उस समय कोई मदद की उम्मीद करना बेकार था । अभी तक एक भी गाड़ी उन्हें नहीं मिली थी और न ही आस-पास किसी बस्ती के होने का कोई अंदेशा था।
राज शांति को भंग करते हुए बोला " इस समय यहाँ इस वीरान और सुनसान जगह पर खड़े रहने से तो अच्छा है कि हम ढाबे तक गाड़ी को धकेल कर ले चलें। शायद वहाँ हमें कोई मदद मिल जाये।"
"सही कहा और हो सकता है वहाँ हमारे मोबाइल पर नेटवर्क भी मिल जाये, तब हम किसी तरह मदद की उम्मीद कर पाएंगे" मुकेश ने राज की बात का समर्थन करते हुए कहा।
बाकी दोनो दोस्त भी राज की बात का समर्थन करते हुए पैदल ही गाड़ी को धक्का लगाते हुए आगे बढ़ने लगे। रास्ते में उन्हें झींगुर और कई प्रकार के पतिंगों की आवाजें आ रही थीं जो इस माहौल को और भी ज्यादा डरावना बनाने का काम कर रही थीं।
करीब 40-45 मिनिट तक चलते-चलते ढाबा दिखाई देने लगा। अगले पाँच मिनिट बाद ही चारों दोस्त ढाबे पर थे। अपनी गाड़ियों को ढाबे के सामने लगाकर, सामने पड़ी खाट पर आराम से बैठ गए। तकरीबन 15 मिनिट बाद रास्ते की थकान के कुछ कम होने पर विशाल ढाबे के नौकर को आवाज देने लगा, पर ढाबे के अंदर से किसी ने भी उनकी आवाजों का उत्तर नहीं दिया।
सुरेश ढाबे की तरफ देखते हुए बोला " लगता है इस समय तक सभी लोग ढाबा बंद करके चले जाते होंगे"
"पर किसी को तो ढाबे और यहाँ के सामान की सुरक्षा के लिए रखा होगा" विशाल सुरेश की बात को काटते हुए बोला।
"और वैसे भी इन 30 किलोमीटर के अन्दर इस ढाबे के अलावा कुछ भी नहीं है, तो रात में ट्रक वालों के लिए या सवारी गाड़ियों के खाने-पीने की व्यवस्था के लिए किसी को तो रख छोड़ा होगा" सुरेश अपनी बात को आगे बढ़ते हुए कहता है।
राज और मुकेश भी अब तक उठ कर खड़े हो गए थे, चारों अलग-अलग होकर ढाबे के आसपास देखने लगते हैं कि शायद कोई नौकर हो जो शायद सो रहा हो। पर काफी देर तक देखने के बाद भी उन्हें वहाँ कोइ नज़र नहीं आता। सुरेश और मुकेश ढाबे के रसोई घर की तरफ जाते हैं और खाने के लिये सामान ढूंढने लगते हैं।
मुकेश तेज आवाज में कहता है "भाइयों यहाँ कोई नौकर तो नहीं है पर हमारी पेट पूजा के लिए सब्जी, आटा, मसाले और बाकी सभी कुछ मौजूद है, क्यों न हम खुद ही कुछ बना लें"
"पर क्या ये सही होगा? मेरा मतलब की अगर कोई आसपास कहीं गया होगा या ढाबे के अंदर होगा तो वो हमें चोर न समझ बैठे" सुरेश ने अपनी शंका जाहिर करते हुए कहा।
विशाल थोड़े गुस्से के लहजे में बोला " तो क्या करें? यहाँ तो कोई दिखाई नहीं देता, अगर कोई होता तो हमारी आवाज का तो उत्तर देता। मुझे नहीं लगता यहाँ कोई होगा"
विशाल और सुरेश की बातों को सुनकर राज ने समाधान निकालते हुए कहा " मेरे खयाल में तो तुम दोनों की ही बातें अपनी-अपनी जगह पर सहीं हैं, हम में से कोई दो लोग खाने की तैयारी करेंगे और बाकी दो लोग ढाबे के अंदर और बाहर अच्छे से देखेंगे शायद कोई मिल जाये। अगर कोई मिल गया तो उसे सारी बात बताकर उससे मदद मांगेंगे और अगर कोई नहीं मिला तो खाना खा कर सुबह तक आराम करेंगे और चलते समय सब्जी की टोकनी में कुछ रुपये रख देंगे।"
