भारत की रचना / धारावाहिक/सोलहवां भाग
फिर शाम गहरा गई. रात होने लगी. आकाश में इठलाकर जब चन्द्रमा ने धरती के आंचल को देखा, तो अपना जैसे मुंह सुकोड़कर तुरंत ही एक बदली के पीछे छुप गया. शायद उसको भी रचना के साथ हुई इस प्रकार की ज्यादती का रवैया पसंद नहीं आ सका था. सारा हॉस्टल और उसका माहौल रचना की यूँ हुई गिरफ्तारी के कारण सुन्न पड़ चुका था. मानो कायरों के समान उसकी भी बोलती बंद हो गई थी. फिर थोड़ी ही देर में की बादलों के टुकड़े एकत्रित होकर, आकाश पर से नीचे दुःख के लबादे में ढके हुए, हॉस्टल की ओर देखकर अपनी बेबसी ज़ाहिर कर रहे थे. कुछेक तारिकाओं ने भी जैसे अपना मुंह दिखाने की रस्म-भर पूरी कर दी थी और वे भी बादलों की तहों में जाकर लुप्त हो चुकी थीं, मानो वे भी रचना की गिरफ्तारी के साथ-साथ मलिन और हताश हो चुकी थीं. वृक्षों के साए बेजान बुतों के समान खड़े-खड़े जैसे सिर झुकाकर अपपनी लाचारी का प्रदर्शन कर रहे थे. सारे हॉस्टल में मुक्ता थी- एक जी-तोड़ खामोशी- जैसे हॉस्टल की चारदीवारी पर मनहूसियत के साये आकर बैठ गये थे. कहीं न कोई चीत्कार था और न ही कोई भनक- लड़कियों की बातें, चुहलबाजियाँ, उनका ज़ोरों से हंसना, स्वतन्त्रता, सब ही कुछ, गम की वादियों में जाकर कहीं कैद हो गया था. सब ही को रचना से प्रेम, स्नेह और लगाव था; अथाह प्यार उनके दिलों में समाया हुआ था. रचना का स्वभाव ही ऐसा था- उसने आज तक किसी का दिल भी नहीं दुखाया था. जैसा भी किसी ने कहा, उसने मान लिया था. किसी ने कोई कड़वी बात भी बोली, तो उसने चुपचाप सुन ली थी. हरेक के दिल में वह विराजमान रहती थी. उसके व्यवहार से सब ही प्रसन्न रहते थे. किसी को, कभी भी, रचना से कैसी भी शिकायत नहीं रही थी. इतने सरे दिलों में राज करनेवाली उनकी प्यारी सहेली की यूँ गिरफ्तारी और उसके सारे मान-सम्मान पर पुती हुई कालिख को देख कर किसे दुःख नहीं होता?
हॉस्टल की वार्डन लिल्लिम्मा जॉर्ज भी, अपने कमरे में बंद कुर्सी पर बैठी हुई, रचना का पिछ्ला सारा 'रिकार्ड' देख रही थीं- रचना से सम्बन्धित एक-एक कागज़ को निकालकर वह संभालकर रखती जा रही थीं- यही सोचकर कि, रचना के इतने अच्छे चरित्र और पिछले वर्षों का 'रिकार्ड' देखकर, वे शायद रचना को कानूनी सज़ा से बचा सकें? हो सकता है कि, उनकी इस मदद और प्रयास से एक अनाथ लड़की के जीवन में लगी हुई ये चिंगारी बुझ जाए? दुःख उन्हें भी था. फिर, होता भी क्यों नहीं? रचना को वे भी अपनी बेटी का दर्जा ही देती थीं. शायद इसी कारण वे उसको बहू बनाकर अपने घर लाने का सपना भी देख रही थीं. ये और बात थी कि, इस बात में उनका अपना कोई स्वार्थ छिपा हुआ था. रचना के द्वारा, शायद उनकी बहन के बिगड़े हुए पुत्र रॉबर्ट का जीवन भी सुधर जाता? इसके साथ वे सारे हॉस्टल की वार्डन भी थीं- एक प्रकार से सारी लड़कियों की मां समान भी. उन्हें तो दुःख होना ही था- बुरा लगना ही था- दर्द तो झेलना ही था. रचना की गिरफ्तारी के साथ, वक्त ने भी उनके मुंह पर ज़ोरदार झापड़ मार दिया था.
