Amma ka Matki bhar Sona aur Plenchit - 2 in Hindi Fiction Stories by Neelam Kulshreshtha books and stories PDF | अम्मा का मटकी भर सोना और प्लेनचिट - 2

Featured Books
Categories
Share

अम्मा का मटकी भर सोना और प्लेनचिट - 2

एपीसोड --2

तब मम्मी भक्तिभाव से पूछतीं, "बाबा ! आ गए ? "

शीशी `हाँ `पर चली जाती।

"नमस्ते बाबा !"

"प्रणाम बाबा !आप ख़ुश हैं ? "

शीशी घूमकर फिर `हाँ `पर रुक जाती .थी।

बिट्टी ने फुसफुसाकर था, "ये वही बाबा हैं जो टोपी पहनते थे, बाहर की कोठरी में रहते थे। हमें चने व पिसी शक़्कर का पाऊडर खिलाते थे ?"

"हाँ, वही हैं। तू चुप करके बैठ। "

"बाबा! आप अचानक कहां गायब हो गए थे ?"

पंद्रह बीस मिनट की मशक्कत के बाद उत्तर वही मिलता जो सब उनके गायब होने का अनुमान लगा रहे थे यानि वे हज़ारों रूपये लेकर ज़मीन ख़रीदने गए थे लेकिन कासगंज में ही कहीं क़त्ल कर दिये गए। उनकी मृत देह नहीं मिली।शायद गंगा में बहा दी गई हो। सबकी आत्मायें गुज़री हुई बातें ठीक बताती थीं लेकिन इनकी भविष्यवाणियों का कोई प्रमाण कहाँ से लाते ?मामा लोग अपने पास होने की बात पूछते। कुसुम मौसी पूछती ढोलक सी मोटी उनकी प्रिंसीपल, जो उन्हें बहुत डाँटती है, का ट्रांसफ़र कब होगा ?आदि।

बिट्टी को ख़ूब याद है कभी कभी कोई आत्मा अड़ जाती जाने का नाम नहीं लेती। वह देर तक गोल गोल घूमती रहती थी। मम्मी गिड़गिड़ातीं, "बहुत देर हो गई, अपने लोक वापिस जाइये। "

शीशी झट संकेत देती `नहीं `. कभी कभी देर तक, प्रार्थना पूजा करके उसे टाला जाता था।जिस दिन आत्मा बुलाई जाती बिट्टी को सारा घर रहस्यमय लगने लगता था । कभी भी किसी कोने में जाती उसे अहसास होता कि उसके पीछे कोई है, कोई उसके दायीं बाजू कोई खड़ा है। वह डरकर मन ही मन मम्मी यानि मम्मी का सिखाया गायत्री मन्त्र पढ़ने लगती। रात को तो दूर दूर की झींगुर की आवाज़ उसे आत्मा की पायल की रुन झुन लगती थीं।

उस दिन शीशी में अम्मा की आत्मा विराजमान थीं . उनसे पास फ़ेल, शादी ब्याह, प्रमोशन पूछे जा चुके थे। नानी जी ने हाथ जोड़कर पूछा, "माता जी !आपके स्वर्ग सिधारने के बाद ननद रानी के लिये बनवाये गहने व आपकी बीस बीस तोले की हंसली व करधनी आज तक हमको नहीं मिली। ससुर जी व आपके बेटा ढूँढ़ते ढूँढ़ते हैरान हो गये हैं।आप बताओ क्या वह वे गहने अभी भी घर में ही गढ़े हैं ? "

सबकी आँखें चौंधिया गईं जब देखा कि शीशी ` हाँ `पर रुक गई।

"वह किसमें रक्खा है ? किसी बक्स में तो नहीं मिला है. " अम्मा ने पुरखिनों से सुन रक्खा था कि पहली औरतें एक छोटी मटकी में गहने रखकर उसके मुंह पर लाल कपड़ा बांधकर उसे ज़मीन में गाढ़ देतीं थीं जिससे वे चोरों व बदनीयत घरवालों से बचे रहें इसलिए उन्होंने उत्सुकता से दूसरा प्रश्न पूछा था, " वे गहने मटकी में रखकर गाढ़े हुए हैं ?"