सभी सर हिलाकर राज की बात का समर्थन करते हैं, पर अब बात थी कि कौन रुककर खाना बनाएगा। इस बात का हल निकालते हुए मुकेश ने सभी से कहा कि "मैं और सुरेश खाना बनाने का काम करेंगे, वैसे भी राज और विशाल इस काम में कच्चे हैं तो तुम दोनों जाकर ढाबे का मुआयना करो और देखो की कोई हमारी मदद के लिए यहाँ है या सिर्फ हम चारों ही रात भर इस ढाबे की शोभा बढ़ाने वाले हैं"।
सभी मुकेश की बात पर हँसते हैं और अपने-अपने काम में लग जाते हैं। मुकेश और सुरेश खाना बनाने की तैयारी में लग जाते हैं। राज और विशाल मोबाइल की टॉर्च चालू कर पहले ढाबे के आसपास देखने के लिए निकल जाते हैं।
ढाबा देखने में आम ढाबों की तरह ही है पर ये दूसरे ढाबों से कहीं अधिक बड़ा और पुराना लगता है, ये तकरीबन 2 एकड़ के हिस्से में फैला हुआ है। सामने की तरफ के भाग में 10-12 खाट पड़ीं हैं जो निश्चित ही वाहन चालकों के आराम करने के लिए होंगी। अंदर बरामदे पर 12-15 जोड़ी कुर्सी-टेबल लगे हुए हैं। ढाबे के वीरान और सुनसान जगह होने पर भी यहाँ किसी जंगली जानवर की आवाज तक नही है, और न ही ढाबे को देखकर डर महसूस हो रहा है।
चारों तरफ अच्छे से देखने के बाद राज और सुरेश ढाबे के अंदर बनें कमरों को देखने का फैसला करते हैं। एक - एक करके सारे कमरों को बारीकी से देखने के बाद वो एक कमरे के बाहर आकर ठिठक जाते हैं, क्योंकि इस कमरे के अंदर से कुछ उजाला दरवाजे के नीचे से बाहर आता दिख रहा था, दरवाजे से ही अगरबत्ती और कपूर की खुश्बू को आसानी से सूंघा जा सकता था।
राज और सुरेश दरवाजे को धक्का देकर खोलने की कोशिश करते हैं, पर दरवाजा नहीं खुलता, तब सुरेश अपने मोबाइल के टॉर्च की रोशनी दरवाजे पर डालता है, दरवाजे को देख कर दोनों ही आश्चर्य में पड़ जाते हैं। दरवाजे की कुंडी बाहर से लगी हुई है और देखने पर ऐसा लग रहा है जैसे इस दरवाजे को कई सालों से किसी ने नहीं खोला होगा, क्योंकि दरवाजे की कुंडी पर दीमक अपना घर बनाये हुए है। चारों तरफ मकड़ी के जाले इस तरह से लगे हैं मानो उन्हें पता है कि इस जगह से कोई भी उन्हें अलग नहीं करेगा।
पूरा दरवाजा काले रंग का है और उसका ऊपरी भाग चौखट लाल रंग की है, दरवाजे पर दो नागों की आकृति बनी हुई है जिसमें एक नाग का शरीर दरवाजे के एक पलड़े पर है और साथ वाले नाग को घेरते हुए उसका मुँह दरवाजे के दूसरे पलड़े पर है, ऐसे ही दूसरा नाग का भी धड़ दूसरे पलड़े पर और मुँह पहले पलड़े पर है। दरवाजे पर संस्कृत में पीले रंग शायद हल्दी से कुछ लिखा हुआ है "अयं स-विकल्पकः समाधिः" चौखट के ऊपर भी जहाँ कुण्डी लगी है वहाँ लिखा है "अहम शयनं"।
सुरेश उस दरवाजे को खोलने की कोशिश करता है, राज उसे रोकता है पर सुरेश की जिद और खुद के जिज्ञासु मन की वजह से राज मान जाता है। अब दोनों ही जिज्ञासा बस अंदर देखने के लिए दरवाजा खोलते हैं, अंदर का दृश्य देखकर राज एक हाँथ से सुरेश को आगे बढ़ने से रोकता है।
