Towards the Light – Reminiscence in Hindi Moral Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | उजाले की ओर –संस्मरण

Featured Books
Categories
Share

उजाले की ओर –संस्मरण

बसंत हर वर्ष आता है, जाता है | हम खड़े रह जाते हैं वहीं और वर्ष टुकड़ों-टुकड़ों में बीत जाता है | कुछ पुराना खो जाता है, नया जुड़ जाता है| यही है जीवन का सार जिसमें हम कुछ पुराने को छोड़, नए के साथ आगे बढ़ जाते हैं लेकिन पुराने बिछौनों को बिलकुल ही भूल पाना न तो संभव है और न ही शायद उचित ! कुछ स्मृतियाँ मन की भीतरी दीवार पर ऐसी चिपकी रहती हैं और अचानक ही किन्हीं कोमल क्षणों में ऐसे झाँकने लगती हैं, जैसे व्यंग्य कर रही हों, हम तो भीतर ही हैं तेरे ! परत दर परत आवरण में हैं तो क्या, कभी भी झाँक लेते हैं और तुझे झंझोड़ देते हैं | सच है मित्रों, मुझसे कभी किसी विशेष दिवस पर किसी भी वर्तमान पल पर कुछ लिखना संभव ही नहीं हो पाता | न जाने क्यों ? देखती हूँ सब वर्तमान पल के साक्षी बनते हैं, कितनी प्यारी संवेदनाएं उकेर पाते हैं, मन के उद्गार साझा कर पाते हैं | कई बार मन में ऊहापोह उठती भी है कि भई, वर्तमान को शिद्दत से जीने वाली मैं उस वर्तमान को क्यों कलमबद्ध नहीं कर पाती ?मस्तिष्क के कपाट बंद ही हो जाते हैं जैसे और फिर किन्हीं दूसरे क्षणों में उस पुराने कपाट की झिर्री से कोई पल अचानक झाँक जाता है,स्मृति पटल पर आ बिराजता है | 

कुछ संस्मरण लिखने के प्रयास में माँ भी याद आईं जिन्होंने ग्यारह बच्चों को जन्म देकर मुझ इकलौती को अपने आँचल में समेट लिया था| मैं खुद को ‘बची-खुची’कहती हूँ और यह नामकरण मैंने खुद ही किया है | शायद यही कारण है कि मैं कहीं सुदूर भटकने लगती हूँ और वहाँ से स्मृति के वृक्ष से कोई फूल,पत्ता अथवा कोंपल या कभी शायद डाली भी तोड़ लाती हूँ जिसमें से समय-समय पर कुछ न कुछ झरता रहता है लेकिन सप्रयास कुछ विशेष नहीं कर पाती शायद इसीलिए मैं वर्तमान पलों में से निकल पीछे के गलियारों का हिस्सा बनी रहती

ओजले की ओर----संस्मरण

===================

मित्रों!

स्नेहिल नमस्कार

आशा है सब अपने अपने काम में व्यस्त हैं और आनंद कर रहे हैं । ये दिन भी कितनी जल्दी बीतते हैं और दिन के बीतते ही सप्ताह,महीने और वर्ष --जैसे भागते चले जाते हैं ।

बसंत की हिलोरों से अभी मन पूरी तरह वासंती भी नहीं हुआ था कि गर्मी के थपेड़े पड़ने लगे । जीवन के बारे में कुछ समझ पाना मेरे बसकी बात नहीं है जैसे भगवान,ईश्वर,अल्ला को पकड़ पाना !हाँ,महसूस होती है हर पल ही कोई शक्ति जिसके सहारे हम साँस लेते हैं | 

हाल की हुई दुर्घटना से मन बेहद व्यथित है,कंपित भी !सबकी संवेदनाएं भीतर कहीं सिमटी हुई हैं| ऐसी ही न जाने कितनी घटनाएं चाहे वे दुख से भरी हों अथवा सुख से मानव-मन का भाग होती हैं| कहाँ पीछा छोड़ पाती हैं ?

अपेक्षित-अनपेक्षित के बीच हम झूलते रहते हैं और फिर कुछ कर पाने ,न कर पाने की स्थिति में एक त्रिशंकु सिलसिला चलता रहता है उम्र भर !हम सभी क्षणों के सौदागर से अपने-अपने पलों में से गुजरते रहते हैं और फिर यदि जीवित रहते हैं तो वही दुहराव ! जीवन का अर्थ समझने में पूरी ज़िंदगी बीत जाती है और हम छूटते मकाम से उन राहों पर,उन ऊबड़-खाबड़ राहों पर ठिठकते, सिमटते गुजरते चले जाते हैं | 