दो आवाज़ें फुसफुसा उठीं, "घर में इतना सोना ?बाप रे !कहाँ गढ़ा है ?"

इसका उत्तर शीशी ने नहीं दिया, चक्कर खाती रही। सब मायूस हो गए।

दूसरे दिन फिर जल्दी ही महफ़िल जमी लेकिन कुछ पता नहीं लग रहा था। शीशी कभी बताती किसी कोठरी में है, बाहर चहारदीवारी में हैं। कभी घूमती बताती बरामदे में है। जब बताया कि हॉल में है तो नानी बोल उठीं, "शर्तिया हॉल में तो नहीं होगा क्योंकि तुम्हारे बाबूजी ने उसे खुदवाकर उस पर चिप्स का फ़र्श बनवाया है। अगर अगर गहनों की मटकी होती तभी मिल जाती। "

"हो सकता है कि कोई मज़दूर ले उड़ा हो। "

"मज़दूर ले ही नहीं जा सकते थे क्योंकि कोई न कोई घर के आदमी को मैं खड़ा रखती थी क्योंकि मैं भी तो माता जी के सोने को ढूंढ़ रहीं थी । "

"अहा हमारी जीया, कभी हम सबको नहीं बताया कि अम्मा के पास इतना सोना था। "

"क्या बताती ? अगर मुझे मिलता तो बताती।"

सब मन ही मन हिसाब लगाते। एक तोले सोने का भाव इतना तो साठ सत्तर तोले सोने सोने का कितना ?

नानी मन ही मन हिसाब लगाने लगतीं कितना सोना किसको देना है। मम्मी पर सबसे अधिक ज़िम्मेदारी आ चुकी थी। उन्होंने चार पांच बार अम्मा की आत्मा को बुलाकर पूछा कि उनके ज़ेवर कहाँ हैं ?हर बार शीशी एक एक शब्द पर जाकर `कोठरी `शब्द इंगित करती।

कोई पूछता, " कौन सी कोठरी ?बाहर वाली या हॉल के अंदर वाली ?"

शीशी सरपट कांच पर उँगलियों के सहारे दौड़ लेती एक एक शब्द पर। उन शब्दों को मिलाकर बनता `अंदर `.फिर प्रश्न पूछा जाता, "कोठऱी में कहाँ ?बायीँ तरफ़ आलमारी के कोने में या के लकड़ी के संदूक वाले कोने में। "

शीशी कांच पर रपटती -"संदूक `.

बिट्टी को अब याद नहीं कि ये बात सबसे पहले किसने कही थी कि कोठरी में वो जगह खोदकर देखी जाए। ज़ाहिर है नानी ने ऊपर से बनते हुए कहा होगा, "उस मरे सोने के लिए अपना घर मैं नहीं खोदने दूंगी। "

रज्जु मामा गिड़गिड़ाये होंगे, "जिया !खजाना पाने के लिए लोग वर्षों जँगलों, पहाड़ों, खंडहरों, किलों में भटकते रहते हैं। खजाने की आस में वहां खुदाई करते रहते हैं। और हम हैं कि खजाने के ऊपर बेख़बर बैठे हैं। ज़रा परत हटाने की देर है कि हम अमीर हो जायेंगे। "

"मान लो खजाना नहीं निकला तो कोठरी की ज़मीन पर प्लास्टर लगाने का ख़र्चा कौन देगा ?"नानी बिल्कुल भी ये नहीं दिखाना चाहतीं होंगी कि उन्हें गढ़े हुए खजाने का मोह है।

"हम देंगे न। "सभी एक स्वर में बोले थे।

मम्मी थोड़ा अकड़ीं थीं, "कैसे नहीं मिलेगा अम्मा का सोना। मैंने जिस जिस आत्मा को बुलाया है कभी भी उसकी बात झूठी नहीं निकली। "

