का अंदाजा हर कोई अपने मन से लगा सकता हे। अपने जीवन में जिन सुखों को जिया या जिन दुःखों को सहा इन सबकी गिनती करने लगे तो वह भी गलत होने लगते है, क्युँकी जब किसी बात का दुःख हुआ, वही बात बाद में कितनी सुखावह हो गई यह याद करते हुए उस घटना को दुःख में शामिल करे या सुख में समझ नही आता है। कभी जीवन कैसे सँवर गया, कुछ हलके-फुलके, मजेदार किस्से याद करते हुए मन से हँसी उमड पडती है, लेकिन यह सब बातें अभी क्युँ याद आ रही है? पहले तो सभी कामों को समय देते-देते कैसे जिंदगी निकल गई कही पता ही नही चला। अब तो मन ओैर शरीर दोनों में भी ताकद नही रही। दोनों एक-दुसरे को अब सिर्फ बहला रहे है।

                बुढापे में जिंदगी की लहरों में बहती गई बचपन की यादें, जवानी का मदहोश जोश, प्रौढावस्था के आलम सब आँखों के सामने से गुजरते रहते है। अपने बच्चों से होनेवाली गलतियाँ देखकर उन परिणामों के अहसास से मन घबराने लगता है। फिर याद आता है इन सब से अलग गलतियाँ वो भी क्या करेंगे? व्यक्ती बदल गई फिर भी जिंदगी की चौखट थोडी बदल जाएगी? ऐसेही शाम बहुत ही बडी लगने लगती है। आखिर मन के पिछे दौडना बंद करने को जी चाहता है। फिर धीरे-धीरे सभोवताल के जग की संवेदना मन में समाने लगती है। मन काबू में आता है। अपने मन में समाए हुए अजीब सवालों को याद करते हुए हँसी आने लगती है। अब सायंबेला का समय बीत चुका होता है। रात के शांत वातावरण में ऐसे विचारों को स्थान नही मिलता।

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                                                                                           टिले का मंदिर

           हम लोग नये मकान में रहने आ गए। यह मकान शहर से दूर शांत इलाके में था। मकान के आस-पास कही कोलाहल नही था। पडोसी भी, आवाज से दूर केवल दर्शन मात्र दूरी पर थे। यांत्रिक जीवन से दूर होकर निसर्ग सान्निध्यता का आकर्षण अब मन को खिंचने लगा। शांती के परीघ में वह एक सुंदर वलय था।

            सुबह-सुबह उठकर रोज घुमने निकलने का आनंद अब हम लेने लगे। चारों ओर हरियाली, फुलों के अनजाने गंध में अचानक मन सोचता है, पिछे से गाडी तो नही आ जाएगी? कोई आ तो नही रहा है? यह मन की बात जानकर जैसे रास्ते के किनारे खिले हुए पीले फुलों से हँसी खिलखिलाकर बाहर आ रही है ऐसे लगता है। लेकिन वह तो अपने में ही मगन, हवाओं पर डोलती रहती है। घुमते-घुमते एक टिले ने मेरा ध्यान आकर्षित किया ओैर वह अनोखा नजारा देखकर मन खिल उठा। उस टिले के उपर दो गुलमोहर, पेडों के बीच में एक केसरिया रंग से रंगा छोटासा मंदिर दिख रहा था। उस के पिछे से उगता सुरज, आकाश के लालिमा में सुनहरे किरणे फैलाकर उपर आ रहा था। सुर्योदय का वह रंगबिरंगी रंगीन नजारा, अपने हरे पंख पसारे हवाओं पर झुमते गुलमोहर के वृक्ष, टिले के उपर ले जानेवाली रेखीव सिडियाँ, कही ये चित्र तो नही ऐसा आभास क्षणभर के लिए मन में आ गया। दुसरेही पल में उन रंगों में संमिश्रण में डूब जाने के लिए मन व्याकुल हुआ। पैरों ने अपनी गती बढा दी। नजदिक लगनेवाला टिला मुझे पास बुलाते-बुलाते दूर ले जाने लगा। सुरज धीरे-धीरे उपर आने लगा। ताजा हवाओं झोंका, खिले हुए फुलों का सुगंध चारों ओर फैला रहा था। आल्हाददायक वातावरण के कारण थकावट महसुस न हो रही थी। टिले की सिडिया मोड लेते हुए मुझे उपर ले जाने लगी। स्वर्ग में ले जानेवाली यही तो वो सिडियाँ नही ना? ऐसा भ्रम एक बार मन में आ ही गया। चढते-चढते मन का, शरीर का बोझ कम हो रहा है ऐसा महसुस करने लगी। एक तरह का हलका-फुलकापन तन-मन में समाने लगा। कोई अनाम शक्ति मुझे उपर खिंच रही थी। उपर पहुँचतेही दो गुलमोहर के वृक्षों ने अपनी टहनिया हिलकर मेरा स्वागत किया। वृक्ष के नीचे लाल फुलोंने कालीन बिछा दी थी। थोडी ही दूरी पर, साफ पानी का छोटा तालाब सुरज की चमचमाते किरणों से चमक रहा था। उसमें चिडिया पानी में अपने पंख डूबोकर पानी पिती ओैर फिर फडफडाते गगन में उड जाती यही खेल चल रहा था।

             अब पैर भगवान के तरफ जाने के लिए मूड गए। वहाँ भोलेनाथ अपने सिर पर पानी का अभिषेक स्वीकार करते हुए शाँती में लीन थे। कोई तो सुगंधी फुलों की माला उन्हे पहनाकर कर गया था। पास में शक्कर प्रसाद के रुप में रखी गई थी। वहाँ बैठकर अनजाने में मेरे नेत्र बंद हो गए। देवालय में सुगंध के फँवारे फुट रहे है ऐसा आभास होने लगा। संभ्रमित मन, अचानक शांत हो गया। विचार खत्म हो गए। एक निर्गुण, निराकार विश्व, सत्य के समीप होने की अनुभूती समाने लगी। दैवी शुभ्र प्रकाश मेरे अंतर्मन में दिखाई देने लगा। आत्मा-परमात्मा उस क्षण में एक हो गए। कितनी देर हुई पता ही नही चला।

