सब कहते हैं सबके कायदे में रहोगे तो सबसे ज्यादा फायदे में रहेंगे, जिसे देखों वह जाने-अंजाने बस यहीं समझाने में लगा हैं, अपने कामों के माध्यम से ..।
और पता हैं सब का कायदा क्या हैं ..? सभी के कायदे का गणित बस इतना सा हैं कि जो भी हमारे संबंधी हैं, अधिक संबंधी से दूर के संबंधी की ज्यादा से कम के क्रम में, सबको दूर के संबंधियों से जितने ज्यादा हो सके और जो जितने पास का संबंधी मालूम पड़े उससे उतने कम के क्रम में ऐसे ज्यादा से कम के क्रम में सबकी मजबूरी का फायदा उठाओ और वो इसलिए कि यदि तुमने ऐसे सबसे उनकी मजबूरी का फायदा नहीं उठाया तो सब फिर भी तुम्हारी मजबूरी का फायदा उठा लेंगे और तुम्हारे पास बस रह जायेगा नुक्सान; बहुत बड़ा घाटा।
और पता हैं मेरा बस एक ही कायदा हैं कि कोई मेरी मजबूरी का फायदा उठाए न उठाए पर मैं किसी की मजबूरी का उसे चेष्ठा पूर्वक या अंजाने भी जितना हो सके उतना न किसी को खुद पर निर्भर करके उनकी मजबूरी का फायदा उठाऊं और न ही किसी पर भी निर्भर रह करके उसे मेरी मजबूरी का फायदा उठाने दू,
खुद तो खुद पर निर्भर बनू ही सबको भी खुद पर ही निर्भर बनाऊं क्योंकि यह सच्चाई हैं कि कोई भी किसी पर भी निर्भर रहा तो सब एक दूसरे के समान अनुपात में मजबूर रहेंगे पर फायदे में कोई भी नहीं रहेगा और वो ऐसे कि ..
सीधा साफ गणित हैं कि कमानी खुद पर निर्भरता ही हैं क्योंकि सब क्षण भंगूर हैं, अभी इस वक्त वर्तमान में हैं और आगे रहे न रहें, जो वर्तमान में सदा रहेगा वो भूत में भी था और भविष्य में भी सदैव रहेगा पर जो अभी नहीं और हैं भी, मानो तो है नहीं तो नहीं भी हैं और मानने यानी मन के नियंत्रण में हम जितने होते हैं उतना वो ठहरता हैं नहीं तो आज हैं और कल नहीं, यानी जितना ठहरा उतना ही जाने का भी पूरा आश्वासन हैं क्योंकि परिवर्तन संसार का शाश्वत यानी सदैव सिद्ध होता नियम हैं ऐसा सिद्ध अंत अर्थात् निष्कर्ष हैं अतएव जो भौतिकी से यानी भौतिक मस्तिस्क मन और हर भौतिक संबंधित चीजों से परे हैं वो ही इकलौता रहने वाला हैं सदैव और वह और कोई नहीं बल्कि हमारा सेल्फ अर्थात् स्व हैं यही वह हमारा अहम हैं यानी वह हम यानी हमारा वजूद जो हैं ही नहीं यानी जिस तरह भौतिक इंद्रियों से यानी भौतिक दुनियाओ में हम न सुन सकते है, न कह सकते, न स्पर्श करके, न सूंघ सकते तथा स्वाद भी नहीं लें सकते और ऐसा ही सपने में भी जिसे नहीं किया जा सकता हैं, जो अकारण अज्ञात होकर भी ठीक ऐसे ही स्पष्ट हैं जैसे हम हमारी उपस्थिति को साबित नहीं कर पाते जो भौतिकता या भौतिक शरीर और मन के हर आयामों यानी एहसासों से परे का अहसास हैं मगर हम अभी इस वक्त भी उसे जितनी स्पष्टता से महसूस कर पा रहे हैं उतनी स्पष्टता से तो हम कोई भौतिक इंद्रियों या अन्य एहसासों से अनुभव होने वाले