Brundha-Ek Rudali - 5 in Hindi Women Focused by Saroj Verma books and stories PDF | ब्रुन्धा-एक रुदाली--भाग(५)

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ब्रुन्धा-एक रुदाली--भाग(५)

ब्रुन्धा धीरे धीरे बड़ी हो रही थी और किशना उसका बहुत ख्याल रख रहा था ,अब ब्रुन्धा पाँच साल की हो चली थी,लेकिन ठाकुर नवरतन सिंह का आकर्षण अब भी गोदावरी पर था,उसका जब भी जी चाहता तो वो गोदावरी को हवेली पर बुलवा लेता और किशना अपनी आँखों के सामने ऐसा अनर्थ होते हुए देखता रहता, जब गोदावरी हवेली जाती तो ब्रुन्धा अपने पिता किशना से पूछती...."बाबा! माँ हवेली क्यों जाती है,माँ मुझे अपने साथ हवेली क्यों नहीं ले जाती"तब ब्रुन्धा की बात सुनकर किशना का कलेजा काँप उठता और वो ब्रुन्धा से कहता...."बेटी! कभी भी हवेली जाने की बात मत करना""क्यों बाबा! क्या हवेली अच्छी जगह नहीं है",मासूम ब्रुन्धा अपने पिता से पूछती...."हाँ! लाडो! हवेली में चुड़ैल और भूत रहते हैं,इसलिए वो बिल्कुल भी अच्छी जगह नहीं है",किशना जवाब देता..."तो क्या माँ को भूत और चुड़ैल से डर नहीं लगता,जो वो वहाँ जाती है",भोली ब्रुन्धा मासूमियत से अपने पिता किशना से पूछती ..."तेरी माँ को उस भूत और चुड़ैल से टकराने की आदत सी हो गई है इसलिए उसे वहाँ जाने पर डर नहीं लगता",किशना ब्रुन्धा के सवाल का जवाब देते हुए कहता...."ओह...तो ये बात है,तब तो माँ बहुत बहादुर है",ब्रुन्धा कहती...."हाँ! बेटी! तेरी माँ बहुत बहादुर है और मैं इतना कायर की उसके लिए कुछ भी नहीं कर सकता" फिर ये कहते हुए किशना की आँखें नम हो जातीं...     किशना को कभी कभी इस बात को लेकर आत्मग्लानि होती कि गोदावरी उसकी पत्नी है और वो ठाकुर के एहसान तले इतना दब चुका है कि वो गोदावरी को ठाकुर की हवेली से जाने से नहीं रोक सकता, गोदावरी हर बार किशना के सामने रोते गिड़गिड़ाते हुए कहती कि......" मैं अब ठाकुर नवरतन की हवेली में नहीं जाना चाहती, जब वो मुझे स्पर्श करता है तो मेरी आत्मा छलनी हो जाती है,मेरा मन तड़प उठता है और मुझे अपनी ही देह से घिन आने लगती है,मेरा जमीर कराह उठता है और मुझसे ये कहता है कि मैं ये क्या कर रही हूँ,मैं कब तक उस परपुरुष को तृप्त करती रहूँगी,आखिर कब तक मैं ये घिनौना काम करती रहूँगी,जब मैं हवेली से वापस लौटती हूँ तो मैं अपनी बेटी के सवाल का जवाब नहीं दे पाती कि मैं वहाँ क्यों गई थी,लज्जा से मेरी आँखें झुक जातीं हैं"तब किशना उससे कहता..."मैं मजबूर हूँ गोदावरी! मैं ठाकुर के सामने ऊँची आवाज़ में बात दो दूर उनकी आँखों में देखकर बात नहीं करता,तो फिर तू ही बता कि मैं उनके खिलाफ़ कैंसे जा सकता हूँ,तू मेरी मजबूरी को समझने की कोशिश क्यों नहीं करती"तब गोदावरी उससे कहती..."तो फिर तू मुझे छोड़ दे,तू दो नावों पर सवारी नहीं कर सकता,तुझे या तो ठाकुर को चुनना होगा या तो फिर मुझे","ना मैं तुझे छोड़ सकता हूँ और ना ही ठाकुर को,तू और ब्रुन्धा मेरे जीने का सहारा हो और रही ठाकुर की बात तो उन्होंने मुझे तब सहारा दिया था,जब मैं बेघर था और भूख प्यास से तड़प रहा था", किशना गोदावरी से कहता..."लेकिन किशना! ऐसे कब तक चलेगा,अब हमारी बेटी भी बड़ी हो रही है,आज तो मैं और तू उससे ये सब छुपा जाते हैं,लेकिन कल को उससे ये सब कैंसे छुपा पाऐगें",गोदावरी किशना से पूछती...   तब किशना गोदावरी के सवाल का जवाब दिए बिना ही बाहर चला जाता.....और गोदावरी अपना दिल मसोस करके रह जाती....    यूँ ही दिन गुजर रहे थे और अब ब्रुन्धा दिनबदिन बड़ी होती जा रही थी और उधर जब पन्नादेवी के कोई सन्तान ना हुई तो पन्नादेवी ने अपने भतीजे वनराज सिंह को गोद लेने का सोचा,जो कि दस साल का था, लेकिन इस बात लिए ठाकुर नवरतन सिंह बिलकुल खिलाफ थे,उन्हें डर था कि कहीं उनकी सारी जायदाद उनके हाथों से निकलकर पन्नादेवी के भतीजे वनराज के हाथों में ना चली जाएँ,इसलिए उन्होंने पन्नादेवी से बहस करते हुए कहा....."