             देवालय की छोटीसी घंटी की गुँज सुनकर मन वास्तवता में प्रवेश करने लगा। पुजारी बाबा मेरे सामने आए ओैर कहने लगे “ यह मंदिर बहुत जागृत है। यहाँ आनेवाले हर भक्त को कोई ना कोई अनुभूती जरूर प्राप्त हो जाती है।” मंत्रमुग्धता से मैने भगवान ओैर पुजारी बाबा को प्रणाम किया। प्रशाद ग्रहण करते हुए बाहर आ गई। मन में एक गुढ भावना पनप रही थी। एक ही विचार, फिर से यहाँ आऊंगी ओैर भगवान कृपा की अनुभूती का सेवन करूंगी।

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                                                                                              कविता

            समय हमेशा बहुत कुछ यादे, सीख, रिश्ते, पिछे छोडकर आगे निकल जाता है। भविष्य का क्षितिज हमेशा इंद्रधनुषी आशाए दिखाता है। इन सबका हम वर्तमानकाल में ही उपभोग ले सकते है। उसी समय भुतकाल के या भविष्यकाल की संवेदना जागृत होकर प्रेरणा के रुप में मन में उतरने लगती है ओैर साकार हो जाती है एक कविता।

             बहुत कुछ कहना है, भावनाए व्यक्त करनी है, ऐसे समय कविता मन में उतरने लगी तो उससे बढिया आनंद कोई हो ही नही सकता। अपनी वह भावनाए कोई समझ सका तो वह आनंद व्दिगुणित हो उठता है, क्युँकी अपने विचारों से मिलते-जुलते साथी मिलना यह बात भी एक चमत्कार से कम नही। अपने विचार, भावना कोई समझ नही पाता ऐसे विचार से भी वैफल्यभाव बढने लगता है, तब भी कविता मन में साकार होने लगती है। सारांश, मन में आनंद की उर्मी, ओैर दुःख की भावना दोनों भी कविता रचने के लिए सहायक होती है ओैर अंदर कही एक आत्मिक समाधान की संवेदना मिलती है। फिर जग के उपर जो गुस्सा रहता है वह बह जाता है। जो चीज अपने अंदर विराजमान है वह जग से क्युँ माँग करे? इसी जबाब में कविता, नजदिक का रिश्ता मजबुत कर देती है। इस आनंद, आत्मिक समाधान में जग अपनासा लगने लगता है। जग से कुछ लेने के बजाय उसे कुछ देने में मजा आने लगता है तो मन चाहता है की पत्तों पर के दवबिंदू जैसे क्षणिक, लेकिन चमचमाता जीवन पाकर मिट्टी में मिल जाए। दवबिंदू क्षणिक सौन्दर्य से जादा किसी को कुछ नही दे सकते, ओैर किसी से कुछ ले भी नही सकते। लेकिन अपने चमचमाते असंख्य बिंदुं से अस्मिता की अमृतबेला एक यादगार पल बना देती है। सारे जग को लुभानेवाला वह दृश्य कविता को ओैर भी भा जाता है। ऐसे समय में अलवार, तरलता से नीले बादल, कागज पर उतरने लगते है। वह साकार होनेवाला रुप, गर्भ से बाहर आनेवाले सृजन रुप जितना सुंदर होता है। कविता का भाव किसी भी प्रकार का हो लेकिन कवी को वह अपूर्वता से महसुस होता है। हर माँ को जैसे अपना बच्चा प्यारा होता है वैसे ही कवी हर काव्य का आनंद, अपना वजुद महसुस करता है।

               ऐसी यह कविता अपने कल्पना के बादल बरसाकर जब चली जाती है तब एक रिक्त खालीपन का अहसास होने लगता है, एक विचारहीन शांत शुन्यता। तरल मन को अब जग का अहसास न होता है। आँखे मुँदने लगती है। एक विलक्षण जादुई क्षणों की मदहोशी की थरथराहट बंद आँखे से भी पुरे शरीर में महसुस होती रहती है। ऐसी ही अवस्था में एक कविता का अंत हो जाता है ओैर फिर रास्ता तयार होने लगता है नए सृजन का।

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                                                                                             चाँदनिया

                 आज बहन से मिलने बंबई जा रही थी। बस का सफर कुछ आरामदायी नही था। तकलिफ होने के कारण दवाई ली ओैर सो गई। मध्यरात में अचानक नीन्द खुली, खिडकी से बाहर देखा तो दंग रह गई। हम शहरवासीयों के लिए तो जैसे जीवनभर का खजाना था। काले-काले आसमान में अनगिनत सितारे चमक रहे थे। परबत की चोटी से लेकर क्षितिजरेखा तक पुरा आसमान जगमगा रहा था। काले पहाडों के कातीव रेखाकृती पर, पेडों के पत्तों से झरते-गिरते चाँदनीया मेरे तन पर भी बिखर रही होंगी। इस संवेदना में मेरे रोम-रोम आनंद से भर गए। बस मोड लेते-लेते उपर चढ रही थी। मन में खयाल आया, ऐसे ही उपर चढते-चढते हम चाँदनियों के पास जाकर उन्हे इकठ्ठा कर के ले आए।

                 सप्तर्षी, त्रिकाण्ड, बुध की पीले रंग की चाँदनी, शहर के लाइट के कारण पहचान पान मुश्किल हो जाता था। अब गाँव से दूर घने अँधेरे में हलका पीलापन, रोशनी दे रहा था। मंगल की लाल चाँदनी, अपने गुढता के वलय में अलिप्त भाव से चमक रहा थी।  ध्रुव का अटल तारा, दिशाओं का ज्ञान उसी के कारण मुसाफिर लोगों को रास्ते से भटकने से बचाता है, वह भी पुरे दुधीया रंग में अपना दिमाख दिखा रहा था। इसके सिवाय अनगिनत छोटे-बडे तारकाओं को देखते-देखते उनकी खासियत नजर आ रही थी। अमृतबेला में नजर आनेवाला शुक्रतारा अपनी तेजस्विता में जगमगा रहा था। सप्तर्षी की अरुंधती भी स्पष्ट रुप से दिख रही थी। आकाशगंगा अपने चाँदनीयों को फैलाकर एक ऋषि स्वरूप दिव्य तेज से, शांतरस में डुबी हुई थी।