अनुभवों को भी नहीं अनुभव कर पाते, वो भौतिक शरीर में आता है, उसे चलाता हैं ऐसे ही भावनात्मक, तार्किक, स्मरणात्मक, दूर दर्शी आदि इत्यादि मानने पर आधारित हर दायरे को हमारे चलाता हैं, जिसके बगैर हमारा हर विश्व, मेरी समझ यानी अनुभव में हमारा हर अहसास एक अति सीमित विश्व समान हैं उस भौतिक शारीरिक अनुभव करने वाले अनुभव की अनुपस्थिति में मृत शरीर के समान हैं, जो भौतिक क्या अपितु हमारे हर शरीर की चाहे वह स्थूल, सुक्ष्म या कारण ही क्यों न हों, भौतिक इंद्रियों से लेकर मानसिक किसी भी इंद्रि का अनुभव क्यों नहीं करवाने वाला हो, वो सब का मूल होने से हमारी वह मौलिकता यानी हकीकत हैं जो हमारे हर अहम यानी मिथक हम जो हैं, जो हमारा आज हैं और कल नहीं ऐसे हर क्षण भंगूर हम या हमारे अज्ञान को आकार देने वाला यानी धारण कर्ता इकलौता ज्ञान होने से शुद्ध हम जो हैं ऐसा हमारा अहसास हैं, उस अहसान पर ही निर्भरता को ही सही मतलब की आत्म निर्भरता जानने के फल स्वरूप मानूंगा में, क्योंकि वहीं इकलौता इतना संपन्न हैं कि जो सच्चा सौदा यानी जितना चाहिए उतना फायदा दें सकता हैं किसी भी जरूरतमंद के लिए, क्योंकि यदि बात जरूरत की हैं तो हमारा महत्वाकांक्षी होना इतना तो आवश्यक हैं ही कि हम शून्य निवेश में यानी हमारे शून्य समय को निवेश करके, और वो भी ऐसे समय को जो कि शून्य गुणवत्ता वाला और मात्रा में भी शून्य हैं ऐसे समय को निवेश करने पर भी हमें अति सीमित यानी पूर्ण अर्थात् पर्याप्त फायदा दें, हम क्यों किसी और पर यानी हमारे भौतिक दायरों से लेकर के मानसिक आंतरिक और बाहरी दायरों पर खुद के और दूसरों के निर्भर हैं, हमें न उनको हम पर निर्भर करना हैं और न ही उन पर निर्भर भी होना हैं यदि हमें सच्चा सौदा करना हैं क्योंकि हम किसी को खुद पर निर्भर करे या कोई हमें खुद पर भी निर्भर करे हमारा पराधीन होना तो दोनों ही शर्तों में है उदाहरण यदि देखें तो उन व्यापारों को ही देख लीजिए जिन्होंने वर्तमान में दूसरे व्यापारियों को खुद पर निर्भर किया हुआ हैं, उन देशों को ही देख लीजिए जिन्होंने दूसरे देशों को खुद पर निर्भर किया हुआ हैं, देखो परिवर्तन संसार का नियम हैं, जो व्यापारियों या देशों ने दूसरों को निर्भर किया हैं जितने वक्त वो उन पर निर्भर रहेंगे उतना ही वक्त उन्हें भी यानी उन व्यापारों या देशों को भी उन पर निर्भर रहना होंगा क्योंकि किसी को यही ऐसे को जो उतना ही सक्षम है जितना हम सक्षम हैं, जिसके पास भी निवेश के लिए उतना भी वक्त है जितना हमारे पास में है यानी २४/०७/३६५ या ३६६ दिन तो जिन्होंने उन्हें समय देने वक्त भेदभाव नहीं किया हमारी तुलना में तो जिसके बुते हम उन को अधीन किये हुए हैं वह हमें भी उतने ही वक्त उनकी अधीनता देगा जितनी कि उन्हें हमारे अधीन अभी