कैफे के बाहर आते वक्त सहदेव ने आखिरी बार काव्या की ओर देखा। उसकी मुस्कान हल्की मगर गहरी थी, जैसे वह अपनी बातों से सहदेव को समझाना चाह रही हो।
"सहदेव, तुम खुद को छोटा मत समझो। इस दुनिया में जो अपनी कीमत जानता है, वही अपनी जगह बना सकता है," काव्या ने अपनी बात खत्म की।
सहदेव ने सिर हिलाया।
"थैंक यू, काव्या। तुम्हारे शब्दों ने मुझे एक नई राह दिखाई है। मैं कोशिश करूंगा खुद पर भरोसा करने की।"
दोनों ने एक-दूसरे को विदा कहा। लेकिन जैसे ही सहदेव कैफे से बाहर निकला, उसकी नज़र सामने खड़ी एक ब्लैक बीएमडब्ल्यू पर पड़ी। वह गाड़ी उसे पार्टी में देखी गई गाड़ियों जैसी लगी।
"ये गाड़ी..." सहदेव ने धीमे स्वर में कहा, लेकिन काव्या ने उसकी बात अनसुनी कर दी।
गाड़ी के अंदर बिजनेस सूट पहने एक महिला बैठी थी। उसकी आँखें कैफे के कांच के दरवाजे से अंदर की तरफ देख रही थीं, और उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था। उसके बगल में बैठी लड़की थोड़ी असहज लग रही थी। यह वही लड़की थी जो ड्राइवर के पास वाली सीट पर बैठी थी।
"चलो, अब यहां से चलते हैं," पीछे की सीट पर बैठी महिला ने ठंडे स्वर में कहा।
ड्राइवर ने बिना कोई सवाल किए गाड़ी स्टार्ट कर दी। लेकिन ड्राइवर के पास वाली सीट पर बैठी लड़की, अंजू, असमंजस में थी। उसने आखिरकार पूछ ही लिया,
"मैडम, हमें यहां रुकने की जरूरत क्यों थी?"
उसकी आवाज़ में झिझक थी। लेकिन महिला ने कोई जवाब नहीं दिया।
लगभग आधे घंटे बाद गाड़ी एक शानदार अपार्टमेंट के सामने आकर रुकी। यह इमारत शहर की सबसे महंगी रिहायशी जगहों में से एक थी। जैसे ही गाड़ी रुकी, अंजू ने झिझकते हुए गाड़ी का दरवाजा खोला और बाहर निकल आई।
"तुम यहीं रुको। मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी," मैडम ने उसकी बात काटते हुए कहा।
अंजू ने एक पल के लिए चौंककर उसे देखा। "लेकिन..."
"कोई बहस नहीं, चलो," महिला का स्वर इतना तीखा था कि अंजू ने आगे कुछ पूछने की हिम्मत नहीं की।
दोनों अपार्टमेंट की ओर बढ़ीं। अंजू का अपार्टमेंट तीसरी मंजिल पर था। चूंकि लिफ्ट खराब थी, दोनों को सीढ़ियां चढ़नी पड़ीं। रास्ते भर अंजू के दिमाग में सवालों की बाढ़ थी।
"आखिर ये मैडम मेरे साथ क्यों आई हैं? क्या उन्होंने मुझे किसी और वजह से बुलाया था?"
अपार्टमेंट में पहुंचते ही अंजू ने दरवाजा खोला। भीतर का माहौल आरामदायक था। दीवारों पर हल्के रंग, और फर्नीचर आधुनिक था। यह जगह उसकी अपनी नहीं थी, लेकिन चाचा की दी हुई इस जगह में वह अपने तरीके से रहती थी।
"यहां बैठो," मनीषा ने आदेश दिया। उसकी आवाज़ में वह कठोरता थी जिसे नकारना नामुमकिन था।
अंजू ने एक छोटी सी कुर्सी खींची और बैठ गई। मनीषा ने कमरे का मुआयना किया और खिड़की के पास जाकर रुक गई।
"क्या तुम्हें पता है कि आज मैं कैफे में क्यों गई थी?" मनीषा ने सीधे सवाल किया।
"नहीं, मैडम।" अंजू का स्वर कांप रहा था।
"तुम्हारे ऑफिस का वह सहदेव... उसके बारे में क्या जानती हो?"