आकाश पर और भी अधिक बादल एकत्रित हो गये, तो चन्द्रमा हार मानकर लुप्त हो गया. सारे आकाश मंडल पर काले-काले बादल न जाने कहाँ से आकर ठहर गये थे. ऐसा लगता था कि, वे भी जैसे बरसने के लिए, विधाता के किसी आदेश की प्रतीक्षा कर रहे हों? लगता था कि, जैसे पहले ही से वे वर्षा की तैयारी करके आये थे? कहीं, दूर-दूर, बादलों के पीछे से रह-रहकर बिजली चमकने लगी थी. उसकी एक ही चमक में, मुक्तेश्वर का सारा इलाका, यूँ काँप जाता था, मानो किसी नई-नवेली दुल्हन के आंचल को कोई गैर व्यक्ति उलटकर भाग गया हो? सारा वातावरण हर क्षण भयंकर और डरावना-सा होता जाता था. कभी-कभार हॉस्टल के बूढ़े चौकीदार खांसिया आवाज़, हॉस्टल में छाई खामोशी को कुछेक पलों के लिए भंग कर देती थी. फिर, कुछेक पलों के पश्चात जैसे ही समीर के शीतल झोंकों ने अपना रुख बदला, तो वातावरण ठंडी लाश के समान सर्द पड़ गया. आकाश में क्षण भर में ही कहीं दूर तक बिजली चमक गई. सारे बादल भी गला फाड़कर चीख पड़े, तो उनकी एक ही गरज में, सारे इलाके का मानो दम घुटकर ही रह गया. तब थोड़ी ही देर में सारे बादल बरस पड़े. अंधेरी काली रात में आकाश की पलकों से आंसू, मानो वर्षा के रूप में ढुलकने लगे. ढुलकने लगे तो हवालात की एक अंधेरी कोठरी के कोने में, सिकुड़ी-सिमटी और सहमी-सी बैठी हुई रचना का दर्द उसके आंसुओं के रूप में बहकर बाहर आ गया. वह सोच रही थी कि, कहाँ वह कॉलेज से हॉस्टल में आराम करने को आई थी और कहाँ वह यहाँ पर कैद में पड़ी हुई अपने फूटे नसीब पर आंसू बहा रही है? रचना बार-बार सोचती और हर बार की सोच पर उसकी पलकों से आंसू किसी जेल से छूटे हुए कैदियों के समान निकल पड़ते थे. बार-बार, रह-रहकर, वह फूट-फूटकर रो रही थी. तड़प-तड़पकर, बेबसी और लाचारी की काया के समान वह मानो हवालात की दीवारों से पटक-पटककर अपना सिर तोड़ लेना चाहती थी.