इस वर्तमान में वह हमारे अधीन कर रहा हैं उदाहरण उन चीनी उद्यमों का ही लें लीजिए जिन्होंने पूरे भारत को अधीन किया मगर भारत अधीनता नहीं छोड़ दें इस लिए वह भारत के अधीन हों गया ठीक उतने ही अनुपात में जितने अनुपात में उसने भारत को अधीन किया हुआ था, जिस अनुपात में उसने भारत को अधीन या मजबूर करके उसकी मजबूरी का फायदा उठाया उसी अनुपात में वह भी भारत के अधीन होने के लिए बंध गया जिससे भारत को उसकी मजबूरी का जाने अंजाने फायदा उठाने का मौका मिल गया, देखो यह तो हकीकत हैं कि यदि लाभ कमाना हैं तो किसी न किसी को अधीन तो यही मजबूर तो करना पड़ेगा और वह उसकी अधीनता की कीमत को अदा करने के बदले पर गरीबों की बस्ती में जब कोई भी सौदागर जाता हैं जाने- अंजाने जिनके पास बुद्ध या कृष्ण जैसी आत्म निर्भरता नहीं हैं और बिल गेट्स या वॉरेन आदि इत्यादि जैसा जिनका फोकस चौकस नहीं हैं तो बड़ी दया आती हैं, दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी यानी एप्पल के फाउंडर भी उस लक्ष्मी नारायण शर्मा के पास सौदा करने गए यानी लाभ के लिए गए जो इतने हनुमान जी के अधिक यानी भक्ति प्रेम और समर्पण से अधीन हो गए हैं जितना कि उन्होंने हनुमान जी की अधीनता कमा ली हैं अपने तपस्चर्य से जिनके पास उस आत्म निर्भरता के धनी राम से समाधि की उपलब्धि हैं, वो ही राम जो आत्म यानी स्व के मूल श्रोत से निर्भरता की उपलब्धि का स्वभाग्य रखते हैं, हालांकि वह इतने योग अर्थात् जोड़ को उपलब्ध हैं उस निराकार आकार रिक्त अहसास मात्र के कि उनमें और राम में कोई अंतर नहीं हैं पर विनम्रता नहीं चले जायें इस हेतु समय समय पर अज्ञानियो के लिए राम और ओंकार खुद को अलग अलग कहते हैं अन्यथा योग्यता यदि आधार हैं, इस आधार पर भी समता ही उनकी स्वाभाविकता हैं।
संबंध की हकीकत का वैदिक अर्थात् दार्शनिक तथा कथित निष्कर्ष जिसे वसुदेवकुटुम्बकम कह कर पूरा विश्व हमारा परिवार हैं यह अर्थ देता हैं और यदि विज्ञान यानी सब के सब से सम्बंध की हकीकत कि पूर्ण तो नहीं परंतु पर्याप्त गहराई में जाए यानी जो सभी देखने के तरीकों को बनाने वाला यानी मूल के सबसे निकट होने से, इतना पास कि उसे विज्ञान का मूल अर्थात् पूर्ण हकीकत भी यदि कह दिया जाए तो पूर्णतः वैज्ञानिक ही होंगा यानी वेद अर्थात् सबसे विकसित दर्शन के बाद वेदांत से सब से सब के सम्बंध का सच पूछने जाएं तो वैज्ञानिक तथा कथित निष्कर्ष यानी सिद्धांत जो प्राप्त होंगा वह सब से सब के सम्बंध को खुद से खुद का सम्बन्ध तत् त्वं असि और अहम् आस्मि संबोधित करेगा तो यहाँ पर फायदा अंततः खुद से खुद की मजबूरी का ही उठाना हैं और बांटना यानी देना भी खुद को ही हैं फिर जो तथा कथित फायदा हैं यानी स्पष्टता जो कि पर्याप्त असुविधा के पश्चात ही प्राप्त होती हैं उसे