           शहर के उजाले में निस्तेज लगनेवाली चाँदनीया का केवल नाम से पहचान थी। लेकिन आज उनका सौंदर्य, चमक, जिस तरह से नजर आ रहा था वह नजारा केवल अवरणीय था। रचित काव्यों से उतर आयी वह चाँदनीया मन को स्पर्श कर थी। इतने ग्रह-तारे लेकिन उनके नाम भी ठीकसे पता नही इस बात की जरा नाराजगी महसुस हुई। इस बात पे हसते हुए चाँदनियों ने कहा “ नाम में क्या है? जहा अंतकरण से एक-दुसरे से बात बात हो सकती है वहा नाम की जरूरी ही नही पडती। हर कोई हर किसी से संवाद साध सके यह तो जरूरी नही। अपना जैसा स्वभाव वैसा ही मार्ग तुम्हे मिल जाता है ओैर उसी मार्ग पर चलनेवालों से अन्तरसफुरति से बाते हो जाती है। वही तुम्हारी पहचान है।”  

             अरे, यह तो सच है। मन में चाँदनिया बरस गई। बडे हर्ष-उल्हास से मैने आसमान के तरफ देखा, सच में मैने उनसे संपर्क किया था? बात की थी? मन का यह जादुई वलय खुली आंखों में समाया ओैर मुझे नीन्द के रास्ते से सपनों की दुनिया में ले गया।

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                                                                                      रात की संवेदनशीलता

                 रात बहुत ही संवेदनशीलपुर्ण होती है। जब हम अपने दिनभर के कामों का लेखा-जोखा रात में सोते समय करने लगते है तब दिनभर के घटनाओं का जिक्र, भावनाए मन में जागृत होने लगती है। जिस तरह से वृक्ष के उपर से, सब फुल निकाल लेते है ओैर उनमें से गिने-चुने फुल भगवान को चढाते है वैसे ही दिनभर की घटनाए याद करते हुए कुछ गिने-चुने यादों का ही मुआयना करते है। दुनिया सोई हुई है ओैर सिर्फ हम जगे है यह एहसास सुखावह लगता है, क्युँकी लडकी, माँ, पत्नी यह सामाजिक जिम्मेदारी भी उसी के साथ सो जाती है। जगा हुआ रहता है सिर्फ खुदका अस्तित्व। जिसका अभी कोई भी, किसीसे भी रिश्ता नही है। केवल स्व का समय। बेधुंद, बेबंद विचार करनेवाला केवल खुद का मन। जिसपे दुसरा कोई अधिकार जतानेवाला नही होता। शीतल, शुभ्र चाँदनी में लिपटी हुई चद्दर लेकर रात का समा लहराता रहता है। अंधेरे के दुसरी ओर प्रकाश फैला हुआ है इसकी याद देनेवाला चंद्रमा, बहुत सारी यादों कों बहाकर ले जानेवाला मंद पवन, ऐसे लगता है उस हवा में बेभान हो जाए। हवाओं पर पत्तों के साथ यादे भी ऊँचे आसमान में ले जाए ओैर फिर हवा के साथ लहराकर नीचे आते वक्त उनका हलकापन, तरलता का अनुभव महसुस करे। उस अहसास में कोई भी रिश्ते के बिना धुंद जगत में खुले मन से हँसी अंदर से आ जाए। केवल अपने अस्तित्व के साथ। उस अस्तित्व को अपने सामने बिठाकर वह खुली हँसी अपने ही चेहरे पर कैसी दिखती है इस बात का अनुभव करने को जी चाहता है, लेकिन जिंदगी में सिर्फ आनंद का अनुभव नही मिलता, दुःख भी सहना पडता है। वह भी तो देखना पडेगा। मन को हँसी आ गई, क्युँ यह खाली मन के खेल में फँस रहा है? मुझे जिस रुप में तू देखना चाहेगा वैसे तू देख सकेगा। सच में अगर व्यक्ती खुदको एक अलिप्त भाव से देख पाएगा तो जग में सुख-दुःख की कल्पनाही बदल जाएगी। एक नई दुनिया का सपना हम देख सकेंगे।

             कितने मजेदार विचार, रात में अपने खयालों में घुमते रहते है। उन विचारों के संवेदनशीलता से कभी डर भी लगता है। अपने रिश्तों की दुनिया कब जगेगी इसकी राह मन अब देखने लगता है। रिश्तों की आहट करवट बदलकर सो गई तो उतनी भी सुखावह हो जाती है, फिर अपना भी अस्तित्व अंतहीनता में विलीन होने लगता है। रात की संवेदनशीलता अपने उपर से गुजरते हुए चली जाती है रिश्तों के प्रकाश की ओर।

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                                                                                              प्रणाम

              विश्व में प्रणाम को बहुत ही महत्व दिया जाता है। प्रणाम या नमस्कार यह केवल हाथ जोडकर ही किया जाय यह जरूरी तो नही। हर जगह इसका रुप अलग-अलग है। भगवान के प्रति श्रध्दाभाव, सामनेवाले व्यक्तीके प्रति आदर व्यक्त करने का वह एक साधन है।

               सुबह जब नीन्द खुलती है तब जिंदगी से जो रातभर का संपर्क टुटा हुआ रहता है उससे जुड जाता है। निद्रिस्त मन जागृतावस्था में जब आता है तब सभोवताल की दुनिया फिरसे परिचित हो जाती है। नीन्द खुलने के बाद भी हम झटसे नही उठते, आँखे खुलने से पहले अंदर से हम जग जाते है ओैर आँखे खोलने के बाद चारों ओर नजर फेरते हुए वस्तु, रिश्ते फिरसे जुड लेते है फिर शुरू होती है नए दिन की शुरुवात। उठने के बाद बडे लोगों के पैर छुने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। इसके पिछे यह भावना हो सकती है की कल किसी के मन में कुछ घटना के कारण मन-मुटाव हो गया हो, तो रात ढलने बाद नई सुबह के साथ आदरभाव से दुरिया खत्म होने में मदद मिल जाती है। पैर छुकर किया हुआ प्रणाम से दोनों के मन के भाव एकरूप हो जाते है। नजदिकीया बढती है। प्यार बढता है। शुभचिंतन होता है। यह                

                  

       उन पवित्र लहरियों के कारण जीवन में यशस्विता मिलती है। पहले एक-दुसरे के प्रति जो अपनापन होता था वह शायद इसी वजह से होगा। पहले सब एकसाथ रहते थे फिर भी लोगों में प्यार, ममता भरी हुई रहती थी। पती-पत्नी का सहवास बहुत कम मिलते हुए भी वह केवल नजरों से एक-दुसरे के हृदय पर राज करते थे।