माँ-पापा दोनों ही लिखा करते थे| माँ हारमोनियम पर अपनी रचना को स्वरबद्ध भी करतीं और यह सब वे अनायास ही करती थीं| मुझे उनकी कुछ चीज़ें ऐसी याद हैं जैसे कल की ही तो बात है लेकिन न जाने क्यों मैं मातृ -दिवस पर कभी मेरी कलम उनके लिए दो शब्द की श्रद्धांजलि नहीं समर्पित कर पाती| इसी प्रकार किसी विशेष दिन पर उस विशेष दिन के लिए लिखना मुझसे कभी नहीं हो पाया । शायद इसका कारण यह हो कि मन में यह बहुत गहराई से बैठा है कि हर दिन सबका है,सभी दिनों पर सबका अधिकार है ,कोई अपने मन के अनुसार कभी भी कोई दिवस मन ले,इसमें न तो कोई आश्चर्य होना चाहिए और न कोई अजीब बात महसूस होनी चाहिए ।

कितना कुछ था उनका लिखा हुआ मेरे पास,पापा के वेद थे जिन पर उन्होंने काम किया था ,ज़िंदगी भर देश-विदेशों में वेदों का प्रचार-प्रसार करते रहे लेकिन कुछ ऐसा घटित हुआ कि मैं उन दोनों में से किसी कि भी कोई मूल्यवान स्मृति सँजो नहीं पाई | बस,इस ‘बची-खुची’के भीतर से कुछ’बचा-खुचा’ झाँक जाता है| वैसे मस्तिष्क की कोठरी में इतना कि ‘ओवरलोडेड’माल भरा पड़ा है कि एक बार सिर हिलाओ तो न जाने कितनी ही बातें गिरने को हो आती हैं । मुझे लगता है कि यह बात सबके पास होती है। विचारोब से मनुष्य का मस्तिष्क खाली नहीं रहता बल्कि जैसे कहते हैं न कि एक ढूंढो हजार मिलते हैं ।

क्या आपके साथ कभी ऐसा होता है कि हम किसी एक बात पर कुछ सोचना शुरू करते हैं और उसके साथ न जाने कितनी बातें हमारे मस्तिष्क में पसर जाती हैं । हम किसी एक बात पर मन केंद्रित नहीं कर पाते । मैं न जाने कब से माँ की लिखी हुई रचनाएं तलाश कर रही थी लेकिन न जाने कहाँ कहो चुकी हूँ उन्हें !

कल अचानक माँ की लिखी हुई कुछ पंक्तियाँ मन की पुरानी किवाड़ की झिर्री से माँ की लिखी कुछ पंक्तियाँ झांकी और मन ने कहा कि इन्हें मित्रों के साथ साझा करनया चाहिए !

बचपन में खास तौर से बसंत के लिए बनवाई गई पीली फ्रॉक,बालों में दो चोटियों को पीले रिबनों से सजा उनका झूला बना देना और बड़े होने पर जब कभी कुछ पीला पहनने को दिखाई न दे तो माँ या नानी का कहना,”ला,रुमाल रंग देती हूँ | ”कैसी और कितनी बातें याद आ रही हैं जिनको संस्मरण के रूप में कहने का प्रयास कर रही हूँ | आज अचानक माँ की लिखी कुछ पंक्तियाँ याद आ गईं जो मोटरों के साथ साझा कर रही हूँ ।

प्रस्तुत हैं ----

बसंत की बयार डोले पक्षी गण डार डार

कोकिला की कूक मानो

परत सुनाई दे

रंग समीर बहे ,शीतल पवन चले

जन-मन खेद हरे

आती सुखदाई है

बासन्ती रंग झूम झूम

पल्लवों को चूम-चूम

गाए मीठे तराने

लगे हैं सभी गीत गाने

ईश ने देख सखी ,

क्या प्रकृति बनाई है

हर पल्लव मन भाए

प्रेम चहूँ ओर छाए

हृदय में भर सुखंद

तरुणाई छाई है !!

भँवरे मस्त डार-डार

कलियों पे होवें निसार

सुखद घड़ी देखो

कैसी मन भाई हैं !!

माँ

स्व. दयवती शास्त्री

मित्रों!

गर्मी के थपेड़े अभी से पड़ने लगे हैं ,परिवार का ध्यान रखें । जरूरत के बिना बाहर न घूमें, अभी से पानी का अधिक से अधिक सेवन करें । एकदम ठंडे वातावरण से बाहर गर्मी में न निकलें । बाहर जाना भी पड़े तो ए सी से निकलकर पहले कुछ देर नॉर्मल वातावरण में शरीर के तापमान को नॉर्मल पर रखकर बाद में निकलें । इंसान को काम तो करना ही है लेकिन अपना ध्यान भी रखना है ।

हर समय और हरेक के लिए पहाड़ों पर जाकर बैठना संभव नहीं होता है । अत: ध्यान रखें और स्वस्थ्य रहें । पूरे संसार में प्राकृतिक बदलाव चल रहे हैं जिनका कारण कहीं न कहीं हम मनुष्य भी हैं । सो,यदि संभव हो हरियाली पर नंगे पैर चलकर पूरे दिन के लिए ऊर्जा लेने का प्रयास करें। ध्यान रखें ।

अगली बार कुछ और लिखकर आप सब तक पहुँचने का प्रयास करती हूँ । तब तक के लिए स्नेहिल नमस्कार !

आप सबकी मित्र

डॉ.प्रणव भारती