ही लाभ क्यों कहना, सुविधा मिले या असुविधा दोनों मानों तो असुविधाये और मानों तो सुविधाएं ही हैं, फिर इन्हें गलत और सही कहने वाले हम कौन होते हैं, चाहें कोई असुविधा कमाए या सुविधा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखे तो स्वाभाविक रूप से भी वह कमा तो लाभ ही रहा हैं, कुल मिला करके जो जाने अंजाने जो चाह रहा हैं वह वो स्वाभाविक रूप से कमा रहा हैं, सब अपनी जगह सही हैं कोई भी गलत नहीं हैं, जो किसी को भी गलत कहता हैं यानी घाटे में समझता है वो जाने अंजाने उन्हें पागल कहने के समान कर रहा हैं जो जाने अंजाने यह जानते हैं कि कोई भी हकीकत में पागल नहीं हैं, सब अपनी जगहों पर सही हैं, ठीक हैं सब, और जो यह जान पाएगा जिससे मान सकता हैं कि कोई पागल नहीं हैं वो उनकी जमात से मुक्त हो जायेगा जो दूसरों को पागल समझ कर खुद को जानें अंजाने पागल साबित करते हैं, अंततः पागल तो वो ही होता हैं न जिसके हिसाब से उसको छोड़ के सब पागल हैं यानी फालतू हैं, जो मुझे या मेरे जैसों को जानें अंजाने पागल समझ रहे हैं वह हमारी हकीक़त की पूरी सच्चाई का बस इकलौता पहलू ही देख रहे है, उन पर दया आती है हालांकि वह उनकी जगह पर ठीक हैं यानी गलत नहीं हैं पर उनको उनके नाकारात्मक किरदार में होने की जगह विपरीत किरदार में होने के नाते सलाह दी जाती हैं कि एक चिकित्सक का दृष्टिकोण अपनाए, जो जितना ज़हर हैं उतना ही औषधी भी है तो जिसमें उनका और सबका बस यदि वो न चाहने या विपरीत चाहने की जगह चाहे तो लाभ होने से वो ड्रग को औषधी साबित कर सकते हैं और उनको ऐसा करना भी चाहिए, यदि खुद से किसी चिकित्सक के दृष्टिकोण से नहीं देख पा रहे हैं तो जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यानी जरूरी होने से चिकित्सक के दृष्टिकोण को अपनाने को कह रहा हैं उसकी यानी चिकित्सक की सुने, ऐसे मरीज़ की तरह बर्ताव नहीं करें जो ज़हर हो या औषधी, उसे चिकित्सक के दृष्टिकोण से नहीं देख पाने से या जो चिकित्सकीय दृष्टिकोण को अन्य कोई चिकित्सक देख पाने से पता रहा हैं उसे यानी उसकी सलाह को अपनाए, इसी में सभी की भलाई हैं, यदि आप उस मरीज़ की तरह बर्ताव जाने अंजाने करते रहेंगे जो कि न चिकित्सक का दृष्टिकोण खुद बेचारगी वश रखता हो और न ही किसी अन्य चिकित्सक की सलाह पर गौर करता हैं तो जो पेट साफ करने की दवा और उसके रोक की दवा जितनी लाभदायक यानी औषधी समान हैं उतनी ही जहर भी हैं, उसको यानी उसकी हकीकत जो नहीं जानने से किस्मत से यदि जब पेट साफ की जरूरत पड़े तो एक जैसी दिखाई देने वाली पेट साफ की दवा और उसमें रोक थाम की दवा में से सही दवा न ली तो जो पेट साफ में रोक थाम की दवाई होने से लाभकारक थी वो जहर खुद के लिए आप साबित कर लेंगे और फिर बेचारगी वश बाद में डॉ. को ही गलत