एक राजा विलासिता और वासना का पुजारी था। उसके लिए जीवन का सुख बस सुंदर स्त्रियों के अधरों की मधुरता और उनके यौवन की कोमलता में समाया था। नगर में कोई भी स्त्री ऐसी न थी, जिसे उसने अपने सामर्थ्य के बल पर अधीन न किया हो।
**परंतु इस बार बात अलग थी।**
यह उस दिन की बात है जब उसने अपने पुत्र के जन्मदिन पर एक भव्य आयोजन किया। समस्त नगर, राजा के वैभव के साक्षी बनने को उमड़ा चला आया। उन्हीं में से एक था उसका सबसे प्रिय मंत्री **आर्यन**, जो अपनी पत्नी **सुमित्रा** संग आया था।
सुमित्रा... जिसका सौंदर्य किसी दुर्लभ रत्न की भांति था। उसके गहरे, रहस्यमयी नयन और चंचल मुस्कान मानो हृदय को छूकर निकल जाती थी। उसकी चाल में ऐसी लय थी, मानो कोई अप्सरा सजीव हो उठी हो। जैसे ही राजा की दृष्टि उस पर पड़ी, उसका शरीर पुलकित हो उठा। वह अवाक् रह गया, उसकी इंद्रियां सुमित्रा के मोहपाश में बंध चुकी थीं।
रात्रि के अंधकार में, जब पूरा नगर निद्रा में था, राजा करवटें बदल रहा था। **वह उसकी कल्पना में था... उसकी त्वचा की गंध, उसके होंठों की कोमलता, उसके शरीर की गर्मी।**
वह अब केवल उसकी चाह में व्याकुल था। उसके पास समर्पण से भरी सैकड़ों स्त्रियाँ थीं, परंतु **सुमित्रा में कुछ ऐसा था जो उसे बेसुध किए दे रहा था।**
**"उसे पाना ही होगा!"** राजा के हृदय में वासना की आग धधक उठी।
### **एक कुटिल योजना**
भोर होते ही राजा ने मंत्री आर्यन को बुलवाया और कहा, **"मुझे तुम पर पूरा विश्वास है। यह पत्र बहुत महत्वपूर्ण है, इसे तुरंत पड़ोसी राज्य तक लेकर जाना होगा।"**
मंत्री नतमस्तक हुआ और बिना कुछ सोचे यात्रा पर निकल पड़ा।
**अब राजा के लिए बाधा समाप्त हो चुकी थी।**
वह स्वयं को सुगंधित इत्रों से महका कर, बारीक रेशमी वस्त्र पहन, घोड़े पर सवार होकर सीधे मंत्री के घर पहुंचा।
### **संग्राम—वासना और संयम का**
जब राजा वहाँ पहुँचा, तब सुमित्रा नहाकर आई थी। उसके गीले केशों से पानी की बूँदें टपक रही थीं। उसका गीला वस्त्र उसके यौवन की हर रेखा को स्पष्ट कर रहा था। राजा की दृष्टि उसके गले के नीचे बहती जलधारा पर जा टिकी।
सुमित्रा ने उसे देखा और कुछ क्षण को ठिठक गई। उसने मुस्कुराकर राजा का अभिवादन किया, परंतु उसके भीतर एक अजीब-सी बेचैनी थी।
**"महाराज अचानक यहाँ?"** उसने पूछा।
राजा ने उसके अभिवादन को स्वीकारा और अपनी निगाहें उस पर जमाए रखीं। **"बस यहीं से गुज़र रहा था, सोचा अपने प्रिय मंत्री की घर-गृहस्थी कैसी चल रही है, देखता चलूँ।"**
सुमित्रा जानती थी कि राजा की दृष्टि साधारण नहीं थी। उसकी आँखों में दबी हुई ज्वाला जल रही थी।
उसने राजा को बैठने का आग्रह किया और आदरस्वरूप उसे भोजन कराया। राजा ने हर कौर के साथ उसकी आँखों में झांकने का प्रयास किया, मानो वे आंखें उसे निमंत्रण दे रही हों।
