भाग 3: वापसी और उपेक्षित संघर्ष
पिछले भागों का सारांश:
भाग 1 में हमने देखा कि राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने राजसी वैभव को त्यागकर स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने का निर्णय लिया। उन्होंने प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की और अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति की नींव रखी।
भाग 2 में उनका सफर भारत से बाहर शुरू हुआ। उन्होंने काबुल में भारत की पहली निर्वासित सरकार स्थापित की और लेनिन, जर्मनी, तुर्की, जापान जैसे देशों से समर्थन लेने का प्रयास किया। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सबसे खतरनाक क्रांतिकारियों में से एक घोषित कर दिया और उनके खिलाफ फाँसी का वारंट जारी कर दिया। वे लगभग 32 वर्षों तक भारत वापस नहीं आ सके।
अब भाग 3 में देखेंगे कि जब वे भारत लौटे, तो उन्हें क्या मिला? स्वतंत्र भारत में उनका क्या स्थान रहा?
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अध्याय 8 – 32 साल बाद भारत वापसी
1946 में, जब भारत की स्वतंत्रता निश्चित हो गई थी, ब्रिटिश सरकार ने राजा महेन्द्र प्रताप सिंह के खिलाफ सारे वारंट हटा लिए। 1947 में, जब भारत स्वतंत्र हुआ, तब वे लगभग 61 वर्ष के थे।
तीस वर्षों तक निर्वासन में रहने के बाद जब वे भारत लौटे, तो उन्हें उम्मीद थी कि जिस देश के लिए उन्होंने अपना सर्वस्व त्याग दिया, वह देश अब उन्हें सम्मान देगा। लेकिन उन्हें जो मिला, वह निराशाजनक था।
राजनीतिक परिदृश्य पूरी तरह बदल चुका था। कांग्रेस सत्ता में आ चुकी थी, और महेन्द्र प्रताप सिंह को राष्ट्रीय नायक के रूप में स्वीकार करने की बजाय उपेक्षित कर दिया गया। न तो उन्हें स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख नेताओं में गिना गया और न ही उन्हें सरकार में कोई भूमिका दी गई।
अध्याय 9 – राजनीति में असफलता और सामाजिक कार्य
राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने की कोशिश की, लेकिन उन्हें ज्यादा समर्थन नहीं मिला। 1957 में उन्होंने अलीगढ़ से लोकसभा चुनाव लड़ा और विजयी हुए। लेकिन उनके विचार पारंपरिक राजनीति से मेल नहीं खाते थे। वे एक स्वतंत्र विचारक थे, जो किसी भी दल की विचारधारा में पूरी तरह फिट नहीं हो सके।
उन्होंने अपने बचे हुए जीवन को शिक्षा, सामाजिक सुधार और मानवता के कल्याण में लगा दिया। वे मानते थे कि केवल राजनीतिक स्वतंत्रता ही पर्याप्त नहीं, बल्कि समाज को बौद्धिक रूप से भी स्वतंत्र होना चाहिए।
अध्याय 10 – अंतिम दिन और भुला दिए गए संघर्ष
राजा महेन्द्र प्रताप सिंह का जीवन अत्यंत संघर्षमय रहा। लेकिन अफसोस की बात यह रही कि स्वतंत्र भारत में उन्हें वह पहचान नहीं मिली जिसके वे हकदार थे।
उन्होंने अपना पूरा जीवन देश के लिए समर्पित कर दिया, लेकिन उनकी भूमिका को इतिहास में उतनी जगह नहीं दी गई, जितनी अन्य स्वतंत्रता सेनानियों को मिली।
29 अप्रैल 1979 को वे इस दुनिया को छोड़कर चले गए।
निष्कर्ष – क्या हमने अपने नायक को भुला दिया?
राजा महेन्द्र प्रताप सिंह की कहानी एक ऐसे नायक की गाथा है, जिसे इतिहास ने उचित सम्मान नहीं दिया।
* वे पहले भारतीय थे जिन्होंने निर्वासित सरकार बनाई।
* उन्होंने शिक्षा को एक हथियार के रूप में अपनाया।
* वे 32 साल तक भारत से बाहर रहकर भी स्वतंत्रता संग्राम को जिंदा रखे रहे।
आज जब हम स्वतंत्रता संग्राम के नायकों की चर्चा करते हैं, तो गांधी, नेहरू जैसे नाम लिए जाते हैं, लेकिन राजा महेन्द्र प्रताप सिंह का नाम शायद ही कोई याद करता है। यह उपन्यास इसी उद्देश्य से लिखा गया है कि हम अपने भूले-बिसरे नायकों को उनका सम्मान वापस दें।
अंतिम शब्द – उनकी विरासत को याद रखना होगा
आज भी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में उनके योगदान को लेकर विवाद होते हैं, लेकिन सच यह है कि उन्होंने शिक्षा के लिए जो किया, वह अमर रहेगा।
उनका जीवन हमें सिखाता है कि सच्ची देशभक्ति केवल नाम और प्रसिद्धि के लिए नहीं होती—बल्कि अपने देश के लिए हर चीज त्यागने के लिए होती है।
"राजा महेन्द्र प्रताप सिंह" केवल एक नाम नहीं, बल्कि एक विचारधारा हैं।
(समाप्त )