कहेंगे, आपका किसी को गलत कहना उसकी हकीकत कि पूर्णतः की समझ के आभाव वश ऐसा ही हैं, आप उसको पागल कह रहे हैं जो किसी को पागल नहीं कहता और न ही समझता भी हैं पर उसे पागल कह करके आप जो दूसरों को पागल कहता और समझता है वो खुद ही पागल होता हैं, जाने अंजाने तथा कथितता में खुद की पूर्ण हकीक़त में से अपनी पागल साबित करने वाली हकीकत को जी उजाला देकर के उजागर कर रहे है अतएव जो दूसरों को पागल कहता हैं और समझता है वो खुद भी पागल होता हैं इस यथा आधार पर यदि खुद को पागल साबित नहीं करना हैं तथा कथितता के दायरे में तो कृपया उस हिसाब से काम करें, विकल्प आपके पास में हैं अब चयन आपको करना हैं।
कोई वित्तीय समझ के बाद भी यदि उससे दूर हैं तो कोई पर्याप्त माकूल कारण ही उसके इसकी अंजामितता को आकार दिलवा रहा हैं अन्यथा असमर्थता के आभाव की अनुपस्थिती होने पर भी कोई क्यों तथा कथितता में अर्थोंपारजन नहीं करेगा।
लेख और लेखक परिचय:-
मुझे क्षण भंगूरता यानी आज हों और कल नहीं यह पता हैं कि कितना असुविधा जनक होता हैं, यह ही वे कारण हैं कि मेरी यादों को जीर्ण शीर्ण कर रखा हैं मैंने, अभी जो वर्तमान में महसूस कर रहा हूं उसे तक चेष्ठा पूर्वक ध्यान में नहीं रखना चहता हैं, जो आज हैं और कल नहीं ऐसे से तो अभी आज ही नहीं रहे तो बेहतर हैं, कल का जाता आज जाए, जो क्षण भंगूर हैं उसे याद में रख कर क्या ही सुविधा हैं इसलिए वर्तमान को पूरे ध्यान से जी करके न अतीत की फिक्र करता हूं और न ही भविष्य का ध्यान करता हूं मैं, मैं तो बस हर वर्तमान में ऐसे जीता हूँ कि तत् क्षण ही नहीं अपितु हर समय बिंदु की इकाई पर जीता और मरता हूं मैं और न भूतों न भविष्यती एक वर्तमान से अगले वर्तमान का ही सीधे रुख करता हूं मैं, जो जीवन सब जीते हैं वैसा जीवन ये सच हैं कि मैं नहीं जी पाता पर हाँ मेरा तो ऐसा ही हैं, मौत को मुक्ति को जीता हूँ मैं, मोक्ष में जीना हों जाता हैं, और चाहिए भी क्या जब बिन चाहें, नहीं चाहते मुमुक्षा कि पूर्ति हों रही हैं, मुझे तो कुछ नहीं चाहिए, जो सब को चाहिए वो बिना चाहें ही मोती मिल रहे हैं; मेरी तो हर चाहें पूरी हों रही हैं, फिर न केवल मुक्ति मिली हुई हैं, हर समय बिंदुओं पर सतत् मिल रही हैं; अपने आप ही वह भी होता जा रहा हैं, जो राम करवा रहा हैं, कर वो रहा हैं, न मैं मध्यम हूँ न ही कर्ता, राम किसी को माध्यम तो कृत्य में उसके किसी के अपने, मुझे कर्ता तो किसी को माध्यम और कर्ता दोनों ही दिखा रहा हैं, जो दूसरे जीते हैं यही भूत और भविष्य दोनों की सहितता से वो भी आश्चर्य चकित रूप से जीना हों जा रहा हैं, कोई मर्यादा नहीं हैं कोई भी सीमा नहीं रही, पूर्ण हो गया हूँ मैं पर राम पूर्णता के साथ मर्यादा को जीकर के, वो मर्यादा पुरूषोत्तम मुझे मर्यादित भी दिखा रहा