उस रात रचना बहुत रोई.बे-हद, जी-भरकर, फूट-फूटकर, अपनी बेबसी पर आंसू बरबाद करती रही. सिसकती रही. आंसू थे कि, थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे. पलभर में क्या-से-क्या हो गया था? क्या सोचा था उसने और क्या हो गया था? ज़िन्दगी का वह कठोर तमाचा उसके दोनों गालों पर आ पड़ा था, कि जिसके एक ही प्रहार से उसका सारा कुछ लुट गया था. तबाह होकर रह गई थी वह जैसे? लुट चुका था उसका प्यार, हसरतें, इच्छाएं, अरमान और उसके सारे भावी भविष्य का वह घोंसला कि जिसको बनाने के लिए उसने अभी तिनके बीनने ही आरम्भ किये थे. उसकी सिधाइयत का वह सिला उसे मिला था कि, जिसकी एक ही मिसाल ने उसकी सारी हसरतों की अंत्येष्टि कर दी थी. अब दिल में उसके हां-हाकार मचा हुआ था. आँखों में आंसू, होठों पर सिसकियाँ, रो-रोकर उसने अपना बुरा हाल कर डाला था. हवालात की काल-कोठरी में पड़ी हुई रचना, बार-बार अपने बिगड़े हुए मुकद्दर का वह रूप देखकर बौखला गई थी कि, जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी. उसे तो कभी अपने आंचल का बोझ समझकर, श्रीमती रॉय के बगीचे में फेंक दिया गया था. यदि ऐसा ही हश्र उसका होना था, तो वह उसी दिन संसार से उठ जाती, जिस दिन श्रीमती रॉय ने अपना हाथ उसके सिर से उठा लिया था. रचना, ऐसा सोचती थी और सोच-सोचकर रोती थी. ऐसा था, उसका दुःख, दुखों का भार और दिल पर लगा हुआ आघात कि, दिल की सारी वेदना, धड़क-धड़क कर गरज उठना चाहती थी. आकाश में चीख मारते हुए बादलों गर्जना के समान ही जैसे रचना का दिल भी रो लेना चाहता था- रचना के दिल के समान ही, सारी प्रकृति और वातावरण का भी कलेजा जैसे दहल गया था.
रात्रि आधी से अधिक बीत चुकी थी.आकाश में काले-काले बादल, पागलखाने से छूटे हुए पागलों के समान, जैसे रह-रहकर चिल्ला रहे थे. सारा माहौल ही खराब हो चुका था. वर्षा हो रही थी- अपने पूरे जोश के साथ. धुंआधार बारिश के एक ही झोंके में, उसकी बूँदें, काली-अंधेरी सड़कों पर बिखरती चली जाती थीं. बादलों की गड़-गड़ाहट के साथ जब भी बिजली चमकती थी, तो उसकी एक ही चमक में जैसे शहर की विद्दुत बत्तियों की भी पीड़ा बढ़ जाती थी. वर्षा इसकदर तीव्र थी कि, उसके प्रहारों से बिजली भी बार-बार किसी चोट खाई हुई नागिन के समान फड़-फड़ाकर ही रह जाती थी.
रचना, अभी तक अपनी किस्मत का रोना लिए हुए, जैसे अपने अंतिम संस्कार की भीख अपने ईश्वर से मांग रही थी. तभी, सहसा ही बादल बड़े ज़ोरों से गरज पड़े- खिसियाकर बिजली ने अपनी जो कौंध मारी, तो उसके प्रकाश में, एक पल के लिए, मुक्तेश्वर का सारा इलाका ही काँप गया- इस प्रकार कि, अपने-अपने घरों में सो रहे अधिकतर मनुष्यों की नींद भी खुल गई. वर्षा अपने पूरे प्रभाव पर थी. साथ ही हवाओं का ज़ोर भी कम नहीं था. प्रकृति के इस बिगड़े हुए मिजाज़ का सहारा लेकर, रचना का दिल और भी अधिक भयभीत हो गया था. उसका दिल, मानो फट जाना चाहता था, लेकिन वह अब कर भी क्या सकती थी? सिवाय इसके कि, मात्र अपनी सारी विडम्बनाओं की एक रोती-बिलखती तस्वीर बनकर, अपने ईश्वर से, इस जुल्म-भरी कोठरी से मुक्त होने की भीख मांगती रहे- याचनाएं करती रहे. फिर, नारी तो यूँ भी विवशता की एक बेबस तस्वीर होती है. ऐसी तस्वीर कि, जिसकी सराहना तो सभी करते हैं, परन्तु उसके बिगड़ने पर, कोई उसकी तरफ देखना भी पसंद नहीं करता है.
-क्रमश: