Jagdamb sathika – samiksha v chhand - 2 in Hindi Spiritual Stories by Ram Bharose Mishra books and stories PDF | जगदंब साठिका - समीक्षा व छन्द - 2

Featured Books
Categories
Share

जगदंब साठिका - समीक्षा व छन्द - 2

जगदंब साठिका - समीक्षा व छन्द 2

"जगदंब साठिका" दरअसल जगदंबा माता के स्तुति गान के क्रम में 60 छंदों का संग्रह है। पण्डित मन्नीलाल उर्फ मणिलाल मिश्र कानपुर वालों के द्वारा लिखित ऐसे साठ  विलक्षण छन्द हैं । संस्कृतनिष्ठ  उत्कृष्ट हिंदी में लिखे इन छंदों में देवी के विभिन्न रूपों को याद किया गया है। उनकी स्तुति की गई है । उनके द्वारा किए जाने वाले कार्य बताए गए हैं और  उनसे निवेदन किया गया है कि वे भक्त   के कार्य करें । अगर इन्हीं छंदों को संस्कृत में लिख दिया जाता तो उत्कृष्ट कोटि के मंत्र कहे जाते। इसलिए बेहिचक इन छंदों को उत्कृष्ट कोटि के हिंदी मंत्र कहा जा सकता है। इस पुस्तक में सवैया शामिल हैं, दोहे शामिल हैं, कवित्त और घनाक्षरी भी शामिल है तो छप्पय जैसा दुर्लभ छन्द भी रचा गया है। कवि को छंद शास्त्र का गहरा ज्ञान है। सारे  छन्द की  मात्रा की पूर्णता, भाव की शुद्धि, छन्द परिपक्वता के साथ-साथ भक्ति और ज्ञान से भरे हुए हैं। कवि को अध्यात्म का खूब ज्ञान है। कवि भक्ति से भी भरा हुआ है ,वह अपनी जगदंबा मां को सारी सृष्टि में सबसे शक्तिशाली देवता मानता है। इसलिए अपनी सारी समस्याएं उनके चरणों में सुनाता भी है। एक मित्र ने कहा कि अगर "दुर्गा सप्तशती " का जो पाठ न कर पाए  वह जगदंबा साठिका का पाठ कर ले , तो लगभग उसे वही पुन्य व सिद्धि मिलेगगी। उसकी सभी प्रार्थनाएं इस पुस्तक में आ जाती हैं। यह पुस्तक खेमराज वेंकटेश्वर प्रेस मुंबई से छापी गई थी और 1994 में इसका मूल्य मात्र ₹4 था। निवेदन करूँ कि दुर्गा सप्तशती का मिनी रूप या हिंदी रूप कहने वालों से आंशिक सहमत होते हुए मैं देवी भक्तों से कहना चाहता हूं कि अगर देवी मां की साधना करना चाहते हैं और कम समय में एक पाठ करना चाहते हैं तो इसका पाठ करें और अगर इसका नियमित पाठ करेंगे तो उन्हें ज्यादा फल प्राप्त होगा। इन छंदों  और इस पुस्तक के प्रमुख अंशों का उदाहरण  आगे लिखा जा रहा है, कृपया अवलोकन करें।

 

 

 

 

 स्वर्ग अपवर्ग तूही सर्ग उपसर्ग तूही, अक्षर विसर्ग तूही ललित ललाम है ।।

 योगिनकी युक्ति तूही उक्ति औ अनुक्ति तूही, भोगिनकी भुक्ति तूही तुही मुक्तिधाम है ।।

सर्व मंगलीक तूही लीक औ अलीक तूही, दूरि औ नजीक तूही, तूही सर्वठाम है।

 आदि तूही अंत तू अनादि औ अनंत तूही, द्विज मनिलाल तोहि करत प्रणाम है ॥२१॥

विष्णु उर रमा तूही शंभु उर उमा तूही,साधु उर क्षमा तूही अचल निवासिनी ।।

 सर्व जग सार तूही सर्वको अधार तूही, सर्व वारापार तूही सर्वकी विलासिनी ।।

सतमें सतोगुण तू रजमें रजोगुण तू, तममें तमोगुण तू तमकी विनासिनी ॥

तूही संचारिणी है तूही थिर धारिणी है, तूही लयकारिणी है जगत् विभाषिनी ॥२२॥

 तू तूही शुभसप्तव्याहृतीन मध्य राजि रहो, तूही विनयोगमें सदैव सब ठाममें।

तूही अंब कुंभकमें रेचकमें तूही अहै, तूही धनि पूरक प्रसिद्ध प्राणायाममें ।।

 तूही मार्जनमें अघमर्षणमें तूही लसै, तूही मनिलाल उपस्थान हूं ललाममें ।।

तूही अंगन्यास करन्यासमें प्रकाशमान, तूही चतुर्विंश जाय वर्ण मोद धाममें ॥२३॥

 

कवित्त - तूही ने भक्तनके क्लेश नासिवेके हेतु, तूजोही परमपवित्र दिव्य रूपको सवाँरो है।

 तूही ने मारिरक्तबीज चंडमुंड दैत्य, अतुल बलिष्ठ भार भूमिको उतारो है॥

 तूहीने देवनकी विनै बहुभांति सुनी, कीन्हों मनि लालको तुहीने निसतारोहै।

तूही सर्वव्यापी सृष्टि मध्य आप आयी है, मोहितो भरोसो सिंहवाहिनी तिहारो है ॥२४॥

 शिक्षामाहि तूही सर्व प्राणिनकी शिक्षक है, कल्प मध्य तूही यज्ञ कर्मन जनावती ।।

 तूही व्याकरण मध्य शब्दसूत्र बोधक है, काव्यकी कलान रचि छन्द अधिकावती ॥

ज्योतिषके माहिं ज्योतिवान फलदायक तू, द्विज मनिलाल ज्योति जागती दिखावती ।।

ऐसेही नियुक्त मध्य गूढ वाक्य अर्थ तुही, बेदन के अंग ये षडङ्ग तू कहावती ॥२५॥

 

कवित्त - तूही षट चक्रमें अधार स्वधिष्ठान मध्य,तूही मणिपूर औ अनाहत निवासिनी ॥

 तूही है विशुद्ध बीच राजि रही प्रज्ञा अरू, तूही सब कंजके दलान मध्य भाषिनी ।।

 तूही ब्रह्मग्रंथी विष्णुग्रंथी रूद्रग्रंथी मांहि, तूही मनिलाल तीन बंधमें प्रकाशिनी ।।

तूही है अजपा इडा पिंगला सुषुम्रमें, तूही ब्रह्मरंध्र मध्य अंब शोक नाशिनी ॥२६॥

 

कृपावर्णन

 

तेरिही कृपासों पंच भूतन बिरंचि रचि, सृष्टि चराचरकी सकल उपजाई है ।।

तेरिही कृपासों विष्णु लालन औ पालनसों, पोषण भरण कर रक्षित सदाई है ।

तेरिही कृपासों शिव सपदि सँहारे सृष्टि, आपने स्वरुप माहिं लेत सो मिलाई है ।।

तेरिही कृपासों मनिलाल भुक्ति मुक्ति लहैं, तेरिही कृपा ये लोक लोकनमें छाई है ॥२७॥

अन्यच्च-

तेरिही कृपासों धर्मवान धर्म कर्म करै,तेरेही कृपासों भक्ति भक्तनमें पाईहै ।।

तेरिही कृपासों राज काज महाराज करै, तेरिही कृपासों बीर बीरता दिखाई है ।।

तेरिही कृपासों भाग पावै सुर यज्ञनमें, तेरिही कृपासों धनी पावत बड़ाई है ।।

तेरिही कृपासों मनिलाल नित्य मग्न रहै

तेरिही कृपा ये सर्व ऊपर सुहाई है ॥२८॥

 दृगन कुरंग वारी ढवनि मतंग वारी, अंगन अनंग वारी ज्योति जग छाई है।

 हास्य चंद्रहास वारी बोलनि मिठास बारी, आनन प्रकाश वारी शरद जुन्हाई है ।।

दन्त मुक्तमाल वारी अधर प्रबाल वारी, द्विज मनिलाल वारी भक्तिसों रिझाई है ।।

दाया पर दास वारी माया मोह पास वारी, आसवारि डारी पाय तेरी सेवकाई है ॥२९॥

दूर करू दारूसा दरिद्र दुख द्वंद्वनको, दीन दास वृंदन के होहुँ मातु दाहिनी ॥

परम प्रशंसित प्रतिष्ठित प्रताप पुंज, पूरण पसार प्रीति पृथिवी पैं चाहिनी ॥

द्विज मनिलाल एक राखत तिहारी आस, शर्णागत आरत हरण प्रण गाहिनी ।

हेरि २ हिंसक हठी हठ बादिनके, काटि २ फेंक रूंड मुंड सिंहवाहिनी

 ॥३०॥

 

 धारे चंद्रहास तेज राशि मारतंडहूसे, चंचलासे सौगुणी चमंकै दैत्य खंडिनी ॥

 अस्त्र शस्त्र औरहू अनेक भांति सोहैं कर, संगमें जमात जोगिनीनकी उदंडिनी।

 क्रोधसों कराल लाल लोचन प्रबाल सम, आई मनिलाल युद्ध भूमि युद्ध मंडिनी ॥

 

काटि २ क्रूर वृंद पाटति पुहूमि भूरि, भागी घाट बाट सेन शत्रुकी घमंडिनी ॥३१॥

 

