mahakali and mahadev in Hindi Mythological Stories by Rakesh books and stories PDF | महाकाली और महादेव

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महाकाली और महादेव


### **अध्याय 1 – अधर्म की छाया**  


रात्रि का तिमिर गहन हो चुका था। आकाश में तारे बुझते-से प्रतीत हो रहे थे, और दिशाएँ भय से सिमट रही थीं। देवताओं के लोक में एक असहज सन्नाटा व्याप्त था। कैलाश पर्वत पर स्थित महादेव की जटाओं से मंद्र सरिता प्रवाहित हो रही थी, किन्तु प्रकृति के इस सौंदर्य के विपरीत, सृष्टि के संतुलन में कुछ विषमता आ चुकी थी।  


मृत्युलोक में त्रासदी का नया अध्याय आरंभ हो चुका था। भयंकर राक्षसों की एक नयी सेना जन्म ले चुकी थी, जो पहले से कहीं अधिक बलशाली और क्रूर थी। वे केवल रक्तपिपासु ही नहीं, बल्कि सिद्धियों और मायावी शक्तियों से भी संपन्न थे। इस बार वे अकेले नहीं थे—वे समूह में थे, संगठित थे, और उनका नेतृत्व कर रहा था एक राक्षस सम्राट – **अंधकासुर**।  


### **अंधकासुर का उदय**  


अंधकासुर, वह राक्षस जो घने अंधकार से जन्मा था, अपनी क्रूरता और मायावी शक्ति के कारण समस्त लोकों में भय का कारण बन चुका था। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने उसे एक ऐसा वरदान दिया था, जिसने उसे लगभग अजेय बना दिया। उसे यह आशीर्वाद प्राप्त हुआ कि जब भी कोई उसे मारने का प्रयास करेगा, उसके रक्त की प्रत्येक बूंद से एक नया राक्षस जन्म लेगा।  


इस वरदान से उत्साहित होकर अंधकासुर ने अपने महल **क्रूरगुहा** में अन्य असुरों को एकत्र किया। उसके साथ थे –  


- **कालनेमि** – मायावी छल-प्रपंच में निपुण।  

- **वज्रदंत** – जिसका शरीर वज्र के समान कठोर था।  

- **महाभय** – जो अपनी गर्जना मात्र से नगरों को ध्वस्त कर सकता था।  

- **क्रोधासुर** – जिसके क्रोध से अग्नि भी जलने लगती थी।  

- **रक्तवज्र** – जो युद्ध में अमर था जब तक उसका स्वयं का रक्त भूमि पर न गिरे।  


### **देवताओं का भय और महादेव की शरण**  


अंधकासुर और उसकी सेना ने यज्ञों को विध्वंस करना प्रारंभ कर दिया। ऋषियों के आश्रम जलने लगे, नगरों पर अत्याचार बढ़ने लगे। भयभीत देवता महादेव की शरण में पहुँचे।  


इंद्र, अग्नि, वरुण और वायु कैलाश पर्वत पर पहुँचे और महादेव को प्रणाम कर बोले—  


*"प्रभो! अधर्म बढ़ रहा है। अंधकासुर और उसके राक्षस हमारे लोकों को नष्ट कर रहे हैं। उनका संहार केवल आप ही कर सकते हैं।"*  


महादेव ने गंभीर स्वर में कहा—  


*"धैर्य रखो, समय आ गया है। जब अधर्म अपनी सीमा लांघेगा, तब संहार आवश्यक होगा।"*  


इसी क्षण, देवी पार्वती ने अपने भीतर की महाकाली शक्ति को जाग्रत किया। उनका स्वर गूंज उठा—  


*"जब राक्षसों ने रक्तबीज को जन्म दिया था, तब भी मैं काली रूप में प्रकट हुई थी। अब समय आ गया है कि मैं पुनः तांडव करूँ!"*  


### **महाकाली का आह्वान**  


देवी पार्वती ध्यानमग्न हुईं और उनकी देह से एक अत्यंत प्रचंड शक्ति उत्पन्न हुई। आकाश में काले बादल घिर आए, दिशाओं में भय व्याप्त हो गया। एक तीव्र प्रकाश के साथ महाकाली प्रकट हुईं—गले में नरमुंडों की माला, हाथों में खड्ग और त्रिशूल, क्रोध से दहकती हुईं।  


