राजा महेन्द्र प्रताप सिंह: एक गुमनाम सम्राट
(भाग 1: क्रांति की आहट)
परिचय:-
भारत के स्वाधीनता संग्राम में अनेकों महापुरुषों ने अपने प्राणों की आहुति दी, संघर्ष किया और इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हुए। लेकिन कुछ ऐसे वीर भी थे, जिन्होंने अपना जीवन मातृभूमि के लिए समर्पित कर दिया, परंतु उनके योगदान को वह स्थान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे। ऐसे ही एक वीर स्वतंत्रता सेनानी, क्रांतिकारी और समाज सुधारक थे राजा महेन्द्र प्रताप सिंह।
वे न केवल ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लड़े, बल्कि भारत के बाहर भी क्रांति की चिंगारी सुलगाई। वे एक योद्धा, एक पत्रकार, एक राजनेता और एक दूरदर्शी समाज सुधारक थे। उनका जीवन केवल तलवार और बंदूक तक सीमित नहीं था, बल्कि उन्होंने शिक्षा और जागरूकता के माध्यम से भी ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दी।
इस उपन्यास में हम उनके जीवन के अनछुए पहलुओं को जानेंगे—एक ऐसे शख्स की कहानी, जिसने अपना सब कुछ छोड़ दिया, ताकि देश स्वतंत्र हो सके।
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भाग 1: क्रांति की आहट
अध्याय 1 – अलीगढ़ की धरती पर जन्म
साल था 1886, और स्थान था हाथरस, उत्तर प्रदेश। एक समृद्ध, प्रभावशाली और राजसी परिवार में एक बालक ने जन्म लिया, जिसे दुनिया बाद में राजा महेन्द्र प्रताप सिंह के नाम से जानेगी।
उनका जन्म एक संपन्न जाट परिवार में हुआ था। उनके पिता राजा घनश्याम सिंह हाथरस के राजा थे, जो समाज में प्रतिष्ठित और सम्मानीय व्यक्ति थे। महेन्द्र प्रताप का बचपन राजमहल की चकाचौंध और विलासिता में बीता, लेकिन नियति उनके लिए कुछ और ही लिख चुकी थी।
बालक महेन्द्र में बचपन से ही विद्रोही स्वभाव था। वे साधारण बच्चों की तरह राजमहल में रहकर विलासिता का आनंद नहीं लेना चाहते थे। उन्हें किताबों और ज्ञान से प्रेम था। उनके मन में समाज की समस्याओं को लेकर गहरी जिज्ञासा थी।
जब वे अलीगढ़ के प्रसिद्ध मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज (जो आगे चलकर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी बना) में पढ़ने पहुंचे, तो उनकी सोच और अधिक परिपक्व हो गई। वहां उन्होंने देखा कि किस तरह अंग्रेजों की नीतियों के कारण भारतीय युवाओं की मानसिकता गुलामी की ओर झुक रही थी। यह देखकर उनके अंदर असंतोष की चिंगारी प्रज्वलित हुई।
उन्होंने पढ़ाई के दौरान ही यह निश्चय कर लिया कि वे केवल अपनी सुख-सुविधाओं में नहीं जिएंगे, बल्कि देश के लिए कुछ बड़ा करेंगे।
अध्याय 2 – विलासिता का त्याग
राजा महेन्द्र प्रताप सिंह के पास धन-संपत्ति की कोई कमी नहीं थी। परंतु उन्होंने जल्दी ही समझ लिया कि यह वैभव और ऐश्वर्य केवल दिखावा है। वास्तविक शक्ति तो जनता के साथ होने में है।
जैसे-जैसे उनकी शिक्षा पूरी हुई, वे समाज सुधार और स्वतंत्रता संग्राम की ओर झुकने लगे। ब्रिटिश हुकूमत की नीतियों ने भारत को आर्थिक और मानसिक रूप से गुलाम बना दिया था। युवा महेन्द्र प्रताप इसे सहन नहीं कर सके।
1906 में, जब वे केवल 20 वर्ष के थे, उन्होंने कुछ ऐसा किया जो उनके परिवार और पूरे समाज के लिए अकल्पनीय था—उन्होंने अपने राजमहल, सुख-सुविधाएं और सारी संपत्ति छोड़ दी! वे एक सन्यासी की तरह निकल पड़े एक नए मिशन की ओर—भारत की स्वतंत्रता।
इस त्याग ने उन्हें एक साधारण राजा से एक महानायक बना दिया। उन्होंने खुद को गरीबों और शोषितों की सेवा के लिए समर्पित कर दिया।
उन्होंने "प्रेम महाविद्यालय" की स्थापना की, जहाँ सभी जाति, धर्म और संप्रदाय के विद्यार्थियों को शिक्षा दी जाती थी। उनका मानना था कि केवल तलवार से नहीं, बल्कि शिक्षा और जागरूकता से भी आजादी प्राप्त की जा सकती है।
लेकिन अंग्रेजों को यह बिल्कुल पसंद नहीं आया। वे उन्हें देश के लिए खतरा मानने लगे। ब्रिटिश सरकार ने उन पर नजर रखना शुरू कर दिया, और जल्द ही वे एक विद्रोही राजा के रूप में पहचाने जाने लगे।
अध्याय 3 – क्रांति की ओर पहला कदम
राजा महेन्द्र प्रताप सिंह केवल समाज सुधार तक सीमित नहीं रह सकते थे। वे जानते थे कि अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए सीधे संघर्ष की आवश्यकता होगी। उन्होंने भारतीय युवाओं को संगठित करना शुरू किया और क्रांतिकारियों से संपर्क स्थापित किया।
उनकी मुलाकात कई प्रमुख क्रांतिकारियों से हुई, जिनमें रास बिहारी बोस, भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस जैसे नाम भी शामिल थे। वे भारत में रहकर ब्रिटिश सरकार की नजरों से बचना मुश्किल समझने लगे।
इसलिए उन्होंने विदेश जाने का निर्णय लिया। उनका मानना था कि यदि वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समर्थन प्राप्त कर लें, तो ब्रिटिश हुकूमत को कमजोर किया जा सकता है।
1914 में, जब पहला विश्व युद्ध छिड़ा, तो वे अफगानिस्तान, जर्मनी और तुर्की की ओर कूच कर गए। उनका मकसद था भारत के बाहर से एक स्वतंत्र सरकार बनाकर ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती देना।
यहीं से शुरू हुई राजा महेन्द्र प्रताप सिंह की सबसे अनूठी और साहसिक यात्रा—एक निर्वासित राजा, जो अपने वतन को आजाद कराने के लिए पूरी दुनिया घूमने वाला था।
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आगे क्या होगा?
अगले भाग में हम देखेंगे कि कैसे उन्होंने विदेशों में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नया रूप दिया। वे अफगानिस्तान में जाकर भारत की पहली निर्वासित सरकार कैसे स्थापित करते हैं? जर्मनी और तुर्की से क्या समर्थन मिलता है? और ब्रिटिश सरकार उन्हें पकड़ने के लिए क्या साजिशें रचती है?
( भाग 2 जल्द आएगा... )