पालिनी प्रमोदिनी प्रताप पुंज पागिनी तू, परम प्रवीण बुद्धि दासकी प्रकाशिनी ।

छायो यश अमित अखंड लोक लोकनमें,

राखत अशोक सदा शोककी विनाशिनी ।।

तेरी ज्योतिवंत ज्योति जाहिर जगत बीच, जानत न भेद वेद तेरो ब्रह्य भाषिनी।

कैसे कहो रीझती हौ कैसे कहो खीझती हौ, कैसे कै पसीजतीहौ मातु बिन्ध्य वासिनी ॥३२॥

 सतोगुणी मानसमें श्रद्धा है समानी आप, लज्जा है कुलीननके तिष्ठी कुल तारिणी।

 बुद्धि है प्रकाशि रही बुद्धी निज भक्तनकी, द्विज मनिलाल सद्य अज्ञता निवारिणी ।।

पापिन सुरापिनके भवन भयानकमें, दुखद सदैवंही दरिद्रता प्रसारिणी।

 सर्व पुण्यवाननके सदन सुहावनमें, आनँद निधि संपदा स्वरूप है विहारिणी ॥३३॥

 

महा प्रलै कालमें बनाया महाकाल रूप, आपही अकेली महाकाली रहे जाती हौ।

 द्विज मनिलाल यह मेटिकै सकल सृष्टि, आपने स्वरूप माहिं आपही मिलाती हौ !!

फेरि निज इच्छनसों शिक्षन करत जीव, आपही अनेक भांति सृष्टि ह्वै लखातीहौ ।

 शक्तिनमें शक्तरूप भक्तिनमें भक्तरूप मुक्तन में मुक्तरूप आप पद पाती हौ ॥३४॥

भेद औ अभेद करि शास्त्र औ पुराण देवे,नेति २ गावै भेद पावै ना सयानीको ।

चारमुख पांचमुख षड्मुख मौन भये, शक्ति ना रही त्यौं सहसानन की बानीको ।।

 द्विज मनिलाल एक मुखसों बखानै कहाँ, अद्भुत अनूप रूप सुयश कहानीको ।

 सुरलोक नरलोक नागलोक देखियत, प्रगट प्रताप जगदंबिका भवानी को ॥३५॥

 

वचन न पावैं तीन लोकनमें जावै कहूं, मातु मम शत्रुनको हाट बाट डांट तू ॥

 दौरिकै झटाक सों झपेटि दुष्ट झुंडनको, छांटि रूंड मुंडनसों भूमि भूरि पाट तू।।

 आमिष अघाय डाकिनीनको खवाय शुभ्र,शाकिनी समेत सद्य शोणितको चाट तू ॥

लाल लाल नूतन बनायकै कपाल माल, योगिनी जमातको बनाव ठाठ बाट तू ॥३६॥

परम पवित्र शीश छत्र शुभ्र कंचनको, कुंतल ललाम हंर्ण मान कालिमाके हैं।।

 सुधा किर्ण युक्त अर्धचंद्र भाल राजि रह्यो, कुंडल श्रुतीन मारतंड की प्रभाके हैं ।॥

अष्टादश बाहु मध्य अस्त्र शस्त्र शोभित हैं, करन प्रहार दैत्य वंदन सदाके हैं।

 जाके ये सकल चारित्र मनिलाल भने, वाके हम दास वासु जक्त अंबिकाके हैं ॥३७॥

जोपै हौ जयंती तो विजय देव शत्रुनपै, जोपै अहौ दुर्गा अति दुर्गती नशाइये।।

 जोपै अहौ मंगला तो मंगल सदैव करो, तपेश्वरी जो हौ तेज पुंजको बढ़ाइये ।।

 जोपै महालक्ष्मी हौ लक्ष्मीनिधान करौ, मान सनमान मनिलाल मन लाइये।

जोपै हौ कृपाली बेगि हेरिये कृपाकी कोर, पालौ जंग जोपै जगदंबिका कहाइये ॥३८॥

 

वेदनमें जैसे शिरमौर साम वेद शुभ, जैसे सरितान मध्य गंग महारानी है।

 जैसेही पुराणनके मध्य महाभारत है, तारनमें जैसे द्विजराज शोभ खानी है ।।

जापनमें जैसे अहै श्रेष्ठ जाप अजपाको, जैसे मन इन्द्रिनके बीच शुद्ध ज्ञानी है।

तैसे मनिलाल सर्व देवतान मध्य श्रेष्ठ, एकही वरिष्ठ जगदंबिका भवानी है ॥३९॥

योगी योग युक्ति साथ जैसे जीव ब्रह्म होत, जैसे तरिजात पापी गंगजल पायेते।

सज्जन के संगमें असंत जिमि संत होत, जैसे नीर क्षीर होत संगति सुहायेते।

अगरके साथ जैसे धूम करूवाई तजै, जैसे लोह होत हेम पारस छुवायेते।

भानुके उद्योज जिमि अमल अकाश होत,ज्ञानको प्रकाश होत तैसे तोहि ध्यायेते ॥४०।।