             जैसे-जैसे समय आगे बढता गया, वैसे-वैसे रूढी, परंपरा का पालन कम होने लगा। यंत्रयुगने परिवारका विभक्तीकरण किया। मम्मी-डॅडी के जमाने में सब संकल्पनाओं, मुल्यों का ऱ्हास होने लगा। विदेशी अनुकरण में लोग, ना अपनी परंपरा ठीक से अपनाने लगे ना विदेसी लोगों की। प्रणाम नही करना चाहते तो इंग्रज का गुड मॉर्निंग तो ले सकते है ना। किसी भी प्रकार से एकदुसरे से रिश्ता तो जताना चाहिये अन्यथा बेपर्वाई, मन में पनपने लगती है। गुस्सा, लालसा ऐसे मानसिक बहाव ना बह गए तो पहले के घटनाओं पर परते चढती जाती है ओैर एक-दुसरे के प्रति तनाव का निर्माण हो जाता है। इसी से आज कुटुंब व्यवस्था पर तनाव बढ गया है। दुरीया बढ्ने लगी है। घटस्फोट बढने लगे है। चार दीवार में समझौता करानेवाला घर का बडा-बुढा कोई नही रहता। ऐसे समय में स्वाभिमान, अभिमान इनमें फर्क न समझते हुए झुठे अहंकार में फसनेवाली नई पिढी मनोविकार के घनघोर आंधियारे में गिरती चली जा रही है। उसे नयी पिढी जिम्मेदार नही है तो परिस्थिती जिम्मेदार है। घर में माँ-बाप अपने बच्चों को समय नही दे पाते। पहले के जमाने में शिक्षक, माँ-बाप जितनी ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। लेकिन अब एक वर्ग में ७०/८० बच्चों में एक शिक्षक किन-किन बच्चों के उपर ध्यान दे सकेगा? फिर बच्चों के सामने आदर्श कौन रहेगा? जिंदगी में हर एक व्यक्ती को कोई ऐसी साथ चाहिये होती है जो संकटकाल में मदत करे, धीर दे, मार्गदर्शन करे। आज के युग में केवल स्वार्थवृत्ती के कारण आदमी, आदमी से दूर हो रहा है। इन्सानियत दिखायी तो भी सामनेवाला अपने ही उपर गुस्सा कर सकता है ऐसे संशयित वातावरण में अविश्वास, जीवन के प्रति श्रद्धा नष्ट हो रही है।

              समाज में बदलाव तो आएगा ही, तो बदलाव के अनुसार जो समस्या उत्पन्न होगी उस के उपर कोई हल भी तो हो सकता है, क्युंकी समस्या आती है वह हल के साथ ही आती है। लेकिन व्यक्ती समस्या का रुप ही इतना बडा कर देता है की उसके पिछे छुपा समस्या का समाधान देख ही नही पाता। जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी सकारात्मक मार्ग का अवलंबन किया तो जिंदगी सरलता से सुधर जाएगी।

               प्रणाम कालबाह्य रुप हो गया तो भी हास्य साधन अभी भी है। सुबह उठते ही एक-दुसरे से केवल स्मित से जोडा जा सकता है। संपर्क स्थापित किया जा सकता है। घर के लोगों के ही अगर सुबह से मुँह फेरे हुए है तो वह दुनिया से कैसे लड सकता है। परिवार यह सबसे लडने की बहुत बडी ताकत होती है। पहला समझौता घर से ही होना जरूरी है। प्रणाम यह तो शक्तिशाली साधन है एक-दुसरे से जुडे रखने का, लेकिन एक बदलाव बहुत बडी क्रांति लेकर आता है। जीवन संघर्ष में प्यार बांटता है। एक स्मितहास्य से मन के सब किल्मिश दूर हो जाते है।

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                                                                                                  बहावा

            जब मैं सातवी-आठवी कक्षा में थी तब बडी बहन की शालेय किताब को पढना बहुत अच्छा लगता था। उसमें दो-चार पाठ ऐसे थे के वह अभी भी याद है। उसमें से एक मेरा बहुत ही पसंदीदा ओैर याद आनेवाला वि. द. घाटेजी का ‘कॅशिया भरारला’ यह पाठ था। उस समय एक बात हमेशा सताती थी की कॅशिया मतलब कौनसा पेड? हमारे आस-पास जो भी पेड-पौधे थे उनका निरीक्षण, पहचान हो गई, सबसे पुछ-ताछ हो गई। लेकिन कॅशिया कही नजर न आया। मुझे मंत्रमुग्ध किया हुआ कॅशिया से मिलने की अब आस लगी थी। उस नजाकत भरे फुलों के निहारने, छुने के वर्णन उस किताब में बार-बार पढती रहती। ऐसेही दिन निकल गए ओैर एक दिन भरी दोपहर में अचानक वह मुझे मिल गया। मन आनंद से उमड आया। वह पीले झगमग रंग मन में बरसने लगे, समाने लगे। एक तलाश खत्म हो गई। एक तृप्ती की लहर पुरे तन-मन में आनंद की अनुभूती देने लगी।

            उस वृक्ष की वैशिष्टपुर्ण बात यह थी की जितनी तेज धुप, उतनी तजेलता से उसका सौन्दर्य निखरता था। जितना वृक्ष पर सुवर्ण सा नजारा, उतनी ही जमिन पर बिखरी हुई पिली रंगीन कालीन। उसके नाम भी बहुत है, अमलताश, बहावा, कॅशिया।

             बहावा यह नाम मुझे अच्छा लगा। अचानक ओैर एक जगह पर वह मिल गया जम्मू घाटी में। श्रीनगर से जम्मू तक की जो बडी घाटी है उस पुरे घने, हरियाले से भरे-पुरे वृक्षराजी में पीले बहावा ने मन मोह लिया। असंख्य वृक्ष अपने पुरे सौन्दर्य से वहाँ लहरा रहे थे। उन हरे-पीले नजारों पर नजर टिक नही रही थी। वह स्वर्गीय सौन्दर्य का सब लोग अपनी आंखों से आकंठपान कर रहे थे। सातवी-आठवी कक्षा में कॅशियाने जो लालसा उत्पन्न की थी वह अब पूरी तरह से तृप्त होने लगी। ऐसा मेरा बहावा सफर चलता रहा, वह भी जम्मू घाटी में, जिसे भारत का नेकलेस कहा जाता है, यह दुग्धशर्करा योग जिंदगी में बहुत ही कम मिलते है।

