Jagdamb sathika – samiksha v chhand 3 in Hindi Spiritual Stories by Ram Bharose Mishra books and stories PDF | जगदंब साठिका - समीक्षा व छन्द - 3 (अंतिम भाग)

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जगदंब साठिका - समीक्षा व छन्द - 3 (अंतिम भाग)

जगदंब साठिका - समीक्षा व छन्द 3

"जगदंब साठिका" दरअसल जगदंबा माता के स्तुति गान के क्रम में 60 छंदों का संग्रह है। पण्डित मन्नीलाल उर्फ मणिलाल मिश्र कानपुर वालों के द्वारा लिखित ऐसे साठ  विलक्षण छन्द हैं । संस्कृतनिष्ठ  उत्कृष्ट हिंदी में लिखे इन छंदों में देवी के विभिन्न रूपों को याद किया गया है। उनकी स्तुति की गई है । उनके द्वारा किए जाने वाले कार्य बताए गए हैं और  उनसे निवेदन किया गया है कि वे भक्त   के कार्य करें । अगर इन्हीं छंदों को संस्कृत में लिख दिया जाता तो उत्कृष्ट कोटि के मंत्र कहे जाते। इसलिए बेहिचक इन छंदों को उत्कृष्ट कोटि के हिंदी मंत्र कहा जा सकता है। इस पुस्तक में सवैया शामिल हैं, दोहे शामिल हैं, कवित्त और घनाक्षरी भी शामिल है तो छप्पय जैसा दुर्लभ छन्द भी रचा गया है। कवि को छंद शास्त्र का गहरा ज्ञान है। सारे  छन्द की  मात्रा की पूर्णता, भाव की शुद्धि, छन्द परिपक्वता के साथ-साथ भक्ति और ज्ञान से भरे हुए हैं। कवि को अध्यात्म का खूब ज्ञान है। कवि भक्ति से भी भरा हुआ है ,वह अपनी जगदंबा मां को सारी सृष्टि में सबसे शक्तिशाली देवता मानता है। इसलिए अपनी सारी समस्याएं उनके चरणों में सुनाता भी है। एक मित्र ने कहा कि अगर "दुर्गा सप्तशती " का जो पाठ न कर पाए  वह जगदंबा साठिका का पाठ कर ले , तो लगभग उसे वही पुन्य व सिद्धि मिलेगगी। उसकी सभी प्रार्थनाएं इस पुस्तक में आ जाती हैं। यह पुस्तक खेमराज वेंकटेश्वर प्रेस मुंबई से छापी गई थी और 1994 में इसका मूल्य मात्र ₹4 था। निवेदन करूँ कि दुर्गा सप्तशती का मिनी रूप या हिंदी रूप कहने वालों से आंशिक सहमत होते हुए मैं देवी भक्तों से कहना चाहता हूं कि अगर देवी मां की साधना करना चाहते हैं और कम समय में एक पाठ करना चाहते हैं तो इसका पाठ करें और अगर इसका नियमित पाठ करेंगे तो उन्हें ज्यादा फल प्राप्त होगा। इन छंदों  और इस पुस्तक के प्रमुख अंशों का उदाहरण  आगे लिखा जा रहा है, कृपया अवलोकन करें।

 

 

 

 