*"अंधकासुर और उसके रक्तबीजों का अंत होगा! यह मेरी प्रतिज्ञा है!"*  


कैलाश पर्वत पर देवी काली का तांडव प्रारंभ हुआ। देवता श्रद्धा से नतमस्तक हो गए।  


### **अगला अध्याय:** *युद्ध का प्रारंभ*  


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### **अध्याय 2 – रक्तबीज का प्रकोप**  


रात्रि के गहन अंधकार में आकाश बिजली की गड़गड़ाहट से कांप रहा था। महाकाली का तांडव प्रारंभ हो चुका था। उनके क्रोध से दिशाएं दहल उठीं, पर्वत थरथरा गए, और समुद्र उफान मारने लगा। देवताओं की सेना भी इस महायुद्ध के लिए संगठित हो रही थी, किन्तु अंधकासुर की शक्ति केवल उसकी माया में ही नहीं, बल्कि उसके भयानक सेनानायकों में भी थी।  


कैलाश से महाकाली अपने महायुद्ध के लिए प्रस्थान करने ही वाली थीं कि अचानक आकाश में एक काला बादल फूट पड़ा। चारों दिशाओं में रक्त की बूंदें बरसने लगीं। यह कोई सामान्य वर्षा नहीं थी—यह था **रक्तबीज का पुनर्जन्म**।  


### **रक्तबीज का पुनर्जन्म**  


रक्तबीज—वह राक्षस जिसने पहले भी देवताओं के लिए असाध्य संकट खड़ा किया था—अब अंधकासुर की शक्ति से पुनः प्रकट हुआ। इस बार वह पहले से अधिक बलशाली था। उसके भीतर अब अंधकासुर के वरदान का प्रभाव भी था, जिससे उसकी रक्त की प्रत्येक बूंद से असंख्य नए राक्षस उत्पन्न होते जा रहे थे।  


अंधकासुर ने अपनी मृदुल, परंतु भयावह हंसी के साथ कहा—  

*"महाकाली, तुमने मुझे हराने का प्रयास किया था, परंतु अब मैं और अधिक शक्तिशाली हूँ। मेरा रक्त इस बार तुम्हारे लिए मृत्यु का दूत बनकर आएगा!"*  


रक्तबीज ने अपना विशाल खड्ग उठाया और युद्ध भूमि में कूद पड़ा।  


### **युद्ध का प्रारंभ**  


महाकाली ने त्रिशूल उठाया और विद्युत गति से रक्तबीज की ओर बढ़ीं। उनके प्रहार से धरा कांप उठी, पर्वत दरक गए और सागर उफन पड़ा। रक्तबीज ने अपनी तलवार से प्रहार किया, किंतु महाकाली ने उसे अपने खड्ग से रोका।  


देवताओं की सेना भी युद्ध में कूद पड़ी। इंद्र अपने वज्र से आक्रमण कर रहे थे, अग्नि देव प्रचंड लपटें छोड़ रहे थे, और वायु देव आंधियों से राक्षसों को गिरा रहे थे। किंतु रक्तबीज की शक्ति अद्भुत थी—वह जितना घायल होता, उतना अधिक शक्तिशाली बनता जाता।  


महाकाली ने जैसे ही रक्तबीज का सिर काटा, उसकी रक्त की बूंदें धरती पर गिरते ही असंख्य नए रक्तबीज उत्पन्न हो गए। कुछ ही क्षणों में पूरा युद्धक्षेत्र राक्षसों से भर गया।  


### **महादेव का निर्देश**  


कैलाश पर स्थित महादेव ने यह दृश्य देखा और गंभीर स्वर में कहा—  

*"इस युद्ध को बल से नहीं, चातुर्य से जीता जाएगा।"*  


महाकाली ने महादेव के वचन सुने और एक योजना बनाई। वह रक्तबीज की ओर बढ़ीं, किंतु इस बार उनके नेत्रों में केवल क्रोध नहीं, अपितु एक दिव्य योजना भी थी।  