हैं, वो मेरे अंदर का शुद्ध चैतन्य, सभी शुद्ध चेतनाओ की जरूरतों के अनुकूल अधिक जरूरियत से कम जरूरियत के क्रम में, जो जितना लायक ऐसे एक के बाद एक करके सभी की जरूरतों को, उनकी जरूरतों की पूर्ति भी करवा रहा हैं, जरूरतों की पूर्ति पर्याप्तता से चाह लेना के ही मोहताज हैं, ऐसा करके सभी खुद से खुद की और सभी की, जो भी वो खुद ही हैं, यदि बिना किसी अशुद्धि यानी धुंधले पन के चश्में के, स्पष्ट अनुभव को देखने का सामर्थ्य चाह लें यानी इस वैज्ञानिक यही वास्तविक दृष्टिकोण तक आ ले जो स्पष्ट करता हैं कि हम और हमारे आस पास सब ठीक वैसे ही हैं जैसे मिट्टी के लिए मिट्टी और बहुत से उस मिट्टी में धसे घड़ों का ज़कीरा हों और वहीं वास्तविकता को देख पाता हैं जो इस संकीर्णता यानी सीमा से बाहर आता हैं अपने दृष्टिकोण पर लगे कुएं रूपी चश्में को छोड़ करके यानी उससे बाहर निकल करके, जो कुआं रूपी उसका चश्मा कुएं के अंदर से स्पष्ट हो रहे आसमान रूपी हकीकत का एक हिस्सा ही बता रहा हैं, वो वास्तविकता में मिट्टी दिखाई देती हैं उसे छोटे बढ़े हुए कुएं जैसे घड़े बताएं जा रहा हैं, जबकि वास्तविकता कोई कुआं यानी कि सीमितता का पर्याय कोई घड़ा या घड़ों का ज़कीरा नहीं बल्कि पूरा का पूरा मिट्टी द्वारा मिट्टी दिखाई देने वाला, नंगी आंखों से, ऐसा ज़किरा हैं तो मर्यादा ऐसी जो अति सीमित हैं उसे राम के स्नेह से प्राप्त हों जाती हैं, यहां राम मेरे अनुसार शब्द यानी हकीकत का चिह्न या भौतिक इंद्रियों से प्रतिबिंबित ध्वनी नहीं अपितु चिन्हों और ध्वनी के रूप में वो इशारा हैं जो कि नियंत्रण, योग यानी कंट्रोल यानी कनेक्शन का खुद से यानी कॉग्निशन से ऐसा परसेप्शन यानी कि ऐसी धारणा अर्थात् मानना मतलब बिलीफ का अहसान हैं यही संज्ञान हैं जिनकी ओर राम शब्द नहीं अपितु उस ध्वनी या चिन्ह से उस एक मात्र ओंकार अर्थात् निराकार की ओर जो बिना किसी ओर से घर्षण को उपलब्ध हुए कंपितता को उपलब्ध हों रहा हैं, वो निराकार का अहसान कहे या ओंकार का स्वतंत्र नाद, उस परम यानी सभी श्रेष्ठ जितना श्रेष्ठ होने से सर्वश्रेष्ठ हैं उस अहसान से हैं, उस जागृति की मूल धारणा से परसेप्शन से हैं, जो कि खुद से हीं खुद को पैदा करने वाली और जो तथा कथित यानी मिथक मृत्यु अर्थात् मौत हैं उसको उपलब्ध होता भी हैं बेहोशी के अहसान के रूप में और साथ साथ हर भ्रम से यानी मिथकता से परे भी हैं ऐसे परम तत्व की ओर परमात्मा की ओर इशारा हैं, सुनना या पढ़ना जिसकी ओर इशारे ही हों सकते हैं वो तो अनुभव कर लेना की ही बात हैं, वो संज्ञान कोई भौतिक ध्वनि या चिन्ह नहीं बल्कि हर भौतिक ध्वनि या चिन्हों से चेष्टा पूर्वक या अवचेतनत:फलित परम् की प्रेरणा फलित प्रेम प्रसाद यानी मेहर कहो या खैरात ऐसी बस सौगात हैं, ऐसा किस्मत से मिलने