"सहदेव?" अंजू ने हैरानी से पूछा। "वह तो बस मेरे सहकर्मी हैं।"
"सिर्फ सहकर्मी?" मनीषा ने उसकी आँखों में सीधे देखा।
अंजू को समझ में नहीं आया कि यह सब क्यों हो रहा है। वह जानती थी कि मनीषा एक सख्त लेकिन काम में माहिर महिला हैं। लेकिन उनके इस व्यवहार ने उसे उलझन में डाल दिया था।
मनीषा ने एक लंबी सांस ली और खिड़की से बाहर देखने लगी। उसकी आँखों में कुछ ऐसा था जो उसे पहले कभी नहीं देखा था।
"सहदेव... वह मुझे मेरे अतीत की याद दिलाता है।"
अंजू ने चौंककर उसकी ओर देखा। "मैडम, मैं समझ नहीं पाई।"
मनीषा ने एक फीकी मुस्कान दी।
"कभी-कभी, हमारे जीवन में कुछ ऐसे लोग आते हैं जो हमें हमारे पुराने घावों से जोड़ देते हैं। सहदेव भी ऐसा ही है।"
"क्या वह आपको जानता है?" अंजू ने साहस जुटाकर पूछा।
"नहीं, और मुझे यकीन है कि उसे कभी पता भी नहीं चलेगा," मनीषा ने ठंडे स्वर में कहा।
यह सुनकर अंजू और उलझ गई। वह जानती थी कि मनीषा अपने बारे में ज्यादा कुछ किसी को नहीं बतातीं। लेकिन उनके इस रहस्यमयी व्यवहार ने उसे बेचैन कर दिया था।
अगले दिन ऑफिस में माहौल सामान्य था। लेकिन सहदेव की आँखों में एक अजीब सी बेचैनी थी। रात को हुए घटनाक्रम ने उसे विचलित कर दिया था।
काम खत्म होने के बाद, सहदेव ने अपने दोस्त मनोज के साथ एक बार जाने का फैसला किया।
"सुनो, मनोज। मुझे लगता है कि मैं ऑफिस में हर किसी की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पा रहा हूं," सहदेव ने शराब का पहला घूंट लेते हुए कहा।
"तुम्हारा दिमाग खराब है क्या?" मनोज ने जवाब दिया। "तुमसे ज्यादा मेहनती तो कोई नहीं है।"
"शायद। लेकिन मनीषा..." सहदेव ने चुप्पी साध ली।
"मनीषा? उसने फिर से कुछ कहा क्या?" मनोज ने उसे ध्यान से देखा।
"नहीं, पर मुझे लगता है कि वह मुझसे नफरत करती है। उसकी आँखों में कुछ ऐसा है जो मुझे परेशान करता है। जैसे वह मुझे पसंद नहीं करती, बल्कि मुझे दूर रखना चाहती है।"
मनोज ने उसकी बात को हल्के में लेने की कोशिश की। "तुम बेवजह सोच रहे हो। चलो, एक और ड्रिंक लेते हैं।"
लेकिन सहदेव के मन में मनीषा की गाड़ी और उनकी बातचीत की स्मृति घूमती रही।
अगले दिन, सहदेव को अपने डेस्क पर एक अज्ञात पत्र मिला। उसमें लिखा था:
"तुम्हें नहीं पता कि तुम किसके आसपास हो। सच जानने के लिए तैयार रहो।"
सहदेव ने वह पत्र पढ़ा और उसकी आँखें चौड़ी हो गईं।
"ये क्या बकवास है?" उसने बुदबुदाया।
लेकिन उसके भीतर एक डर बैठ गया। मनीषा, काव्या, और अंजू... इन सबकी जिंदगी में जो कुछ भी छिपा था, वह उसकी समझ से बाहर था।
रात में, सहदेव अपने कमरे में बैठा उस पत्र के बारे में सोच रहा था। तभी उसके फोन पर काव्या का कॉल आया।
"हाय, सहदेव। सब ठीक है?"
"हां, काव्या। बस... थोड़ा उलझा हुआ हूं," उसने कहा।
"कुछ भी हो, याद रखना कि तुम अकेले नहीं हो। मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं," काव्या ने मुस्कुराते हुए कहा।
सहदेव ने पहली बार अपने भीतर एक अजीब सी ताकत महसूस की।
"शायद," उसने खुद से कहा, "मैं यह सब झेल सकता हूं।"
लेकिन अगले ही पल, उसके कमरे की खिड़की पर एक परछाई दिखी।
कहानी यहीं खत्म नहीं होती। मनीषा, अंजू, और सहदेव के अतीत के जो धागे आपस में जुड़े हुए हैं, वे धीरे-धीरे खुल रहे हैं। क्या मनीषा का सच सहदेव की जिंदगी को बदल देगा? क्या वह खतरा जिसे वह नजरअंदाज कर रहा है, वाकई बड़ा है?
जवाब कहीं न कहीं उन गहराईयों में छिपा है, जहां सहदेव जाने से डरता है।