              पीले पंखुडियों से लहराते वह झुमर एप्रिल, मे महिने में खिलकर अपने ही मस्ती में झुमने लगते है। उसकी नाजुकसी पंखुडियाँ हवा के साथ लहरकर जब जमिन पर गिरने लगती है तब वह पीली चाँदनी मन में भी उतरने लगती है। मे महिने के आखरी में अपना पीले रंग का साज उतारकर फिर से पुराने हरे रंग के पत्तों का पेहराव वह धारण करता है ओैर बारिश की प्रतिक्षा में आसमान की ओर देखने लगता है। ऐसे मालूम होता है कि कोई समारंभ के बाद नक्षीकामवाला महेंगा ड्रेस उतारकर रख दिया हो। गोल हरे पत्तों से घिरा वह पेड, अब हिरवाई में लुप्त हो गया हो। कोई भी वेशभूषा में उसकी गर्भश्रीमंती कम नही दिखती। किसी किसी को कैसे कोई भी पहनावा शोभित ही करता है, वैसे ही बहावा भी पीले, हरे रंग में उतनीही तेजस्विता में दिख जाता है।

            ऐसा मेरा बहावा अब अनंतकाल तक मेरे ही साथ रहनेवाला है।

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                                                                                                        मैत्री   

              जिंदगी में सखा/सहेली होना यह अत्यंत जरूरी बात है। महत्वपूर्ण रिश्ता हमारे जीवन में हमेशा जीवन जीने के लिए सहायक हो जाता है। मनुष्य कितना भी बडा हो जाए, बडे हुद्दे पर काम करनेवाला हो फिर भी हर एक व्यक्ती को अपनी भावना, संवेदना व्यक्त करने के लिए प्यार करनेवाला, नजदिक की कोई सखा/सहेली की जरूरत रहती ही है। माँ-बाप अगर कामकाजी करनेवाले हो तब अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए वह हमेशा साथ हो यह तो जरूरी नही अथवा उनके पहले से प्रॉब्लेम दिख जाने के कारण फिर से उन्हे मुश्किल में डालना मुनासिफ नही लगता। पत्नी भी अगर नौकरी करनेवाली हो तो उसके भी कुछ अपने प्रॉब्लेम रह सकते है, ऐसे में हर एक व्यक्ती को सिर्फ सखा/सहेली का ही सहारा लेना जरूरी हो जाता है। बहुत कुछ मन में समायी हुई भावनाए बाँटने के लिए सहेली ही प्यारी लगती है।

               बचपन में मिल-बाटकर खाई हुई पेपरमिंट की टाँफियाँ, बेर, जामून की याद हर व्यक्ती, जीवन के अंत तक भुल नही पाता। कितना निरामय जीवन। जीवन के अनोखेपन को निहारनेवाली दृष्टी, साथी की आँखों में भी दिख जाती है तो वह मजा कुछ अलग ही आने लगता है। जरा बडे होने के बाद साथ में क्रिकेट खेलनेवाले दोस्त, गुड्डी-गुडियों के खेल, झगडा होने के बाद भी थोडी ही देर में समझौता होकर फिर साथ में हँसनेवाली दोस्ती, पाठशाला में पढाई करते समय चुपके से टिफिन में से एक-दुसरे को बाँटा गया नमकिन या मिठी चीजे उनकी तो बात ही कुछ ओैर थी। एक-दुसरे के साथ अपने रहस्य बाँटनेवाली दोस्ती, कॉलेज के बेधुंद जीवन के उतार-चढाव में साथ देनेवाली दोस्ती, प्रौढावस्था में प्रपंच की विवंचनाओं से दूर ले जाकर कुछ हँसी-मजाक से मानसिक तनाव को दूर रखनेवाली दोस्ती, वृद्धावस्था में केवल याद में भी सुकून देनेवाली दोस्ती ऐसे कितने सुंदर रुप सामने आते रहते है।

          बचपन की दोस्ती यह बहुत ही निरागसता से भरी हुई होती है। निरपेक्ष होती है। कोई भी स्वार्थ की भावना मन में नही आती। गुडियों के खेल में एक टॉफी के लिए भी झगडा होकर, दुसरे ही पल में समेट भी हो जाता है। फुल इकठ्ठा करने के लिए साथ में घुमना, नदी के पानी में गोते लगाना, तितलीयों के पिछे भागना, यह सब तो दोस्तों के साथ ही करनेवाली चीजे है। ऐसे मस्ती करते समय हँसी-मजाक, खेल का नशा जल्दी घर जाने नही देता। माँ आवाजे देती रहती है फिर भी हम घर नही पहुँचे तो आंखिर माँ डाटकर ले जाती थी, तभी हमारा दिन खत्म हो जाता। पाठशाला में जब नृत्य का आयोजन होता था तब चित्र-विचित्र कपडों हम जब अपनी कला दिखाते थे तब हँसी की फुआरों को आज भी हँसकर ही याद करते है। जब अच्छे नंबरों में पास होते थे तब पहला अभिमान हम अपने दोस्तों के चेहरे पर ही पाते थे।