 ज्ञानी अज्ञान भयो सुखी क्लेशवान अधिक,नृपति महान भयो रंकके समाने है।

 बीर बलहीन भयो पीन अंग खीन भयो, धर्मध्वजधारी भयो पातकी ठिकाने है ।।

मेरू भयो राई नीतिवानहु अन्याई भयो, द्विज मनिलाल सत्य सर्व जग जाने है।

 मारतंड मंद भयो जुगुनूसो चंद भयो, फेरी दया दृषि जासों मातु चंडिकाने है ॥४१॥

 ध्यान धरै कोई पंचानन चतुराननको, कोई षट्‌आननको पूजत अनूप है।

 ध्यावत है कोई शुद्ध चित्त गरूडगामीको, कोई करि यज्ञन रिझायो सुरभूप है।

पूजत है कोई बुद्धिदायक गणेशजीको, भानुको मनाय देत' कोई दीप धूप है।

 द्विज मनिलाल सत्य मेरे मन मानस में, तेरे पद पंकजको बसत स्वरूप है ॥४२॥

जहाँ जहाँ भीर परी देव द्विजदासनपै,  तहाँ २ जायकै सहाय आतुरी करी।

 जहाँ २ दुष्टन ने धर्ममें अधर्म कियो,

तहाँ २ मारि तिन्हें भूमि मेदसो भरी ॥

जहाँ २ तोहि जाने जबहिं पुकारो अंब, तहाँ २ ताकी सर्व भीति शीघ्रही हरी।

जहाँ २ मन्निलाल प्रेम युक्त ध्यान धन्यो, तहाँ २ दर्श देत मातु तैं तपेश्वरी ॥४३॥

 दैत्यनको भय देत देवन अभय देत, लय करि देत शोक मोह प्रलय कारी है।

शत्रुन बिहाली देत मित्रन बहाली देत, जग अंशुमालीके समान द्युति धारी है ।।

 दानव दुखित होत मानव मुदित होत, चकित चराचरकी होति सृष्टि सारी है ।।

 जनन की जीवन सजीवन शरणगत, द्विज मनिलाल अंब बीरता तिहारी है ॥४४॥

माझ्यो रक्तबीज औ पछारयो चंडमुंडहू को,

दुष्ट महिषासुरकी सैन हनी सारी है। एक ही हुंकार करि कीन्हों धूम्र अक्ष छार, सक्यो ना सम्हार जबै क्रोधसो निहारी है ।।

 साठहू हजार ताके संगके प्रचंड दैत्य,काढि अस्त्र शस्त्र करी युद्धकी तयारी है।

तिनहूँको गर्जि २ तर्जि २ केहरिने, कोप कर सर्द २ गर्द कर डारी है ॥४५॥

 दीजै ज्ञान ध्यान मनिलाल सनमान वारो, जोपै दान शीलनमें चाहती बडाई हौ।

दीजिये सकल शक्ति भक्ति पदपंकजकी, जोपै शक्तिरूप गई वेदनमें गाई हौ ।।

 ह्वै कर दयालु हरौ दीननकी दीनताको, जोपै दीनबंधुनके कृपा है समाई हौ।

बेगिही सचेत करौ जगते जगाय जीव,  जोपै सब श्रेष्ठ जगदंबिका कहाई हौ ॥४६॥

 

सवैया

द्युतिवंत मयंक मलीन भयो, लखिकै मुख चंद अमंद जुन्हाई।

तिमि चंचल लोचन चारू चितौन, चितै सफरी जलमध्य समाई ।

हत तेज भयो तड़िता को तबै, मनिलाल जबै बरदै मुसकाई।

उर ज्ञान विज्ञान प्रकाश भयो, जो दयाकर दासके ध्यानमेंआई ।

निश्वर वृंद सँहारन हेतु, सबै जग तारन हेतु सयानी।

 भक्तन काज सवारन हेतु, लियो अवतार अहै सुख खानी ॥

 त्यौं मनिलाल विशाल चरित्र, पवित्र प्रचारन हेतु प्रमानी ।

मों अवलंबन हेतु कोऊ न, विलंब करो जगदंब भवानी ॥४८॥।

 कै मम बैन पै ध्यान दियो नहिं, कै हमसों कछु चूक परी है।

कै रण मध्य विराज रहीं कहूं, के अरू दीनकी भीर हरी है ।।

 कै इत आवत देर गई, मनिलाल कि निष्ठुरताहि भरी है।

आरत द्वार पुकारि रह्यो जन, क्यों जगदंब बिलंब करी है ॥४९॥

 

कवित्त-

 तूही चहौ ब्रह्याकहँ कीटके समान करै, चाहै तू बिरंचि करि कीटको दिखायदे ॥

तूही चहौ कल्पवृक्ष अंडके समान करै, तूही चहौ कल्पवृक्ष अंड सरसायदे।

तूही जल मध्य भीति वालुका उठाव चहै, तूही चहौ मेरु एक बुंदमें डुबायदे ।

 तूही चहौ एकते अनेक विस्तार करै,चाहै तो अनेकनको एकमें मिलायदे ॥५०॥

 

सवैया

 

हे गिरिशृंग निवासिनी अंब, प्रकाशन ज्ञान सबै उर अंदर।

क्लेश करालन टालन हार, रहै तन दैत्यनपै तुव कंदर ॥

ध्यावत हैं मनिलाल हमेश, रमेश महेश प्रजेश पुरंदर।

आज समाजमें लाज रहै, करू पूरण काज सबै गुणमंदर ॥५१॥

 