मै ये हरगिज़ नहीं होने दूँगा,मेरे रहते मैं अपनी जायदाद किसी और के हाथों में नहीं जाने दूँगा","इसके लिए तो आपको खुद की कोई औलाद पैदा करनी होगी",पन्नादेवी बोली..."ये मेरे वश में नहीं रह गया है,तुम जैसी औरत मेरे बच्चे की माँ कभी नहीं बन सकती",ठाकुर नवरतन सिंह  ने पन्नादेवी से कहा..."तो फिर हम अपने भतीजे वनराज को ही इस जायदाद का वारिस बनाऐगें",पन्नादेवी बोलीं..."ऐसा होने से पहले मैं तुम्हारा खून कर दूँगा, बेगैरत औरत! जब से तू मेरी जिन्दगी में आई है,तूने मेरा जीना मुहाल कर रखा है,मुझे कोई सुख तो ना दे सकी बल्कि मेरी खुशियों में तूने आग लगा दी,डायन! मैं तेरी हसरतें कभी पूरी नहीं होने दूँगा",ठाकुर नवरतन सिंह गुस्से से बोले..."तो ठाकुर साहब! आप भी कान खोलकर सुन लीजिए,हम भी अपनी बात के पक्के हैं,जो ठान लेते हैं तो करके ही रहते हैं और आप हमें हल्के में तो बिलकुल भी मत लीजिएगा,देखिएगा हम आपके सारे अरमानों पर पानी फेर कर ही दम लेगें",ठाकुराइन पन्नादेवी बोलीं...."पिशाचिनी! तू जो सोच रही है,तू वैसा कभी भी  नहीं कर पाऐगी",ठाकुर नवरतन सिंह गुस्से से बोले...."हम ऐसा ही करेगें,आपसे जो करते बने सो कर लीजिएगा",पन्नादेवी ने ठाकुर साहब को चुनौती देते हुए कहा...."ठीक है ! तो तू देखना कि मैं क्या करता हूँ",ठाकुर नवरतन सिंह पन्नादेवी से बोले...."वो तो वक्त ही बताएगा कि आप जीतते हैं या हम हारते हैं",पन्नादेवी बोली....      और फिर उस रात दोनों के बीच यूँ ही काफी देर तक बहस जारी रही,लेकिन उन दोनों की आपसी बहस का कोई भी नतीजा नहीं निकला,इसके बाद पन्नादेवी ने ठाकुर साहब को अपने रास्ते से हटाने के लिए एक तरकीब निकाली,लेकिन ठाकुर साहब भी कम नहीं थे उन्होंने भी आखिरकार ठाकुराइन पन्नादेवी को अपने रास्ते से हटाने की तरकीब निकाल ही ली,उन्होंने सोच लिया था चाहे तो उन्हें जायदाद से हाथ धोना पड़े लेकिन वे पन्नादेवी को अपने रास्ते से हटाकर ही रहेगें....     और फिर एक रात उस हवेली में एक षणयन्त्र रचा गया,पन्नादेवी ने रसोइये को बहुत से रुपए देकर ठाकुर साहब के रात के खाने में बेहोशी की दवा मिलवा दी,फिर करीब आधी रात के वक्त जब ठाकुर नवरतन सिंह खाना खाकर बेहोश हो चुके थे तो वो उनके कमरे में गई और एक खंजर से उनके सीने पर कई वार किए,खासकर दिल के पास,ठाकुर साहब जब तक खून से लथपथ ना हो गए तो वो उनके सीने पर  वार करती ही रहीं और फिर वो उस खंजर को उनके सीने में यूँ ही घुपा हुआ छोड़कर वो अपने कमरे में वापस आ गईं और सुबह सुबह उन्होंने एक नौकर से किशना के घर संदेशा भिजवाया कि ठाकुर साहब ने उसे अभी इसी वक्त बुलाया है....   फिर क्या था किशना भागा भागा हवेली पहुँचा,तब एक नौकर ने उसके पास जाकर कहा कि ठाकुर साहब उसे अपने कमरे में बुला रहे हैंं,फिर किशना ठाकुर साहब के कमरे में पहुँचा और जब उसने ठाकुर साहब को उस हालत में देखा तो आननफानन में बिना दिमाग़ लगाएंँ,उसने वो खंजर ठाकुर साहब के सीने से निकाल लिया और चिल्लाने लगा कि....."ठाकुर साहब आपको ये क्या हो गया"?पन्नादेवी तो इसी ताक में थी और वो ठाकुर साहब के कमरे में पहुँचीं और वहाँ का नजारा देखकर चिल्लाने लगी....."खून....खून...खून....ठाकुर साहब का किशना ने खून कर दिया"    अब बेचारा निर्दोष किशना पन्नादेवी के जाल में बुरी तरह से फँस चुका था और उसने कहा...."आप गलत समझ रहीं हैं ठकुराइन! ठाकुर साहब का खून मैंने नहीं किया"      तब तक वहाँ और भी लोग इकट्ठे हो चुके थे....

क्रमशः....

सरोज वर्मा.....