भाग 100
एक आदर्श पत्नी और मां का फर्ज बखूबी निभाते हुए गुलाब ने पति और पुत्र को समझा कर घर का माहौल तनाव पूर्ण होने से बचा लिया। बहुत सी तैयारियां शादी की करनी थी। वो सब कुछ अच्छे से निपटाने की तैयारी में व्यस्त हो गईं।
पहले दीपावली की तैयारी करनी थी। अब मात्र ग्यारह दिन बचे थे। इसी में सब कुछ करना था। गहने तो गुलाब ने बहुत दिन पहले से ही कभी चैन तो कभी झुमका, कभी अंगूठी आदि बनवा कर रख लिए थे। बस चढ़ाव के लिए साड़ियां ही खरीदनी थी।
इकलौता बेटा था महेश.. ना चाहते हुए भी सब कुछ करना ही पड़ रहा था। किसे ना बुलाते और किसकी विदाई ना करते सब कुछ करना ही था।
इधर पुरवा के घर में भी एक हफ्ते पहले उसकी बाकी की दोनो मामियां और मामा अपने बाल बच्चो के साथ आ गए। जो जिसकी समझ में आ रहा था, अपने अपने हिसाब से तैयारियां कर रहा था। बड़ी मामी अपने साथ ही पांच साड़ियां लाई थी। उनका ब्लाउज और साया पुरवा के नाप से काट कर सीने में वो पूरा दिन व्यस्त रहतीं। दूसरी दोनों मामी अनाज साफ कर खाने-पीने संबंधी तैयारी में व्यस्त थी।
नाज़ को भी पुरवा के ब्याह होने की खबर लगी। वो तड़प कर रह गई। इस समय उसे अपनी सखी के साथ होना चाहिए था। पर क्या करती..! आरिफ ने सब कुछ जानने सुनने के बाद कि उनके उर्मिला के मातम-पुर्सी के मौके पर जाने पर क्या क्या हुआ था.. नाज़ को पुरवा के घर जाने से मना कर दिया।
जवाहर जी और गुलाब ने दुखद माहौल और सब भी भावना का ध्यान रखते हुए को खुद से ही कह दिया था कि हम बस पचास से साठ लोगों की बारात ले कर आयेंगे। जो बाकी रह जायेंगे उन्हें घर में बहू आने के बाद बहू भोज करा कर खिला-पिला कर सबकी श्रद्धा पूरी कर देंगे।
महेश की हिम्मत नही थी कि वो अपने पिता जी के आदेश को नही मानता। बुझे मन से ही सही वो भी खुद को मां -पिता जी की इच्छा का पालन करने के लिए तैयार कर लिया। एक हफ्ते पहले से घर करीबी रिश्तेदारों से भर गया। बुआ, मौसी, मामी सब परिवार सहित आ गई।
घर में हंसी-ठिठोली के साथ मंगल-गीत गूंजने लगा।
घर का सबसे बड़ा कमरा महेश की दुल्हन के लिए सजाया-संवारा जाने लगा।
तय तारीख को महेश दूल्हा बन कर, सिर पर मौरी बांधे पालकी में बैठ कर पुरवा को ब्याहने चल पड़ा।
जब से महेश पैदा हुआ था, तब से ही जवाहर और गुलाब के दिल में ये अरमान बसा हुआ था कि कब वो दिन आएगा जब वो अपने बेटे के सिर पर मौरी सजा देखेंगे..! आज उनकी बरसों की हसरत पूरी हो रही थी। खुशी से बार-बार गुलाब की आंखे भर जा रही थीं। आखिर आज उनका बेटा दूल्हा बना था।
इधर पुरवा भाव-हीन, संवेदना-हीन पत्थर की बुत बनी सारी रस्में सबके बताए अनुसार निभाती जा रही थी। जीवन की सबसे बड़ी खुशी का मौका होता है किसी के लिए भी उसका विवाह। पर पुरवा के मन में कोई खुशी, कोई उमंग का संचार नही हो रहा था। अम्मा चली गई अचानक छोड़ कर, बाऊ जी को कुछ होश ही नहीं है। आखिर कब तक कोई उसकी और भाईयो की जिम्मेदारी उठाएगा..! ठीक ही है, एक फर्ज कन्यादान का तो बाऊ जी निभा लें। कम से कम उसकी जिम्मेदारी से तो छुट्टी मिले।
अगर बाऊ जी ठीक होते… उनको ये एहसास होता कि उसकी शादी हो रही है तो वो कितने खुश होते..! कितना चाव था उनको अपनी लाड़ली पुरवा के ब्याह का..! पर आज जब वो दिन आया है तो वो इन सब से बेखबर हैं कि उनकी बेटी का ब्याह हो रहा है।
बारात आई.. द्वार चार, खाना पीना के बाद शादी की तैयारी होने लगी।
पुरवा को वर के पानी से मामियों, मौसियों ने मिल कर नहलाया। पीली साड़ी पहना कर तैयार किया। हाथ में लाल - लाल लहठी पहना ने के लिए उसकी कलाई मे पड़ा कंगन मामी उतारने लगी।
ये कंगन नानी ने उसके हाथों में पहनाया था। अभी तक खामोश पुरवा ने मामी का हाथ हटा दिया और धीरे से बोली,
