गाँव की वो गली जहाँ धूल भी उदास चलती थी, वहाँ दो घर आमने-सामने थे — एक में कविता रहती थी, दूसरे में शालिनी।
कभी-कभी कुछ रिश्ते खून से नहीं, दर्द से जुड़ते हैं — और यही रिश्ता था इन दोनों औरतों का।
कविता ब्याह कर इस गाँव में आयी थी। चेहरे पर तेज़ था, लेकिन आंखों में बीते कल की धुंध भी। शादी बहुत जल्दी कर दी गई थी — माँ नहीं थीं, पिता को समझौते की आदत थी। कविता ने कॉलेज की पढ़ाई पूरी की थी, लेकिन जैसे ही डिग्री हाथ में आई, उसी हाथ में चूड़ियाँ भी डाल दी गईं। ससुराल कोई बुरा नहीं था, पर सपनों की ज़मीन वहाँ भी बंजर थी। उसने शादी से पहले अपने मन में एक सपना बुन लिया था — SBI बैंक में अफसर बनना। नहीं जानती थी कैसे, लेकिन जानती थी कि करना है।
उधर शालिनी, गाँव की अपनी ही बेटी थी। एकदम चुपचाप, लेकिन भीतर कुछ तूफानी। पढ़ाई में तेज़ थी, हमेशा फर्स्ट डिवीजन लाने वाली, और दिल में एक सपना — कि वह B.Ed करके स्कूल में पढ़ाएगी, शायद कॉलेज में।
लेकिन जैसे ही B.Ed का फॉर्म निकलने का वक्त आया, घर में चूल्हा जलाना भी मुश्किल था। माँ ने धीरे से सिर झुका लिया — “बेटी, इस बार नहीं हो पाएगा।”
शालिनी ने बिना कुछ कहे बस अपनी किताबें समेट लीं। रात को छत पर अकेली बैठी थी, एक टूटी डायरी में लिखा — “शायद मैं B.Ed के लिए बनी ही नहीं थी… शायद मुझे कुछ और बड़ा करना है।”
उसी रात उसने एक फ़ैसला लिया — “मैं अब असिस्टेंट प्रोफेसर बनूँगी।”
जिस सपने के लिए B.Ed जैसे रास्ते की ज़रूरत थी, अब वह सीधे उस पहाड़ को चढ़ने का इरादा कर चुकी थी।
कविता को जब यह बात पता चली, वह एकदम चुप हो गई। कुछ देर बाद उसके पास आई और बोली — “पगली, एक सपना छोड़ा और दूसरा उठा लिया?”
शालिनी मुस्कराई — “हाँ दीदी, अब आधे रास्तों पर नहीं रुकूँगी… अब जो भी होगा, आखिरी तक जाऊँगी।”
कविता ने उसे अपने पुराने नोट्स, एक पुराना लैपटॉप और कुछ किताबें दीं — “ये मेरी कमाई नहीं, तेरे सपने की पूँजी है।”
शालिनी ने वह सब संभाल लिया जैसे किसी ने उसे जीने की वजह दी हो।
कविता की कहानी भी किसी दरार भरी दीवार पर खिलते फूल जैसी थी। शादी के बाद ससुराल में रोज़मर्रा की ज़िंदगी ने उसे जैसे खो सा दिया था। लेकिन एक दिन उसने अपने पति से साफ-साफ कहा — “अगर मैं सिर्फ बहू बनकर रह गई, तो मेरी आत्मा मर जाएगी।”
पति ने धीरे से अख़बार का एक टुकड़ा आगे बढ़ाया — SBI क्लर्क की वैकेंसी निकली थी। कविता की आँखें भर आईं — यह शब्दों से ज्यादा भरोसे का इज़हार था।
बच्चों को स्कूल भेजकर, घर का काम निपटाकर, वो किताबों में डूब जाती। अक्सर रोटियाँ जल जातीं, लेकिन सपने पकते रहे। पहले प्रयास में रिजल्ट नहीं आया, दूसरे में लिस्ट में नाम था। जब बैंक से नियुक्ति पत्र आया, तो गाँव में जैसे बिजली की लहर दौड़ गई।
लेकिन कविता जानती थी, यह शुरुआत है। उसने फिर पढ़ाई शुरू की — इस बार SBI PO के लिए। कुछ ने हिम्मत बढ़ाई, कुछ ने ताने मारे — “बहू क्या मैनेजर बनेगी?”