          ऐसे ही समय की धारा बहती रहती है ओैर कुछ दोस्तों के रास्ते अलग हो जाते है, ओैर कुछ दोस्त जिंदगी तुम्हारे साथ इस भावना से जवानी में कदम रखते है। कॉलेज के खिले यौवन में, जीवन की चुनौतीयों का सामना भी करना पडता है, तब दोस्ती ही वहाँ साथ निभाती है। कॉलेज में, थेटर में, घर पहुँचने के बाद भी गपशप चलतीही रहती है। कितनी बाते करो जी भरता ही नही। समय का खयाल मन में आता ही नही। हँसाना, आँसुओं से भर आयी आँखों को पोछना, दिल को बहलाना, किसी एक शब्द, भावना की जादू से ही जैसे आकाश मे इंद्रधनुष्य खिलना, जिंदगी से सजे हुए सपने एक-दुसरे के आँखों में देखना, कभी हाथों में हाथ लेकर केवल निस्तब्धता का अनुभव करना, मैत्री का यह झरना, बहते हुए जवानी के कितने पल यादगार कर देता है। जिंदगी के उतार-चढाव में अपनेपन से साथ देता है। खुले जीवन में उडते वक्त दोस्ती के पंख लगा देता है। जवानी की कोमल भावनाओं को तरलता से निभानेवाली दोस्ती सबके पास होती है। कुछ तनाव या समस्या में बडे निडरता से दोस्त साथ खडे रहते है। जब यौवन खिलने लगता है तब उसे हलके से खिलने में, हवाँ का झोंका, चैतन्यस्पर्श दोस्ती ही दिलाती है। गहरे पानी में डुबते वक्त खुद बलशाली सहारा बन जाते है। ऐसे दोस्ती के अनेक रुप में बँधते हुए वह जीवन की अनमिट कहानी में शामिल हो जाते है। धीरे-धीरे शरीर मन एक धागे से बंधने लगते है। जिंदगी के साथ दोस्ती भी परिपक्व होने लगती है। जिंदगी के धुप-छाँव में हमेशा साथ रहती है। अब संसारचक्र शुरू हो जाता है। यह समय वैसे कुछ स्थिरता प्रदान करता है। अभी तक के दोस्ती को निभाने का यह काल रहता है। फिर संसार के फेरे में से निकलकर कुछ दिन एक-दुसरे के साथ रहकर घर के छत पर लेटते हुए चाँदनीयों को निहारते, बीते दिनों की यादें ताजा करना। ऐसे में जिंदगी बोज नही लगती। सुख-दुःख बाँटने से आनंद की अनुभूती मिलती है। जीवन में पुनम-अमावस को अनुभव करते-करते कब जीवन की नैंया वार्धक्य की ओर झुक जाती है पता ही नही चलता।

           अब भविष्यकाल तो कुछ दिखाई नही देता। वैसे भी व्यक्ती जादातर भूत-भविष्यकाल के विचारों में ही अपनी जिंदगी निकाल देती है, लेकिन वार्धक्य तो भूतकाल की यादों पर जीने का ही समय होता है। कोई दोस्त बिमारी के कारण बिस्तर पर है, तो कोई जिंदगी से विदा लेकर चला गया है। जो कुछ बचे हुए है वह एक-दुसरे का साथ पाकर ईश्वरचिंतन में या अपने जिंदगी के खुशनुमा लम्हो में जीते रहते है। घर में तो सुख मिलता ही है, परिवार के बिना कोई भी व्यक्ती जी ही नही पाएगा, लेकिन दोस्ती का धागा अनमोल होता है। दिन में एक बार दोस्त से न मिले तो वह जिंदगी भी क्या जिंदगी है? कुछ छोटी-छोटी बातों के कारण कोई अपने दोस्त ना बना पाए तो वह तो अभागा है। जिंदगी का आनंद अगर लेना है तो हर एक को दोस्त तो होने ही चाहिये।

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                                                                                                दिनचक्र

             प्रसन्नता से प्रफुल्लित अमृतबेला का समय, लहराती हवाँ, पूरे वातावरण में ठँडे झोकों से गुनगूना रही थी। सुबह की ऊर्जा किसी को भी तरोताजा महसुस करानेवाली ही होती है। स्फूर्तिदायक होती है। बहुत कुछ करने की उम्मिद दिलाती है। फुलों को खिलाकर उनकी महक चारों ओर फैलानेवाला पवन, विश्व चलानेवाला कोई है इस बात की अनुभूती करा देता है। लिखना, पढना, ईश्वर चिंतन करने के लिए यह समय बेहतरीन है। बहुत कुछ प्रेरणादायक शक्ती इस समय हम महसुस कर सकते है। दिन जैसे चढता जाता है वैसे वातावरण की स्वप्निलता, आल्हाददायकता की जगह कर्तव्य लेने लगता है। अपने जिंदगी की जो महत्वाकांक्षाए है उनकी पूर्ती करने का यह समय होता है। यह बेला भी प्रसन्नचित्त ही होती है इसलिए कामकाज भी जल्दी पूरे होने की संभावना रहती है। सब एक-दुसरे के साथ हँसते-खेलते बात करते हुए अपने काम पूरे कर पाते है। दिन अब ओैर उपर उठने लगता है, दोपहर की धुप अब सताने लगती है।

          एक तरह का भारीपन इन हवाओं में समाया रहता है। पेट में भोजन होने के कारण तन-मन पर एक तरह की सुस्ती छा जाती है। काम करने की गती धीमी होने लगती है। कोई भी छोटा झगडा, बडे झगडे में परिवर्तित होने की संभावना बढ जाती है। कही तो शांती से बैठकर झपकी लेने के लिए जी चाहता है। चारों तरफ ग्लानीपूर्ण वातावरण महसुस होने लगता है। काम की गती धीमी पड जाती है। सुबह महत्वाकांक्षाओं से भरे विचार अब यांत्रिकतापुर्वक चलने लगते है। काम करना पड रहा है इसलिए वह चलता रहता है। पँछी भी पेडों के छाँव में आराम से बैठे दिखायी देते है। पेड भी एक स्तब्धता के आवरण में लपेटे हुए मालूम होते है। पांथस्थ कही छाँव में बैठे थोडा सुकून पाते है। जानवर भी कही बैठे हुए नजर आते है। स्फुर्ती से कुछ काम किया जाय ऐसा वह समय ही नही होता।

            फिर दिन ओैर आगे बढता है। हलकासा एक तरंग वातावरण में फैल जाता है। उसी हवा के साथ पेड झुमने लगते है, फुल लहराते है, पंछी आसमान में दिखायी देने लगते है। वही लहर इन्सानों तक फैल जाती है। सायं बेला गूनगुनाने लगती है। घर जाने की व्याकुलता अब सबको लगने लगती है। पंछी भी अपने घोसले में बैठकर चहचहाने लगते है। परिवार यह एक ऐसी चीज है की आदमी दुनिया के कोई भी कोने में हो फिर भी शाम के समय, उसे परिवार की याद बहुत सताने लगती है। एक तरह प्यार पाने का मिश्रण इसमें समाया हुआ रहता है। जैसे बाहर के लोग घर जाने के लिए तडपते है वैसे ही परिवार के लोग उनकी राह देखने में अपना समय व्यतित करते है। मतलब वह वातावरण ही ऐसा हो जाता है की कोई तो अपना साथ हो, बाते करे, मन हलका करे इन में ही खो जाता है। शाम के समय अपने दोस्तों के साथ खेलने या बाते करने में जो मजा आता है वह ओैर कोई वक्त में कम आता है। सारांश, शाम का समय यह अकेले रहने का नही है। तब कोई तो साथ हो, अपनी भावनाओं को जाननेवाला हो, विचारों से एकरूप होनेवाला हो, यादों के बंधनों को खोल देनेवाला हो, ऐसे अनेक विचारों से मनुष्य भारित रहता है। जीवन के शाम में मतलब वृद्धावस्था में भी कोई तो बात करनेवाला हो यह भावना प्रबल रहती है ओैर अगर जीवनसाथी जिंदगी से चला गया हो तो शाम की तनहाई, खालीपन ओैर सताने लगती है। बचपन में, जवानी में अपनी पढाई, दोस्त, नौकरी, यह सब साथ देते है लेकिन बुढापे में कोई साथ नही रहता, तब जीवनसाथी ही सच्चा सहारा रहता है। फिर धीरे-धीरे वह समय भी बीत जाता है।