"मामी..! इसे पीछे पड़ा रहने दो ना।"
कंगन बहुत खूबसूरत था। उसकी चमक से लहठी भी चमक रही थी। पुरवा की मौसी ने भी समर्थन किया और बोली,
"हां..! ठीक तो है। इसे रहने दो बहन। ज्यादा सुंदर लगेगा।"
मामी को भी अपनी भूल का एहसास हुआ। कंगन के साथ ही लहठी और भी खूबसूरत लग रही थी।
तैयार कर के पुरवा को मंडप में लाया गया।
एक बड़े से डाले में ढेर सारी साड़ियों के साथ तरह तरह के सामान सजा कर चढ़ाव चढ़ाया गया।
एक डाल में गहने आदि चढ़ाए गए।
पुरवा के घर की सारी औरतें बखान कर रही थीं गुलाब बुआ के दरिया - दिली की कि देखो अपनी बहु को कितना ढेर सारा सामान भेजा है।
इसके बाद महेश को मंडप में लाया गया।
अशोक को पिता के स्थान पर बिठा कर उर्मिला के स्थान पर एक लोटा को रख दिया गया था।
बड़े मामा अशोक का हाथ पकड़ कर सारी रस्में निभवा रहे थे। निर्विकार भाव से अशोक सब कुछ बताए अनुसार कर रहा था। ना चेहरे पर बेटी के ब्याह जैसे भाव थे, ना कोई खुशी दिख रही थी।
कन्यादान के बाद पुरवा और महेश को फेरों के लिए खड़ा किया गया।
हर फेरे के साथ पुरवा अपने घर से.. अपने परिवार से दूर हो रही थी और हर फेरे के साथ महेश और उसके परिवार से जुड़ रही थी।
बाऊ जी और दोनों भाइयों से दूर होने का दर्द पुरवा के कलेजे को बींध दे रहा था।
फेरे पूरे होते ही दूल्हा दुल्हन को कोहबर में ला कर पासे खेलवाए गए और बाती मिलवाई गई।
इसके बाद महेश को बाहर भेज दिया गया।
इतने में ही भोर की लालिमा फूटने लगी थी।
सुबह कलेवा के बाद जवाहर जी गुलाब के बताए मुहूर्त के अनुसार विदाई की जल्दी मचाने लगे।
बहू घर में शुभ मुहूर्त में ही पहुंचनी चाहिए।
इस लिए देर किसी भी कीमत पर नहीं होनी चाहिए।
अशोक के दरवाजे पर सजी सजाई रेशमी परदे से ढंकी डोली आ कर रख उठी।
पुरवा को विदाई के लिए जल्दी - जल्दी तैयार किया जाने लगा।
लाल सितारे वाली साड़ी में सुनहरी चुनरी ओढ़े, भर - भर कलाई सुर्ख लाल चूड़ी पहने पुरवा अपना घर बार छोड़ कर पिया का घर बसाने को तैयार खड़ी थी।
दोनो मामा दोनो ओर से पुरवा को थामे विदा करने के लिए बाहर की ओर निकले।
दरवाजे पर कुछ बाराती के साथ जवाहर जी बैठे हुए थे।
वहीं एक चारपाई पर अशोक भी बैठे हुए थे।
बिलखती हुई पुरवा बाहर निकली। पर उसकी निगाह अपने बाऊ जी को ढूंढ रही थी। उनके गले लग कर रो कर वो अपने तड़पते दिल को तसल्ली देना चाहती थी।
वो घूंघट के अंदर से झांक कर बाऊ जी को देखा और भाग कर उनके गले लग गई और बिलख पड़ी,
"बाऊ जी..! बाऊ जी…!"
अशोक हल्की सी मुस्कान के साथ उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कह रहे थे।
"ये.. लड़की.. रो क्यों रही है..? क्यों रो रही है..?"
पुरवा ने चंदू नंदू को बाऊ जी के दवा के बारे में पहले ही सब कुछ समझा दिया था।
मामा ने उसे डोली में बिठा कर परदा ठीक कर दिया।
तभी चंदू और नंदू भागते हुए दीदी से मिलने आए और रोते हुए डोली का परदा हटा कर,
"दिदिया .. दिदिया..। "
कहने लगे।
पुरवा ने उनके आंखों से बहते आंसू को पोछा और समझाते हुए बोली,
"देखो.. तुम दोनो को रोना नहीं है। अब तुम बड़े हो गए हो। जैसे समझाया था, वैसे ही बाऊ जी को दवा समय पर खिलाते रहना। वो जल्दी ठीक हो जाएंगे। फिर हम भी जल्दी आ जायेंगे।"
चंदू नंदू दीदी की बात मान कर आंख को पोंछ कर हां में सिर हिलाया और बोले,
"दिदीया ..! तुम जल्दी आ जाना।"
पुरवा ने तसल्ली दी कि वो जल्दी ही वापस आ जायेगी।
इसके बाद चंदू नंदू को बाहर निकाल डोली का परदा ठीक कर के कहार लोगों ने डोली को कंधे पर टांग लिया।
रोते हुए घर के लोग कुछ दूर गए।
फिर डोली के दूर चले जाने पर वापस लौट पड़े।