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निशुल्क भोजन ,निशुल्क आवास सुविधा
रमणाश्रम मे भक्तों के लिए दोनों समय निशुल्क नाश्ता व भोजन की व्यवस्था रहती है । पहले गरीब भिखमंगों, साधुओं को सेवा प्रदान की जाती है फिर भक्तों की सेवा की जाती है ।
किसी से किसी प्रकार के धन की मांग नही की जाती । किंतु भक्तों का कर्तव्य है कि ऐसे पुण्यकर्म मे दिल खोलकर दान दें । रमणाश्रम मन ठहरने के लिए पूर्व अनुमति आवश्यक है ।
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धर्म जाति का भेद नहीं
भगवान महर्षि के सामने धर्म व जाति का किंचित भैदभाव नहीं था । जब सब भोजन करने बैठते तो बिना भैदभाव के देशी विदेशी बिना जात पात या ऊंचनीच के ऐकसाथ बैठते ।
उस जमाने मे लोगों मे जात पात ऊंचनीच का बड़ा भेदभाव हूआ करता था । महर्षि के समक्ष सभी भक्त बात ना भैदभाव के ऐकसाथ बैठते ।
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माता की उपेक्षा
रमन के घल से भागने के बाद उसकी माता व चाचा चारो ओर उसे ढूंढने. का पृयास कर रहे थे। किन्तु रमण का कही
पता नहीं चल रहा था। तभी किसी परिचित ने तिरूवन्नामलाई मे रमन के हुलिए से मिलता ऐक संत बच्चे के विषय मे बतलाया । जब उसके चाचा वहां पहुंचे तो रमण भारी भीड़ से घिरा पृसिद्ध संत के रूप मे विख्यात हो चुका था । चाचाजी ने भतीजे के कार्य मे बाधा डालना उचित नहीं समझा ।
इस पर उसकी माता शीघ्रता से वहां पहुंची ।
वह रो धोकर रमन से वापस घर लौट चलने की मनुहार करती. रही किंतु रमन ने माता की ओर.देखा तक नहीं ।
जब इस प्रकार अनेक दिन बीत गए तो भक्तो ने महर्षि से माता के लिए संदेश लिखकर देने की प्रार्थना की ।
तब महर्षि ने कागज पर लिखकर दिया कि विधाता के प्रारब्ध को कोई बदल नहीं सकता । तब माता अपने घर लौट गई ।
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ध्यान, मंत्र व दीक्षा
भक्तगण प्रायः ध्यान कैसे करें ?
वे मंत्र दीक्षा की प्रार्थना करते ।
महर्षि से कृपा करने कु मांग करते ।
महर्षि कोई ध्यान विधि नहीं बतलाते । वो हमेशा यह खोज करने को कहते ,” मो कौन हूँ ? “ मै न मन है , न मै शरीर है ,
फिर मै शरीर व मन से परे सत् चित् आनंद स्वरूप आत्मा है ।
गुरू के संबंध मे पूछने पर कहते ,गुरू बाहर नही अंदर हैं ।
वे कभी किसी के गुरू नहीं बने । जब सभु ऐक हैं.तो कौन गुरु कौन शिष्य ?
इतनी उच्च स्थिति. मे थे महर्षि रमण ।
उनकी उपस्धिति मात्र से भक्तों को दिव्य अनुभूति होती थी ।
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स्वानुभव
मित्रों मै अपना स्वयं का अनुभव यहां बतलाना चाहूंगा।
मै रमण महर्षि को सद्गुरु मानता हूं। नित्य प्रातः मै नींद से उठने पर महर्षि का स्मरण करता हूं । मित्रों नित्य तो नहीं किंतु कभी कभी मुझे अपने शरीर मे बिना ध्यान या कौई योगिक अभ्यास के स्वतः आध्यात्मिक अनुभूति होती है ।
यह महर्षि की सार्वभौमिक सत्ता की उपस्धिति को बतलाता है । मित्रों देहत्याग के बाद सद्गुरु और अधिक प्रभावशाली हो जाते हैं ।
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प्रिय पाठकों ,
इस लघु पुस्तिका मे बहुत छोटे चेटर्स हैं । कारण महर्षि अधिकतर मौन रहते थे ।
उनकी दीक्षा मौन थी । वे कभी किसी भक्त पर दिव्य अनुभूति की कृपा करते तो उसे कुछ समय के लिए मौन होकर देखते ।
कभी कोई भक्त प्रश्न करता तो उसे मैं कौन हूं की खोज करने को कहते ।
ऐसी स्थिति मे महर्षि के विषय मे अधिक लिखना व्यर्थ है ।
सिर्फ अति संक्षेप मे बात करना ठीक है ।
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देहत्याग
1947 के आरंभ मे महर्षि के कंधे पर ऐक गांठ बन गई जिसका बहुत इलाज करने पर भी वह ठीक नही हुई ।
मालूण पड़ा कि वह केंसर है
भक्तगण बड़ी चिंता करते किंतु महर्षि उस बीमारी पर व्यंग करते और यह जताते कि यह शरीर रोग है जिसका उनसे कोई संबंध नही है ।
न जाने किस भक्त की व्यथा उन्होंने अपने ऊपर ले ली । अंत मे अप्रेल 1950 को उन्होंने शरीर त्याग दिया।
किंतु भगवान की उपस्थिति आज भी सर्वदा आश्रम मे महसूस की जा रही है.।
गंभीर रूप से बात मार होने पर व भक्तों के शोक मनाने पर उन्होंने कहा ,”मैं कहाँ जा सकता हूं ,मै सर्वदा यहीं मौजूद रहूंगा ।”
गंभीर रूप से बात मार होने पर व भक्तों के शोक मनाने पर उन्होंने कहा ,”मैं कहाँ जा सकता हूं ,मै सर्वदा यहीं मौजूद रहूंगा ।”