            रात का प्रहर शुरू होते ही चारों ओर एक निस्तब्धता, शांती फैलने लगती है। दिन की समाप्ती का ऐलान करनेवाला पल, शाम की तनहाई खत्म करते हुए वास्तवता का सच स्वीकार करने का वह समय अब शुरू होता है। दिनभर की घटनाओं का मुआयना करते हुए अपना स्थान तय करनेवाला पल अब शुरू होता है। चढती जानेवाली रात शीतल, मंद, मधुर खयालों के अधीन हो जाती है। रिश्तों के धागे अब अपनी नीन्द की दुनिया में खो गए होते है। नीन्द के सपन सलोने खोए हुए रिश्तों को देखकर अब एक सुकूनभरा अकेलापन महसुस होने लगता है। छत पर खडे रहकर चाँद तारों की दुनिया देखने ओैर वह गहरी शांती महसुस करने वह अकेलापन जरूरी है। कितने भी रिश्तों के बंधन में रहो इन्सान अकेला ही होता है। इतनी बडी सृष्टी का वह केवल एक अंश है इस बात का एहसास करानेवाला वह पल होता है।

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                                                                                               परोपकार

            अपना खुद का जीवन शुरू हो जाता है जब हम पाठशाला जाने लगते है। खुद की एक अलग दुनिया तब से बसने लगती है। नये-नये अनुभव से कभी मन खुशी से नही समाता, तो कभी उम्र के हिसाब से अपने-अपने गम शुरू हो जाते है। मान-अपमान के अनुभवों से सहजता से बाहर आ गए तो ठीक है अन्यथा गम के पहाड टुट पडने जैसी स्थिती उत्पन्न होकर जीवन के प्रति लगाव कम होने लगता है। जीवन के प्रति निरसता मन में उभरने लगती है। जीवनगान का संगीत बेसुरा हो जाता है।

             जीवन के प्रति डर, उत्सुकता केवल बचपन में ही रहता है ऐसा नही तो जिंदगी से जो आशा-आकांक्षाए हम रखते है ओैर उनकी पूर्तता न हो पाती है तब संसार का भय मन में सताने लगता है। उस समय में, डर से सामना करने की शक्ती, प्रेरणा न मिलने पर निराशावादी दृष्टिकोन निर्माण होकर व्यक्ती का आत्मविश्वास डगमगा जाता है। हर पग आगे बढाने में सीने में वेदना उभर आती है। समाज भी ऐसे व्यक्ती का जीना दुश्वार कर देता है।

              हर एक के जीवन में एक व्यक्ती तो होती ही है जो जीवन के प्रति डर या संकटों का सामना कैसे करना है इसका पाठ पढती है। आत्मविश्वास दिलाती है। जीवन के प्रति रसानंद निर्माण करती है। गुरु, रिश्तेदार, मित्र उस रिश्ते का नाम कोई भी हो लेकिन वह जीवन में सहायक हो जाती है। जीवन जीने की उर्मी पैदा करनेवाले उस व्यक्ती के प्रति मन में एक कृतज्ञता भाव तयार हो जाता है। वह व्यक्ती समवयस्क होगी फिर भी अपने आत्मविश्वास के बलबुते पर निराश साथीदार को बल प्रदान करती है। ऐसे करते समय उसे भी आनंद मिलता है। वह है परोपकार भाव। दुसरे के दुःख दूर करने में हम अगर सहायता कर सके तो वह बडे आनंद का भागी बन जाता है। वह भाव अनमोल है। एकबार किसी के दुःख को दूर करने के परोपकार भाव मन में जग जाए तो वह एक नशा बन जाता है। फिर अपना सर्वस्व लुटाने में भी वह आगे-पिछे नही देखता, लेकिन बहुत कम लोग होते है जो समाज के लिए जीते है। हर एक व्यक्ती में यह भाव रहता ही है।

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                                                                                                   भय  

           एक बडी प्रसिद्ध जपानी लोककथा है। एक मनुष्य को एक दैत्य दिन-रात सता रहा था। बहुत दिन मनुष्य ने तकलिफ सहन की फिर जब उसके सहनशक्ती का अंत हुआ तो आंखिर उसने दैत्य से पुछ ही लिया “ तुम मुझे क्युँ सता रहे हो? मैंने तुम्हारा क्या बिगाडा है?”

            इस बात पर दैत्य ने कहा “ तुम्हारे कष्ट का दोष तुम मुझपर क्युं लगा रहे हो? तुम्ही ने मुझे निर्माण किया ओैर मेरा स्वभाव भी वही है जो तुमने मुझे प्रदान किया।”

             उस दैत्य का नाम था भय। ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना मानव है, लेकिन केवल भय के कारण वह दयनीय अवस्था में पहुँच जाता है। अपना गौरव, आत्मविश्वास यह ईश्वरदत्त शक्ती को केवल भय के कारण भुल जाता है। आज मनुष्य निर्भय नही है, क्युं? भय की वजह से उसका जीना दुश्वार हो गया है, लेकिन मनुष्य को भय कब लगता है? जब वह अपने मन पर काबू पाना छोड देता है, स्वेर हो जाता है तब धीरे-धीरे हम भय के जाल में फँसने लगते है। जब तक हम अपने मन पर भय को आक्रमण नही करने देते तब तक भय हमारे पास भी नही आ सकता। उसके लिए विचारों की परिपक्वता मनुष्य के पास होना बहुत जरूरी है। विचारों पर अंकुश होना चाहिए। स्वैर विचार, स्वैर मन हमेशा बुरे परिणामों का ही साथी होता है। जीवन में जब एक दिशा, एक उद्दिष्ट होता है तभी विचारों की बुनियाद पक्की होती है, तब वह जीवन उद्दिष्ट साध्य करने में कोई भी बाधा नही आ सकती ओैर आ भी गई तो उसपर कैसे मात की जाय यह बात भी अपने पक्के विचार, संस्कार ही सिखाते है।