कमरे के अंदर सिंदूर और हल्दी से एक अजीब सा चौक बना हुआ है, चौक के चारों ओर कुछ-कुछ अंतराल से निम्बू रखे हुए हैं। पास ही धूप और अगरबत्ती जल रही है, एक बड़ा दीपक उस चौक के बीचों-बीच जल रहा है। देखने से ऐसा लग रहा है कि ये सारा उपक्रम किसी तंत्र क्रिया के प्रयोग के लिए किया गया है। पर इस दरवाजे को देख कर तो ऐसा नहीं लगता कि कोई सालों से यहां आया होगा और न ही इस कमरे में कोई दूसरा दरवाजा या खिड़की है। कमरे में एक बड़ी लोहे की आदमकद पेटी रखी है जिस पर सिंदूर से ॐ का चिन्ह बना हुआ है। पूरे कमरे में बहुत ही ठण्डी हवा चल रही है जिससे राज और सुरेश के दाँत बजने लागतें हैं, पर आश्चर्य है कहीं कोई खिड़की नहीं है और ये कमरा भी मुख्य दरवाजे से बहुत अंदर है, और वैसे बाहर भी इतनी ठण्ड नहीं है।
राज को कमरे का माहौल सही नहीं लगता वो सुरेश से कुछ कहता इससे पहले ही अचानक वहाँ जल रहा दीपक एकाएक फफक कर बुझ गया और अगरबत्ती की खुश्बू की जगह अजीब सी सड़न जैसी गंध पूरे कमरे में फैलने लगी। एक तेज हवा के झोंके ने सिंदूर और हल्दी से बने चौक और पेटी पर बनी ॐ की आकृति को मिटा दिया। राज किसी अनहोनी की आशंका से सुरेश का हाँथ पकड़ कर दरवाजे की तरफ दौड़ लगा देता है। दरवाजे को यथावत लगाने के बाद दोनों बाहर की तरफ जहाँ विशाल और मुकेश खाना बना रहे थे वहां पहुंच जाते हैं।
मुकेश इन दोनों को प्रश्नवाचक नज़रों से देखते हुए पूछता है "क्या हुआ, तुम दोनों ऐसे हाँफ क्यों रहे हो?
"कुछ नहीं, हम दौड़ रहे थे इस वजह से" राज ये कहते हुए सुरेश को चुप रहने का इशारा करता है।
" कोई मिला या नहीं भाई" विशाल ने रोटी सेकते हुए पूछा।
राज ने माहौल को थोड़ा सामान्य करने के लिए शायराना अंदाज में उत्तर दिया ...
"हमें वो मिला जो कमबख्त, अब तक किसी को न मिला।
पर क्या कहूँ यारों, चाह थी जिसकी वो अब तलक न मिला।।"
सभी राज की शायरी सुन कर हँसने लगते हैं। कुछ देर में खाना बन कर तैयार हो जाता है।
चारों खाना खा कर सोने का सोचते हैं। पर मुकेश कहता है कि सभी का एक साथ सोना सही नहीं होगा, हम सभी बारी-बारी एक-एक करके जाग कर रात में ध्यान रखेंगे की कोई जंगली जानवर या कुछ और कोई दिक्कत न कर दे। सभी मुकेश की बात मान जाते हैं। सबसे पहले मुकेश ही पहरा देता है बाकी तीनों सो जाते हैं।
एक काला स्याह साया सुरेश की खाट के चारों ओर चक्कर लगा रहा है, उसके तेजी से चक्कर लगाने और बार-बार हाँथ हिलाने की बजह से चूड़ी और पायल की आवाज भी आ रही है जिससे लगता है कि ये किसी औरत का साया है पर तभी वो साया विशाल के बिल्कुल ऊपर आकर मर्दाना आवाज में विशाल से कहता है "तुम सड़ चुके हो, तुम्हारा शरीर सड़ रहा है"
ठीक उसी समय विशाल एक भारी-भरकम मगर गम्भीर आवाज सुनता है जो उसके बिल्कुल पास ही आती जा रही है और बार-बार उससे कहा रही है "तूने मुझे जगा कर अच्छा नहीं किया"
इधर राज इन दोनों की इस दशा को देख कर और दोनों के पास भूत देख कर डर से काँप रहा है।
क्रमशः अगला भाग......"