के कोउ आरत भक्त भयो, सुनिकै विनिती तेहि ओर सिधाई।

 कैधौं निशाचर नाशनको सुर, वृंदनके हित कीन्ही लडाई ॥ ।

कै मदमत्त भई मधुछाक, दियो मनिलाल को आजु भुलाई।

कौनसे काजमें जाय लगीं अब, जो जगदंब बिलंब लगाई ॥५२॥

 

याद भुलाय दई सगरी, कस दासनके हिय मोद भरोना।

 कयों रजनीचर घेरि अखंड, प्रचंड उदंड घमंड हरो ना ॥

आनि पठ्यो शरणागतमें, मनिलालपै क्यौ निज हस्त धरोना।

है अवलंब तुम्हारो सदा, अबतो जगदंब विलंब करो ना ॥५३॥

 संतत होहु सहायँ सबै, थल सर्व विपत्तिन को दल गोड़ो ।

दासन आशा निरासनसों, मनिलाल बढाय सन्देह न तोड़ों ।॥

दर्श कराय अनूप स्वरूपके, प्रीति प्रतीति प्रमोदित जोड़ो।

पालनकै जन लेहु जशै, नहिं तौ जगदंब कहाइवो   छोड़ो॥५४॥

 

कवित्त -

 मैंतो हों तिहारो नाहिं दूसरो सहारो मोहि, जानि जन दीन निज निकट बसाइये।

 करि प्रतिपाल दास जानिकै अनंद भरी, द्विज मनिलालजुको सुयश बढाइये ।।

 दीजै अपराधको क्षमा कै सँहारि दुष्ट, प्रबल प्रचंड ज्योति जागती दिखाइये ।

असरण शरण ये चरण तिहारे छोड़ि , कौनकी शरण जावें मोंहि सो बताइये ॥५५॥

बैठि कमलासन प्रकाश अंगन्यास करै, करै करन्यास योग युक्तिसों सम्हारिके ।

बेधि षटों चक्र ब्रह्य रंध्रमें निवास करै, करै जाप अजपा बिधानसों विचारिके।

सुनै नाद ध्यानको लगाय सर्व भातिनसों, द्विज मनिलाल रहै दूर काल हारिके।

एती सब साधना करै न परै पूरो एक, जो बनो चाहै सिद्ध अंबको विसारिके ॥५६।

 

सवैया

 

तम चारि सँहारन हेतु सदा, निज रूप प्रचंड धरोई करौ।

 

करि खङ्ग प्रहार अखंडनको, बरिबंड धमंड हरोई करौ।

 

मन मानसमें मनिलालनके, तन अंबुजमें बिचरोई करौ ।

 जन वृंद अनंद करोई करौ, रिधि सिद्धिसों भौन भरोई करौ ॥५७॥

 

कवित्त-

शिरमें सुहावै सर्वमंगलाप्रमोद युक्त, भैरवी लाभ सिद्धि दाता अबिलम्ब हैं।

भृकुटि घ्राण मुख मंजुलमें, राजै नव  दुर्गा मिर आनँद कदम्ब हैं ।।

कंठ कमनीय कटि हस्त युग पावनमें, उमा रमा जया शक्ति देन अवलम्ब हैं।

पालनसों लालनसों रक्षा करि दासनकी, योंही सब अंगमें बिराजीं जगदम्ब हैं ॥५८॥

 

दुष्टनके मारिवेमें करत विलंब नाहिं, अजित अखंड वारे बंड बलशाली हैं।

लोचन विशाल लाल मुंडमाल कंठ लसै, शोभित श्रीखंड भाल चंद उजियाली है ।

श्यामल शरीर नीलकञ्ज धनश्याम ऐसो, धारे भुज अष्ट कष्ट नाशिनी कृपाली है।

जो जो फल मांगे मनिलाल दास देत तौन, ऐसी दानवान कामधेनु मातु काली है ॥५९॥

 

परम पवित्र शुभ शांति स्वच्छ भक्तनकी, शुद्धि बुद्धि अम्ब तेरे पगन पगी रहै।

विशद मुनीश ज्ञानवान ध्यानवाननकी, द्वारपै तिहारे भूरि भीरहू लगी रहै।

द्विज मनिलाल भक्त शरणागत जेते हैं, पावैं सुख नित्य चित्त ब्रति उमँगी रहै।

सर्व शक्तिवान ये प्रकाशवान मातु तेरी, युगन युगन ज्योति जगमें जगी रहै ॥६०॥

 

इति श्री पं० मन्नीलालमिश्र कानपुर-चौकनिवासीकृत जगदम्बसाठिका संपूर्ण ॥ शुभम्।।  स०१९६४ मार्गशीर्ष