कुछ देर बाद, राजा धीरे से बोला, **"मैंने अपने जीवन में सैकड़ों सुंदरियाँ देखी हैं, परंतु तुम जैसा सौंदर्य पहले कभी नहीं देखा। तुम्हारी त्वचा चाँदनी से भी अधिक कोमल है, तुम्हारी साँसों में मदिरा की सुगंध है।"**
सुमित्रा स्तब्ध रह गई। **अब वह समझ चुकी थी कि राजा ने जान-बूझकर उसके पति को दूर भेजा है।**
उसने सहजता से उत्तर दिया, **"महाराज, शेर जंगल का राजा होता है, परंतु क्या उसे शोभा देता है कि वह गंदगी में मुंह मारे? न्याय करने वाला यदि अन्याय करने लगे, तो प्रजा किसके पास जाएगी?"**
राजा ठगा-सा रह गया। उसकी वासना की आग को सुमित्रा के संयम ने बुझा दिया।
राजा कुछ क्षण तक देखता रहा, फिर शर्मिंदगी में भर उठा। उसके कदम पीछे हटने लगे।
### **मंत्री की परीक्षा**
उधर, मंत्री आर्यन को याद आया कि राजा का दिया पत्र वह घर पर ही भूल आया था। वह तुरंत अपने घोड़े को मोड़ता है और घर लौट आता है।
घर के बाहर राजा का घोड़ा देखकर उसके शरीर में बिजली-सी कौंध गई। उसने बिना कुछ कहे पत्र उठाया और वापस चल पड़ा।
जब वह राजा के सामने पहुँचा और पत्र सौंपा, तो राजा ने उसे इनाम में बहुमूल्य हीरे दिए। मंत्री ने बिना कोई प्रश्न किए वह अपनी पत्नी को सौंप दिए और कहा, **"यह राजा का दिया उपहार है, जिसे मैं तुम्हारे मायके छोड़ आया हूँ।"**
समय बीतता गया, परंतु मंत्री ने कभी सुमित्रा को वापस बुलाने की चेष्टा नहीं की।
### **राजा का न्याय**
जब बहुत समय बीत गया, तो सुमित्रा के भाई राजा के दरबार में उपस्थित हुए और मंत्री के विरुद्ध शिकायत की।
**"महाराज, हमने इसे एक सुंदर, हरा-भरा बाग सौंपा था, जिसमें मीठे जल का कुआँ था। परंतु इसने उस बाग को त्याग दिया!"**
राजा ने मंत्री से पूछा, **"क्या यह सत्य है?"**
मंत्री ने गहरी सांस ली और कहा, **"महाराज, जब मैं बाग में था, तो मैंने वहाँ शेर के पंजों के निशान देखे। मुझे भय हुआ कि कहीं वह शेर मुझे भी न निगल जाए। इसी कारण मैंने बाग में जाना छोड़ दिया।"**
राजा मुस्कुराया और बोला, **"शेर वहाँ आया अवश्य था, परंतु वह बाग की दीवारों को तोड़ न सका, कोई फल न खा सका, और कुएँ के जल को छू भी न सका। तुम्हारा बाग आज भी सुरक्षित है। जाओ, उसे वापस ले आओ।"**
मंत्री को अपनी भूल का एहसास हुआ। वह तुरंत ससुराल गया और सुमित्रा को ससम्मान अपने घर ले आया।
### **अंत में...**
सुमित्रा ने राजा को जीत लिया था—पर अपनी सुंदरता से नहीं, बल्कि अपने आत्मबल से।
राजा ने उस दिन जाना कि **जिस स्त्री का आत्मसम्मान अडिग होता है, उसे शक्ति से नहीं, बल्कि सम्मान से ही पाया जा सकता है।**
राजा के हृदय में पहली बार कामना से अधिक श्रद्धा जन्मी थी।
End...