पर कविता ने कान बंद कर लिए और किताबें खोल लीं।
इधर शालिनी की लड़ाई और भी लंबी थी। उसके पास कोचिंग का पैसा नहीं था, किताबें उधार लेती, यूट्यूब से पढ़ाई करती। कई बार बिना इंटरनेट के ही पढ़ती रहती, नोट्स बनाती, और खुद से बात करती — “शालिनी, एक दिन तू क्लास में खड़ी होगी… बच्चे तुझे मैम कहेंगे।”
गर्मियों में जब सब लड़कियाँ नए कपड़े पहनकर घूमने जातीं, शालिनी अपनी पुरानी शॉल में छत पर बैठी होती — पसीने और आँसुओं से भीगी किताबें लिए।
कई बार लगा कि हार जाऊँ, लेकिन तब कविता दीदी की याद आ जाती — जो हर मुश्किल में बस एक बात कहती थीं — “जब दुनिया नीचा दिखाए, तब और ऊँचा सपना देखो।”
वक्त बीतता गया, शालिनी ने NET की परीक्षा दी — पहली बार में नहीं निकली। घरवालों ने कहा — “अब बस कर, कोई और काम देख।”
लेकिन उसने जवाब नहीं दिया, बस उसी टूटी डायरी में लिखा — “अगर एक सपना बार-बार टूटे, तो समझो वो पक्का तुम्हारा ही है।”
कविता ने दूसरी कोशिश में SBI PO क्लियर कर लिया — अब वह अपने गाँव की पहली महिला मैनेजर बन गई थी। जब पहली बार उसने अपने कैबिन में बैठकर साइन किए, तो आँखों में आँसू थे — यह दस्तखत उसके आत्म-सम्मान के थे।
शालिनी ने भी हार नहीं मानी — फिर से तैयारी की, दिन-रात पढ़ा। माँ की तबीयत खराब थी, फिर भी वो किताबें लेकर उनके पास बैठती। दूसरे प्रयास में UGC NET क्लियर हुआ, और फिर एक दिन JRF भी।
और आखिरकार, शालिनी को एक सरकारी कॉलेज में इतिहास की असिस्टेंट प्रोफेसर की नियुक्ति मिल गई।
उस दिन जब दोनों आमने-सामने मिलीं — कविता बैंक से लौट रही थी और शालिनी कॉलेज जा रही थी। दोनों की आँखों में आँसू थे — पर आज कोई उदासी नहीं थी।
शालिनी ने कहा — “दीदी, आज अगर तुम न होतीं, तो मैं हार गई होती।”
कविता बोली — “और अगर तू न होती, तो मैं सपना देखना ही भूल जाती।”
इन दोनों ने एक-दूसरे को सिर्फ सहारा नहीं दिया, एक-दूसरे को फिर से गढ़ा। अब जब गाँव की लड़कियाँ रोती हैं कि घरवालों ने पढ़ाई रोक दी, तो माँ-बाप कहते हैं — “कविता और शालिनी को देखो।”
कभी-कभी ज़िंदगी किताबों से नहीं, रिश्तों से पास होती है। और इन दोनों औरतों ने यह साबित कर दिया कि जब औरतें एक-दूसरे का हाथ थामती हैं, तब इतिहास बदलता है।
अब भी गाँव की गलियों में सूरज वैसा ही उगता है, लेकिन एक फर्क है — अब वहाँ से दो औरतें निकलती हैं, एक बैंक की मैनेजर और दूसरी कॉलेज की प्रोफेसर।
और उनके पीछे चलती हैं वो सारी लड़कियाँ, जिनकी आँखों में अब सिर्फ आँसू नहीं, सपने हैं।...