उन्होंने धीरे-धीरे अपनी जिह्वा बाहर निकाली। उनका स्वर गूंज उठा—  

*"इस बार रक्त भूमि पर नहीं गिरेगा!"*  


### **अगला अध्याय:** *महाकाली का तांडव*  


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### **अध्यक्ष 3 – महाकाली का तांडव**


रक्तबीज के प्रत्येक रक्त कण से उत्पन्न होते राक्षसों की संख्या ने युद्धक्षेत्र को अपार अराजकता में तब्दील कर दिया। पृथ्वी पर संघर्ष की गूंज, आकाश में बिजली की गड़गड़ाहट, और समुद्र के उफान के बीच महाकाली का रूप पहले से भी भयंकर हो गया। उनका काला रूप, जो स्वयं अंधकार का प्रतीक था, युद्धभूमि पर विकराल हो चुका था।


महाकाली के नेत्रों में आग की लपटें उठ रही थीं और उनके शरीर से त्रिशूल, खड्ग, तथा अन्य दिव्य शस्त्र निकलकर राक्षसों के वध में लीन हो गए थे। उनकी छवि अब केवल एक देवी की नहीं, बल्कि सर्वशक्तिमान काली के रूप में थी, जो अपनी क्रोधी उग्रता से सारे असुरों का संहार कर रही थी।


लेकिन रक्तबीज की शक्ति दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही थी। उसके राक्षस महाकाली के प्रहार से मरने के बजाय पुनः पैदा हो जाते थे। युद्ध की स्थिति एक भयंकर संकट में तब्दील हो गई। महाकाली की शक्ति और रक्तबीज की माया के बीच संतुलन बनाए रखना लगभग असंभव सा लगने लगा।


महादेव ने यह दृश्य देखा और महाकाली को आवाज दी, *"तुम्हारी शक्ति अपार है, लेकिन यह युद्ध तुम अपने बल से नहीं, अपनी चातुर्य से जीतोगी। अब तुम्हारी योजना का समय आ गया है।"*  


महाकाली ने महादेव के आदेश को माने और ध्यान में लीन हो गईं। उनका रूप और भी विकराल हो गया, जैसे वे केवल एक विध्वंसक रूप में लहराई हों। लेकिन भीतर, उनकी मस्तिष्क में एक अद्वितीय योजना उभरने लगी।


उनकी आंखों से लाल रेखाएं फूटीं, और उनकी आवाज ने पूरी पृथ्वी को कम्पित कर दिया। *"रक्तबीज, तुम जितना अधिक फैलोगे, उतना ही अधिक संहार तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है!"*  


महाकाली ने एक तेज़ नृत्य प्रारंभ किया—उनके कदमों की ध्वनि, जैसे हर कदम पर धरती टूटती थी। उनका तांडव अब केवल क्रोध का प्रतीक नहीं, बल्कि एक दिव्य युग का संकेत बन चुका था। उनकी नृत्य गति से रक्तबीज की शक्ति का स्रोत भी हिलने लगा। 


महाकाली का तांडव, जो पहले एक विनाश था, अब उस शक्ति को स्वयं नष्ट करने के लिए एक साधना में बदल गया। हर कदम के साथ रक्तबीज का अस्तित्व कमजोर होता गया। उनके हर नृत्य के साथ, असंख्य राक्षसों के अस्तित्व का अंत होता गया।  


रक्तबीज की सेना बिखरने लगी, और अंततः स्वयं रक्तबीज भी महाकाली के तांडव के सामने धराशायी हो गया। उसकी शक्ति का स्रोत—उसका रक्त—अब समाप्त हो चुका था।  


लेकिन युद्ध का समापन सिर्फ रक्तबीज के मृत्यु से नहीं हुआ था। महाकाली का तांडव, पूरे ब्रह्मांड में एक चेतावनी बनकर गूंज गया कि कोई भी शक्ति, चाहे वह कितनी भी विकराल क्यों न हो, महाकाल की सत्ता के आगे कुछ भी नहीं है।  


### **अगला अध्याय:** *अंधकासुर की हार*  


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अब युद्ध के परिणाम का संकेत मिलने वाला है। महाकाली का तांडव, जो सिर्फ रक्तबीज तक सीमित था, क्या अब अंधकासुर की ओर बढ़ेगा? क्या वह भी महाकाली के हाथों नष्ट होगा?













