रमिया की आँखों के आगे सब धुंधला था। गिरने की उस एक घटना ने जैसे उसकी पूरी दुनिया को हिला दिया था। गाँव के बाहर की ढलान पर ईंटों का एक छोटा ढेर पड़ा था, वहीं से लौटते वक़्त उसका पैर फिसला और पीठ के बल गिरी। कमर में अजीब-सी सनसनाहट हुई थी और फिर कुछ महसूस नहीं हुआ।
जब आँख खुली, तो उसने खुद को अस्पताल के सफ़ेद बिस्तर पर पड़ा पाया। चारों ओर अजनबी चेहरे, ट्यूब लाइट की चुभती रौशनी, दवा की कड़वी गंध... और वो सफेद चादर, जिस पर उसकी गरीबी पहली बार आराम कर रही थी।
कमर की जगह पर पट्टी बंधी थी और शरीर की हर हड्डी जैसे चुपचाप सिसक रही थी। लेकिन अजीब बात ये थी कि इस पीड़ा के बीच भी उसके चेहरे पर एक हल्की मुस्कान थी। शायद इसलिए नहीं कि दर्द अच्छा लग रहा था, बल्कि इसलिए कि ये जगह उसके घर से कहीं ज़्यादा शांत और साफ थी।
गाँव में उसका छोटा-सा घर था—मिट्टी की दीवारें, टपकती छत और तीन बच्चे, जिनके पास खाने के लिए हमेशा कुछ कम होता था। पति दिनभर खाँसता रहता और उसे झुंझलाहट में गालियाँ देता। उसे यह सब सहना पड़ता था। पर यहां, इस अस्पताल की चारपाई पर, कोई उसे डाँट नहीं रहा था, कोई उसे काम के लिए नहीं पुकार रहा था।
दर्द तो बहुत था। करवट बदलने की हिम्मत भी नहीं हो रही थी। लेकिन वह चुपचाप बिस्तर की सलवटों को हाथ से महसूस करती रही। कहीं अंदर ही अंदर उसे यह सब अच्छा लगने लगा था। उसे देखने गाँव से लोग आ रहे थे। कोई केला दे गया, कोई नमकीन का पैकेट। बिन्नो चाची ने तो पुराने अखबार में लिपटा पाव भी दे दिया।
“कई दिन बाद कुछ लोग हमसे हाल पूछे...” वह खुद से बुदबुदाई।
हर बार जब कोई आता, तो उसके पास दो मिनट बैठता, हालचाल पूछता, कुछ न कुछ थमा देता और चला जाता। वो थक जाती थी, लेकिन थकान मीठी लगती थी। घर में तो कोई उसके पास बैठने वाला भी नहीं था। यहां हर दिन दो-चार लोग आ जाते थे।
एक दोपहर नर्स दवा दे रही थी, तो रमिया ने पूछ लिया—
“दीदी, एसी कूलर का रेटवा बहुत होई का?”
नर्स हँस पड़ी। “तू क्यों पूछ रही है?”
“सोचते बानी... जिनगी में पहिला बेर एतना ठंढा हवा लागल... घर में त पंखा भी ना बा।”
उसकी आँखें चमक रही थीं, मानो वो किसी महल की रानी बन गई हो। दर्द की लहर कमर से होकर माथे तक उठती थी, लेकिन वो मुस्कुराती रहती। जब डॉक्टर चेकअप करता, तो वो धीरे से कहती—
“अबहीं त ठीक लागत बा... तनिको और दिन रुक जाएँ का?”
डॉक्टर थोड़ा चौंकता, लेकिन उसकी आँखों की सच्चाई देखकर चुप हो जाता।
एक रात उसने आसमान की ओर देखा, अस्पताल की खिड़की से चाँद भीतर झाँक रहा था। वो फुसफुसाई—
“हे भगवान, अगर हम ठीक हो गईं, त पिंकी के पढ़ाई ना रुकने देब।”
फिर उसका ध्यान टूटी हुई चप्पलों पर गया जो बिस्तर के नीचे पड़ी थीं—गाँव से आते समय पहनी थीं। वो सोच रही थी, “ई चप्पल जब टूटल रहे, त कोई ना पूछल, लेकिन अब जब टूट गई हई, त सबके निगाह में आ गई... अइसहीं हमार जिनगी भी बा...”
दूसरे दिन उसके बेटे पिंटू ने झोले में दो समोसे और एक छोटी कोल्ड ड्रिंक लाकर दी। उसके लिए यह पहली बार था। उसने समोसा चखा और आँखों में आँसू भर आए।
“ई समोसा के स्वाद अइसन लागत जैसे कोई सपना खा रहल बानी...”
वो आँसू छुपाते हुए बोली, लेकिन सामने बैठे गाँव के चौधरी के बेटे ने देख लिया। उसने पहली बार रमिया को इंसान की तरह देखा था—ना कि बस एक गरीब औरत की तरह।
कुछ दिनों में उसका दर्द कुछ कम हुआ, और डॉक्टर ने कहा—“अब आप जा सकती हैं।”
उसने चुपचाप बिस्तर पर से उठने की कोशिश की, लेकिन मन कहीं और अटक गया था। वह जानती थी कि अब कोई हाल नहीं पूछेगा। अब कोई केले लेकर नहीं आएगा। अब कोई नमकीन का पैकेट नहीं लाकर उसकी हथेली में नहीं रखेगा।
जब वह बिस्तर से उठी, तो आँखों से आँसू झरने लगे। नर्स ने पूछा—
“बहुत दर्द है?”
उसने सिर हिलाया। “नहीं... अब दर्द नहीं, पर... शायद अब हम फिर अकेली हो जाएँगी...”
डिस्चार्ज पेपर लेकर वह धीरे-धीरे अस्पताल के फाटक की ओर बढ़ी। बैग में केले की खुशबू थी, लेकिन मन में एक खालीपन।
गाँव लौटते वक़्त वही बैलगाड़ी थी, वही धूल भरी सड़क, लेकिन रमिया अब वैसी नहीं थी। उसके भीतर कुछ बदल गया था।
उसने घर पहुँचते ही पिंकी को पास बुलाया और धीरे से कहा—
“बेटी, पढ़ ले... ताकि एक दिन तू अइसन अस्पताल में मरीज़ ना बन के, डॉक्टर बन के बइठ।”
पिंकी ने उसकी गोद में सिर रख दिया और माँ की आँसू भीगे आँचल को अपनी छोटी उँगलियों से सुखाने लगी।
रमिया जानती थी—अब ज़िंदगी फिर से वही होगी—खेत, खाँसी, कर्ज़... लेकिन अब उसके पास एक याद थी... एक एहसास, कि कभी वो भी किसी के लिए खास थी... चाहे कुछ दिनों के लिए ही सही।
उसे देखकर कोई डर गया था, लेकिन वही डर उसके लिए एक अनजानी ख़ुशी बन गया था।
उसने पहली बार जाना था कि दर्द भी कभी-कभी थोड़ा सुकून दे देता है... अगर वो किसी की गोद में सिर रखने जितना नसीब हो।...