राजा महेन्द्र प्रताप सिंह – एक गुमनाम सम्राट
(भाग 2: निर्वासन में क्रांति)
पिछले भाग का सारांश...
भाग 1 में हमने देखा कि राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने अपनी विलासिता और राजसी जीवन को त्यागकर भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने का निश्चय किया। उन्होंने प्रेम महाविद्यालय की स्थापना की, क्रांतिकारियों से जुड़े, और फिर अंग्रेजों की साजिशों से बचने के लिए भारत से बाहर निकलकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आजादी की लड़ाई लड़ने का निर्णय लिया। अब हम देखेंगे कि कैसे उन्होंने विदेशों में भारत की पहली निर्वासित सरकार स्थापित की और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ एक नई रणनीति तैयार की।
अध्याय 4 – निर्वासन की शुरुआत
सन 1914, प्रथम विश्व युद्ध छिड़ चुका था। यूरोप की महाशक्तियाँ एक-दूसरे से भिड़ रही थीं, और भारत अभी भी ब्रिटिश गुलामी में जकड़ा हुआ था। यह समय भारतीय क्रांतिकारियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण था क्योंकि ब्रिटिश सरकार युद्ध में व्यस्त थी, और यह आजादी की लड़ाई को तेज करने का सबसे बड़ा अवसर था।
राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने अपने साथियों के साथ योजना बनाई कि वे अंग्रेजों के दुश्मनों से समर्थन लेंगे और भारत की स्वतंत्रता के लिए वैश्विक स्तर पर संघर्ष करेंगे। उनका पहला पड़ाव अफगानिस्तान था।
1915 में वे अफगानिस्तान पहुंचे। यहां पर उन्हें अमीर हबीबुल्लाह खान का समर्थन मिला। इसी वर्ष, काबुल में उन्होंने भारत की पहली निर्वासित सरकार (Provisional Government of India) की स्थापना की। यह भारत के स्वतंत्रता संग्राम का एक ऐतिहासिक कदम था, जिसे आज भी बहुत कम लोग जानते हैं।
अध्याय 5 – भारत की पहली निर्वासित सरकार
1 दिसंबर 1915 को काबुल में एक महत्वपूर्ण घोषणा हुई—राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ने भारत की अस्थायी सरकार की स्थापना की। इस सरकार में कई प्रमुख नेता शामिल थे:
राजा महेन्द्र प्रताप सिंह – राष्ट्रपति
मौलवी बरकतुल्लाह – प्रधानमंत्री
उबैदुल्लाह सिंधी – गृह मंत्री
इस सरकार का उद्देश्य था भारत की आजादी के लिए अंतरराष्ट्रीय समर्थन प्राप्त करना और ब्रिटिश हुकूमत को कमजोर करना। उन्होंने जर्मनी, रूस, तुर्की, और अन्य देशों से संपर्क किया ताकि भारत को स्वतंत्र कराने के लिए सहायता मिल सके।
इस कदम से ब्रिटिश सरकार बौखला गई। उन्होंने राजा महेन्द्र प्रताप सिंह को "सबसे खतरनाक क्रांतिकारियों में से एक" घोषित कर दिया और उन पर नजर रखने लगे।
अध्याय 6 – अंतरराष्ट्रीय संघर्ष और चुनौतियाँ
राजा महेन्द्र प्रताप सिंह का अगला कदम था सोवियत रूस और जर्मनी से समर्थन लेना।
* वे 1919 में रूस गए और वहां लेनिन से मुलाकात की।
* उन्होंने जर्मनी, तुर्की और जापान जैसे देशों से भी संपर्क किया।
* उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता की अलख जलाने के लिए कई देशों में क्रांतिकारियों को संगठित किया।
लेकिन यह सब इतना आसान नहीं था। ब्रिटिश सरकार ने उन पर फाँसी का वारंट जारी कर दिया। अगर वे भारत लौटते, तो उन्हें तुरंत गिरफ्तार कर लिया जाता।
अध्याय 7 – निर्वासन में बिताए गए साल
राजा महेन्द्र प्रताप सिंह लगभग 32 वर्षों तक भारत नहीं लौट सके। उन्होंने अफगानिस्तान, जर्मनी, तुर्की, रूस, और जापान में रहकर भारत की आजादी के लिए संघर्ष किया।
उन्होंने अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भारत की स्थिति को उजागर किया और ब्रिटिश साम्राज्य की नीतियों का विरोध किया।
लेकिन धीरे-धीरे परिस्थितियाँ बदलने लगीं।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब भारत में स्वतंत्रता संग्राम तेज हुआ, तो 1946 में ब्रिटिश सरकार ने उनके खिलाफ जारी गिरफ्तारी वारंट को हटा दिया।
अंततः 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ, लेकिन तब तक वे राजनीति से दूर हो चुके थे।
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भाग 3 में क्या होगा?
* राजा महेन्द्र प्रताप सिंह की भारत वापसी
* स्वतंत्रता के बाद उनका जीवन
* उनके विचार और समाज सुधार की दिशा में उनके प्रयास
(भाग 3 जल्द आएगा...)