### **अध्यक्ष 4 – अंधकासुर की हार**


महाकाली का तांडव समाप्त होने के बाद, युद्धभूमि में एक चुप्पी छा गई थी। रक्तबीज का अस्तित्व समाप्त हो चुका था, और उसके साथ ही उसकी सेना भी बिखर गई थी। लेकिन इस सफलता के बावजूद महाकाली का क्रोध थमने का नाम नहीं ले रहा था। उनके भीतर की शक्ति अब भी उफन रही थी, क्योंकि अंधकासुर, जो इस संहार का असली कारण था, अभी भी जीवित था और उसने महाकाली की शक्ति का सामना करने के लिए पूरी सेना को तैयार कर लिया था।


अंधकासुर अपने महल में बैठा था, उसकी आंखों में घृणा और क्रोध का तूफान था। वह महाकाली के तांडव से भयभीत नहीं हुआ था, बल्कि उसने अपनी शक्ति और माया के द्वारा महाकाली को चुनौती देने का निर्णय लिया।  


अंधकासुर की योजना बहुत गहरी थी। उसने अपनी शक्तियों को और अधिक बढ़ाया, और अपनी माया से पूरे युद्ध क्षेत्र को एक भ्रमित संसार में बदल दिया। उसने महाकाली को एक ऐसे स्थान पर भेज दिया जहाँ सत्य और असत्य का फर्क मिट गया था। अंधकासुर की माया ने महाकाली को भ्रमित कर दिया, और वह खुद को एक ऐसे बंधन में फंसा हुआ महसूस करने लगी, जहाँ से निकलने का कोई मार्ग न था।


महाकाली ने महसूस किया कि अब युद्ध सिर्फ बाहरी संघर्ष का नहीं, बल्कि आंतरिक संतुलन का भी हो गया है। वह यह समझने लगीं कि अंधकासुर की असली ताकत उसकी माया में है, न कि उसकी शारीरिक शक्ति में।  


महाकाली ने अपनी आंखें बंद कीं और ध्यान की गहराई में चली गईं। एक पल के लिए, सब कुछ शांत हो गया। उनके भीतर की दिव्य बुद्धि ने अंधकासुर की माया को पहचान लिया। वह माया अब केवल एक छलावा बन चुकी थी, जो महाकाली के दिव्य ज्ञान के सामने टिक नहीं सकती थी। 


महाकाली ने अपनी शक्तियों को संचित किया और अपने त्रिशूल को पुनः धारण किया। उनकी ऊर्जा अब असीम थी, क्योंकि उन्होंने न केवल बाहरी शत्रु को बल्कि अपने भीतर के भ्रम और माया को भी पार किया था। वह आकाश में उड़ती हुई अंधकासुर की महल की ओर बढ़ीं।


अंधकासुर ने महाकाली को अपनी माया में फंसा हुआ समझा, लेकिन जैसे ही महाकाली ने त्रिशूल से एक प्रचंड आक्रमण किया, उसका महल और माया दोनों ही नष्ट हो गए। अंधकासुर का शरीर भी महाकाली के प्रहार से झुलसने लगा, और वह विवश होकर गिर पड़ा।  


महाकाली ने त्रिशूल से अंधकासुर का सिर काट दिया, और उसकी अंतिम चीख पूरी पृथ्वी में गूंज उठी। उसकी माया, उसकी सेना, और उसकी शक्ति सब समाप्त हो गए।  




अंधकासुर की मृत्यु के साथ, महाकाली ने युद्ध समाप्त किया। संपूर्ण ब्रह्मांड में शांति का संचार हुआ, और देवता फिर से अपनी धरती पर लौट आए। महाकाली ने अपने तांडव को समाप्त कर दिया और शांत रूप में प्रकट हुईं। उनके चित्त में अब केवल शांति और संतुलन था।  


महाकाली ने महादेव से मिलकर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। देवता और पृथ्वी के प्राणियों ने उनकी आरा

धना की और उनकी कृपा से जीवन को पुनः संजीवनी प्राप्त हुई। महाकाली का रूप अब केवल संहारक नहीं, बल्कि रक्षक और समर्पण का भी प्रतीक बन चुका था।  




समाप्त....