फिर सबने योजना बनाई थी, दिन नियत किया। बिट्टी को कसकर घुड़की दी थी कि बाबूजी को कुछ भी नहीं बताये। उनके सामने गहनों से भरी मटकी रखकर उन्हें सरप्राइज़ दिया जायेगा। सुबह उस दिन जल्दी उठकर सबने उबले हुये आलू की हरा धनिया, हरी मिर्च व गर्म मसाले वाली यू पी वाली चटपटी सब्ज़ी व पूरी पेट भरकर खाई थीं क्योंकि फ़र्श खोदना एक मशक्क़त का काम था। बाबूजी के ऑफ़िस जाते ही सबने कोठरी का आधा सामान बाहर कर दिया था।दोनों बड़े काले संदूक बाहर हॉल में रक्खे गए वैसे ही बाहर की कुंडी खड़की। दीदी ने रज्जु मामा को समझाया था, " चाहे कोई कितना भी ख़ास हो उसे बाहर से ही टरका देना, बहाना बना देना कि जिया घर पर नहीं हैं। "

दरवाज़ा खोलने रज्जु मामा जी गये थे। दरवाज़ा खोलते ही उनके होश फ़ाख़्ता हो गये--- दरवाज़े पर नाना जी खड़े थे।

"अ --अ --आप ?`वे हकलाये।

"ऐसे क्यों चौंक गया ? दफ़्तर में बैठे बैठे अचानक सिर दर्द होने लगा इसलिये चला आया लेकिन तुम्हें मेरे आने से क्या तकलीफ़ हो रही है ?"

" मुझे --नहीं तो। " मामा खिसियाये से अंदर आ गये। उनके पीछे बाबूजी को आता देखकर सबके चेहरे स्याह हो गये।जब बाबूजी ने हॉल में कोठरी का सामान भरा देखा तो मुस्करा उठे, "बेटियाँ कितनी ज़रूरी होतीं हैं। छुट्टियों में आकर घर भर की सफ़ाई कर देतीं हैं। "

इसके बाद वे नानी की तरफ़ मुड़कर बोले, "मेरे बहुत ज़ोर से सिर का दर्द हो रहा है। मैं बाहर कमरे में जा रहा हूँ। बिट्टी के हाथ चाय भिजवा देना। दोपहर का खाना नहीं खाऊंगा, मुझे सोने देना। " थोड़ी देर तक सब असमंजस में बैठे रह गए। इतना सामान निकाल कर अब सम्भव नहीं था कि वापिस लौटें। उस पर लाल कपड़ा बंधी मटकी और उसमें जगमगाते गहनों का आकर्षण --अब कोई सब्र करे भी तो कैसे करे ? नानी चाय बनाने चल दीं, " बिट्टी! चल मेरे साथ ."

और शारदा मौसी जी ने फावड़ा उठाया। बिज्जु मामा कोठरी में जाकर छड़ से कोने के मलबे को कुरेदने लगे। मौसी अंदर आकर दे दनादन फावड़े से खोदने लगीं। बिट्टी लौटकर शरारत से मुस्कराती कोठरी के दरवाज़े से अंदर की खुदाई देखने लगी थी।

मम्मी ने पूछा, " बाबूजी को चाय दे आई ? "

"हाँ। "

थोड़ी देर बाद अचनाक बाबूजी ने हाथ में ख़ाली कप लेकर हॉल में आते हुये कहा था, "तुम लोग ये क्या बेवकूफ़ी कर रहे हो पढ़े लिखे गँवारो !" उनके लाल पीले चेहरे को देखकर सबके ऊपर मानो बिजली गिर पड़ी।

मम्मी ने फँसी हुई आवाज़ में पूछा, " क्या बेवकूफ़ी बाबूजी ?"

"अम्मा का सोना ज़मीन में गढ़ा हुआ होगा और क्या उनकी आत्मा ऊपर से बताने आएगी ?"