              सकारात्मक विचारधारा यह भय ताले की चाबी है। नकारात्मक चाबी से अगर ताला खोलने गए तो भय हावी होकर रोज थोडा-थोडा मरने का आभास मनुष्य करने लगता है। यही अगर सकारात्मकता का सहारा लिया जाय तो मन भयमुक्त रहता है, आनेवाला संकट भी दूर भाग जाता है। उत्साही मन हमेशा शरीर भी सक्रिय रखता है, ओैर मन का भी सर्वांगीण विकास होता है। इसीलिए भय इस दैत्य को अपने अंदर प्रवेश न देकर सामर्थ्यपुर्णता से आव्हानों को पार करते हुए, अपने उद्दिष्ट हासिल करते हुए जीवन का सर्वांगीण विकास करने में ही मनुष्य की भलाई है।

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                                                                                           विचार

            एक बार हम सब परिवार में गपशप कर रहे थे. ऐसे ही बातचीत पर विचारों के बारे में चर्चा चल रही थी। मौसी ने कहा, धातू की कछुआ प्रतिमा पानी में रख देने से अपने मन में आनेवाले विचार कम हो जाते है। मैं एकदम से चौंक गई। अगर विचार ही खत्म हो जाएँगे तो जीवन में बचा ही क्या? कोई प्रियजन दूर चला जा रहा है ऐसी भावना मन में वेदना का आभास दे गई। भगवान ने मनुष्य को सबसे किंमती उपहार कौनसा दिया है तो वह है ‘विचार’। इस विचार के कारण ही मनुष्य ओैर जानवरों में भेद दिखायी देता है। इस उपहार के कारण ही मनुष्य ने आकाश में उडान भर दी है। आकाश के साथ स्पर्धा करनेवाले गिरिशिखरों को पादाक्रांत करने की क्षमता प्रदान की है। बादल में दिखनेवाली बिजली को सुंदर मकान देकर पूरी दुनिया सजाई है। अग्नी को साथ लेते हुए एक जगत की दुसरे जगत से पहचान कर दी है। हवा को माध्यम बनाकर केवल एक आवाज की दूरी पर सब विश्व आकर बस गया है। यह सब करामत, कर्तुत्व केवल मनुष्य के विचारोंने बनाया है। ऐसे विचारों को हम अपने से दूर कैसे रख सकते है? कवी, लेखक, विचारवंत कई विविध रुप में साकार होनेवाली दुनिया में कितने आयाम होंगे। ऋषि-मुनीयों के विचारों में कितने अगम्य भाव झलकते होंगे। अपने अंतरदृष्टी से देखा हुआ अमर्यादित विश्व का वर्णन वेद, ऋचा में लिखकर रखा है, वह सामान्य बुद्धि के परे है। कितने विविध पैलू दिखायी देते है विचारों के सामान्य जन से असामान्य जगत तक। बालक से लेकर बुजूर्गों तक। अलग-अलग परिस्थिती, अलग-अलग क्षेत्र एक अखंड अविरत चलनेवाली गती, केवल मृत्युपरांत ही रुक सकती है। वैसे देखा जाय तो विश्व कभी रुकता नही है, मृत्यु के बाद भी जीवन है ऐसा ऋषियों का कहना है।

           आध्यात्मिक साधक के विचारों की गती रोकने के अभ्यास सिवाय बाकी मनुष्य विचारों के बिना रह नही पाता। विचारों के सुंदर रुप को देखने के बजाय उन विचारों पर  चिंता की रेखा खिंच देता है। एक विचार आता है ओैर जाता है ऐसे सहजता में ना रहकर एक विचार को ही अपनी चिंता बना देता है। फिर वही चिंता मनुष्य को दिन-रात सताती रहती है। हर सिक्के के कैसे दो पहलू होते है वैसे भी विचारों के भी अच्छे-बुरे दो पहलू रहते ही है, लेकिन व्यक्ती बुरे विचारों पर ही जादा ध्यान केंद्रित करता है। ऐसा व्यक्ती कुविचारी होकर कुकर्म भी कर बैठता है। फिर इन लोगों की तदात बढती ही जाती है। अर्थात सतविचार की भी दुनिया होती ही है। कभी-कभी यही सतविचार कुविचारों पर मात कर देते है, एक प्रकाश से जो विचार बाहर निकलता है वही एक नया आविष्कार का निर्माण करता है। एक उडान से वह व्यक्ती असामान्य बन जाता है। नैराश्य गर्तता में रोशनी की संभावना होती है ओैर वही अनोखा चैतन्य स्पर्श मनुष्य का नया जीवन प्रारंभ कर देता है। इसीलिए कुविचार है तो ठीक है लेकिन वह नदी की धारा जैसे प्रवाहीत होने चाहिये। आए ओैर गए ऐसाही उनका रुप होना चाहिए। विचार कही कुंठित हो गए तो जीवन में अनारोग्यता फैलने की संभावना जादा बढ जाती है। मन में सुंदर, आशादायी, मंगल विचारों का होना यह निरोगी मनुष्य का लक्षण है। अच्छे, सकारात्मक विचार करनेवाला मनुष्य, निरोगी, जीवनदायी, ओैर दुसरों के जीवन में भी बहार लानेवाला होता है। कुविचारों की दुनिया में ऐसे जीवनदायी विचार प्रवाहित हो गए तो मुर्झाइ हुई दुनिया में भी बहार आ जाती है। उन्हे भी जीवन जीने में रस निर्माण होता है लेकिन वह केवल एक हवाँ का झोंका होता है, आता है ओैर चला जाता है इसीलिए किसी के विचारों का अवलंबन करने से अच्छा है अपने ही कुविचारों का सामना करे।

              जीवनदायी प्रवाह को नकारना मतलब जीवन को भी नकारने जैसा है। दोनों विचारों की गती जीवन में उतनी ही महत्वपूर्ण होती है।

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