वाला प्रसाद स्वरूप प्रेम मात्र हैं, उस ऐसे प्रकाश जैसा जो कि पात्रों में भरे जल में प्रतिबिंबित होने से और प्रतिबिम्ब भर के ही सहजता से दिखाई देने से प्रतिबिम्ब आंतरिक और बाहरी स्पष्ट जगतो में उसका केवल होना स्पष्ट तो होता हैं पर वास्तविकता में जों वो सभी प्रतिबिम्ब नहीं जो जल से भरे पात्रों में स्पष्ट हों रहे बल्कि उन चिन्हों या ध्वनि के स्थान पर अनुभव स्वरूप संज्ञान रूपी प्रकाशित सूर्य के समान हैं, वो केवल सुनी सुझाई नहीं बल्कि अनुभूति की बात हैं जिससे भूत का अहसान यानी स्मृति या भविष्य का अहसास यानी दूर दर्शन नहीं अपितु वर्तमान की यानी जागरूकता, नियंत्रणयुक्तता, योग यानी कनेक्टिविटी अर्थात् कॉग्निशन की बात हैं, राम यानी कॉग्निशन के अहसास से हैं न कि चिन्ह या उसकी ध्वनि से, जब मेरे द्वारा "होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥" यह बात कही जाती हैं तो तब राम से मेरा मतलब उपरोक्त स्पष्टी से हैं बाकी उसमें एक बार एकाग्रता की फलितता हो जाती हैं तो तर्क भी यदि हों तो यह बातें उसी की प्रेरणा से आती हैं, अपने आप बिना किसी इच्छा के शब्दों और अर्थों की सहितता हो जाती हैं और शब्द और अर्थ ही किसी भी क्षेत्र की कला हों या कोई भी विज्ञान सब यहीं हैं, साहित्य कला विज्ञान, सारी सिद्धियाँ अपने आप आकर में आती हैं।
रिक्तत्व की सन्निकट प्रकटता हैं शरुप्ररा अर्थात् मेरी प्रत्येक शब्द प्राकट्यता, सत्य मतलब की मुमुक्षा यानी आज्ञान से मुक्ति की इच्छा ही जिसके प्रति जागरूकता को आकार दें सकती हैं अतः मुक्ति की योग्य इच्छा ही इसके प्रति जागृति उपलब्ध करायेंगी, मतलब साफ हैं कि मेरी हर बात केवल योग्य मुमुक्षु के ही समझ आयेंगी अतएव मुमुक्षा लाओं, नहीं समझ आनें के बहानें मत बनाओं क्योंकि ऐसा करना खुद के प्रति लापरवाही हैं, जो खुद की परवाह के प्रति जागरूक नहीं, वह कहाँ से मुक्ति की तड़पन अर्थात् मेरी अभिव्यक्ति को अहसास यानी समझ में लानें की पात्रता लायेंगा और योग्यता के आभाव से निश्चित मर्म सें इसकें चूक जायेंगा, इशारें जिस ओर हैं वह दृश्य का अहसास, भावना, विचार, कल्पना यानी हर आकार के अहसासों से भी सूक्ष्म तथा परे यानी दूर का अहसास हैं, मेरे दर्शायें शब्द, उनके माध्यम् से लक्ष्य बनायें भावों, भावों के सहयोग से लक्षित विचारों और उनके माध्यम से हर काल्पनिकता की ओर संकेत दियें जा रहें हैं यानी हर आकारों को रचनें की योग्यता की मध्यस्थता उस अंतिम ध्येय तक सटीकता से इशारा करनें में ली जा रही हैं जिससें उस आकर रिक्तत्वता की योग्यता के परिणाम से आकार रिक्तता के अहसास पर सटीकता के साथ किसी भी जागरूकता या ध्यान को लें जाया जा सकें अतएव आपका ध्यान मन के सभी दायरों से परें देख पायेंगा तो ध्येय उसका हैं।
- रुद्र