रचनाकार---रुद्र संजय शर्मा
कृपया पूरा पढ़े तत्पश्चात ही समीक्षा करें।
केन्द्रीय भाव-प्रस्तुत कविता की रचना मैंने यानी रूद्र संजय शर्मा ने की है। जब बच्चा छोटा रहता है तब माता-पिता उसके पालन-पोषण के लिए सफल सफल प्रयास करते हैं परंतु जब बच्चा बड़ा होता है वह अपने माता पिता के द्वारा किए गए एहसानों को भूल जाता है ।उनहे लावारिस छोड देता है ।इसका कारण केवल और केवल स्वार्थ है मेरे अनुसार अगर भारत नामक भाव विश्व ले आता है तो बड़ी से बड़ी सामाजिक समस्या समाप्त हो सकती है माता पिता के कर्म एवं पुत्र के कर्म में अंतर मेरी कविता के माध्यम से मैंने बताया है।
दुनिया की सभी सामाजिक समस्याओं का जनक केवल और केवल स्वार्थ हैं ।तो स्वार्थ भाव का त्याग करें और परमार्थ को अपना ले।
अपने माता पिता के एहसानों को कदापि ना भूलें।
।।कविता।।
जब हम छोटे बच्चे थे तो,
रात को कम सोते थे।
अगर हमारी नींद खुली तो ,
चीख-चीख कर रोते थे।
जब हम ऐसे रोते थे तो,
वह लोग नहीं सोते थे।
रात भर लोरी गा गा कर ,
अपनी नींद खोते थे।
जब हम थोड़े बड़े हुए तो,
अपनी इच्छाओं को मार ,
वह हमें पालते थे।
वह हमें संभालते थे।
अच्छे से अच्छे विद्यालय में ,
पढ़ने के लिए डालते थे।
दिन रात मेहनत कर वह ,
हमारे जीवन को संवारते थे।
जब हम थोड़े और बड़े हुए तो,
शादी हुई बच्चे हुए।
बीबी बच्चों के चक्कर में,
हम उनको ही भूल गए।
धन दौलत के लालच मे बड़े- बड़े वादे किए।
जैसे ही यह मिल गए सारे वादे तोड़ दिए।
जैसे ही यह मिल गए एक-एक वादा तोड़ दिया।
हमने उनको उनकी हालत पर ही लावारिस सा छोड़ दिया।
यह कैसा तरिका था ,
उनका एहसान चुकाने का?
एक बेटे का माता-पिता के प्रति;
अपना फ़र्ज़ निभाने का।
इस काव्य की रचना मैंने यानी रूद्र संजय शर्मा ने जब की थी तो मैंने यह अनुभव किया की संपूर्ण सामाजिक समस्याओं का जनक केवल और केवल स्वार्थ है इसके कारण ही संपूर्ण सामाजिक समस्याएं उत्पन्न होती है।
उस समय मैं नौवीं कक्षा का एक विद्यार्थी था। मैं बचपन से ना तो पढ़ाई में अच्छा था नहीं था। किसी दूसरे विषय में भी अच्छा नहीं था इसीलिए सभी लोग मेरा मजाक बनाया करते थे ।मुझे बहुत ज्यादा बुरा लगता था परंतु मेरी माता यानी राजेश्वरी शर्मा वह मुझे कहती थी की और तुम ईमानदार रहोगे तो तुम सभी कार्यों में अच्छे बन सकते हो इसलिए ईमानदारी को कभी मत छोड़ना इसीलिए कुछ भी हो जाए मैं ईमानदारी को कदापि ना छोड़ता था कक्षा 9वी में कुमारी स्वरचित कविता की स्पर्धा हुई मेरी कक्षा के सभी विद्यार्थियों ने भाग लिया मैंने देखा था कि कोई भी व्यक्ति मेरी बढ़ाई नहीं करता था परंतु मेरा मजाक बनाने वाले भी मैं खाली समय में बैठकर कुछ फिल्म के गाने जो शृंगार रस से पूर्ण होते थे उनकी टांग खींच कर मतलब उनके शब्दों में हेरफेर कर कर उनमें हास्य रस का भी समावेश कर देता था।
तो मैंने भी उस स्पर्धा में भाग लिया ।मेरे बाबूजी कवि थे तो मुझे कुछ लोगों ने कहा कि उनकी कोई सी कविता कुछ पंक्तियों में हेरफेर कर सुना देना ।किसको पता की तेरी नहीं बल्कि तेरे बाबूजी की पंक्तियां है परंतु मैंने ऐसा कदापि ना करा मैंने विचार किया यद्यपि मैं उस स्पर्धा में जीत ना पाऊं मुझे मेरी स्वयं की रचना का निर्माण करना होगा और मैंने अपनी रचना का निर्माण किया एवं उसे उस दिन प्रस्तुत भी किया मेरा एक मित्र था उस दिन व अपनी कोई योजना बनाकर नहीं लाया था उसने मुझसे स्पर्धा के कुछ समय पहले विनती करें कि मैं उसे कुछ लिख कर दूं पहले तो मैं मेरे मन में विचार आया कि यह गलत होगा परंतु मां मुझसे अत्यधिक विनती करने लगा मेरा मस्तिष्क कह रहा था यह सर्वथा अनुचित है परंतु मेरा मन उसकी सहायता करने का सुझाव दे रहा था मैंने वैसा ही किया मैंने उसे कुछ पंक्तियां लिख कर दे दी उसने वही पंक्तियां वहां पर सुनाई भी अंत में जब स्पर्धा का परिणाम घोषित हुआ तो मुझे पता चला कि मेरा प्रथम स्थान था एवं इस मित्र को मैंने कुछ पंक्तियां बना कर दी थी उस मित्र ने दूसरा स्थान प्राप्त किया।
मैं अत्यधिक पुलकित हुआ मैंने विचार किया कि यह जो मेरी पहली जीत है जो इमानदारी के कारण हुई है इसलिए मैं अगर इतनी भी कविताएं बनाऊंगा केवल सत्य के लिए बनाऊंगा यह मुझे अच्छा भी लगता था और आज भी करता हूं । परंतु जब मुझे उस मित्र से कुछ काम था तो मैंने उस से सहायता मांगी और उसके नहीं देने पर मैंने यह भी कहा कि मैंने भी तेरी सहायता की थी दोस्त ने हंसकर कि मेरा काम तो हो गया आप मुझे कोई मतलब नहीं ।
मैंने यह सोचा कि मैं स्वयं की रचना बनाकर स्पर्धा में प्रस्तुत करूंगा एवं बाबूजी की रचना की चोरी नहीं करूंगा अर्थात मैंने स्वयं के बारे में ना सोच कर बाबूजी का अच्छा करा अर्थात परमार्थ करा तो मुझे सफलता मिली मर भी अच्छा हुआ एवं बाउजी के साथ भी बुरा न हुआ।
मेरे मित्र ने स्वयं के हित के लिए मेरा उपयोग किया दो मेरा बुरा हुआ । मेरा तो बुरा हुआ ही उसके बाद मैंने उसकी कभी सहाय्य नहीं करि इससे उसका भी बुरा हुआ।
इससे मुझे यह ज्ञात हुआ की स्वार्थ से सभी का बुरा होता है एवं स्वयं का भी एवं परमार्थ से स्वार्थ तो पूर्ण होता ही है अपितु परमार्थ भी।