"यह बात तो तय है जब किसी के प्राण किसी चीज़ में अटके हों तो आत्मा मुक्त नहीं होती। वह पृथ्वी पर भटकती रहती है। ` `इस बार नानी ने बात सँभालने की कोशिश की।

"तुम चुप रहो जी। इतने सालों में मेरे साथ रहकर भी नहीं सुधरीं तो अब क्या सुधरोगी ? अपने जैसे कूपमंडूक बच्चे बना दिए है जो आत्मा के कहने पर घर खोद रहे हैं। "

सब हैरान थे कि बाबूजी को कैसे पता चला ? सब तो यहीं हैं। सबकी नज़र अचानक हॉल के कोने में खड़ी अपनी ऊँगली से फ़्रॉक मरोड़ती बिट्टी पर पड़ी.मम्मी ने दांत पीसते हुए बिट्टी से फुसफुसाकर कहा था, "तुम आगरा चलो, तब तुम्हें देखती हूँ। "

बाबूजी गरज पड़े, "बंद करो ये तमाशा। "

अभी वे कुछ आगे कहते कि अम्मा गिड़गिड़ा उठीं, "आप आराम करो, आधी खुदाई हो चुकी है, अब विघ्न नहीं डालो। "

बाबूजी नानी की रुँआसी व दयनीय शक्ल देखकर खून का घूँट पीते हुये अपने कमरे में चले गए, अब इतने बड़े बेटी बेटों के कान भी नहीं उमेठे जा सकते थे ।

कितना कठिन काम था बाबा आदम के ज़माने के बड़े बड़े काले संदूक व कोने के विशालकाय लकड़ी के लाल पीले संदूक को कोठरी से हॉल में निकालना। उसके बाद हाथों में लम्बे जालों को साफ़ करना, जाने कब से जमी धूल के नाक में जाने पर छींकों की बरसात करना।

चार लोगों ने एक खींचा तब कहीं दो काले संदूक बाहर आ पाये लेकिन लकड़ी के चार पांच फ़ीट ऊँचे संदूक को कोई हिला नहीं पाया। जूनून सवार था अम्मा के गहने हासिल करने का। जब वह संदूक एक इंच भी नहीं हिला तो संतो के पति कल्ला कहार को बुलाया गया था। वैसे तो वह चमड़े की मशक लेकर रोज़ शाम को कम्पाउंड में मशक से पानी का छिड़काव करने व नाना जी की आराम कुर्सी के दोनों ओर मिलने वालों की कुर्सियाँ रखने आता था। चौक में रोज़ शाम को नाना जी का दरबार लगता था।

कल्ला कहार भी इतने बड़े संदूक को देखकर असमंजस में पड़ गया था, "ये संदूक बाहर नहीं निकस सकता। चाहो तो थोड़ा खिसक सकता है।"

"कल्ला !कुछ उपाय तो करो। "शारदा मौसी गिड़गिड़ाई थीं।

तब कल्ला ने युक्ति सुझाई कि वह अपना गमछा कुंडे में डालेगा और उसे बीच में खींचने की कोशिश करेगा, बाकी लोग पीछे की तरफ़ से पकड़कर धक्का देकर उसे कोठरी के बीच में लाने की कोशिश करेंगे। बॉक्स के खींचने की आवाज़ हुई ---किर्रर्र --किर्र ---करर्र --किर्र --.जो काले कलूटे हष्ट पुष्ट कल्ला के शरीर से फूट रही दुर्गन्ध से घबराकर उससे दूर रहते थे, उन्हें आज ये दुर्गन्ध भी सुगंध लग रही थी। वह आवाज़ लगाता था, "ज़ोर लगा के ----."

बाकी कहते, "हई सा ----."इस खींचातानी में संदूक दो इंच खिसक गया तो सबने कसकर ज़ोर लगाकर संदूक को बाहर लाकर ही दम लिया।

"संदूक को ----."हाँफने के कारण कल्ला से बोला नहीं गया .उसकी ऑंखें लाल होकर आगे उबली पड़ रहीं थीं। वह दीवार से टिककर नीचे फ़र्श पर बैठ गया .एक मिनट तक अपने गमछे से व चीकट बनियान के अंदर के पसीने को पोंछता रहा, फिर पूछा, "इस भारी संदूक को हटाने की क्या ज़रुरत आन पड़ी ? "

"कल्ला !देख नहीं रहे हो कि संदूक के नीचे कितना ढेर कचरा जमा हो गया है। हम लोग छुट्टियों में यहां आये हैं तो साफ़ कर जायें वर्ना अम्मा बाबूजी के बस का तो ये हैं नहीं। "चतुर कुसुम मौसी ने बात बना दी थी।

e-mail—kneeli@rediffmail.com