भाग 95
दो कमरे का छोटा सा क्वार्टर था। अमन और विक्टर के बीच की बात चीत वैरोनिका और पुरवा को बड़े ही आराम से सुनाई दे रही थी। वैरोनिका ने सब्जी काट दी थी और पुरवा आटा गूंध रही थी।
अमन आया और बरामदे में बैठी वैरोनिका आंटी से बोला,
"आंटी…! इन दोनों लोगों को भी विक्टर भाई के साथ ही भेज देते हैं। इससे अच्छा मौका फिर नहीं मिलेगा जाने का..! आप क्या कहती हैं..?"
वैरोनिका बोली,
"तुम्हारी बात बिलकुल ठीक है अमन। इस समय जितनी जल्दी और सुरक्षित ये अपने घर पहुंच जाएं वही अच्छा है। फिर विक्टर रहेगा तो जगह भी आराम से मिल जायेगी।"
फिर और कुछ सब्जियां अपने पास खिसका कर काटते हुए पुरवा से बोली,
"पुरवा तुम और आटा बढ़ा कर गूंध लो। तुम सबको भी तो रास्ते में खाने की जरूरत पड़ेगी। जल्दी हाथ चलाओ.. फिर अभी बाकी सब सामान भी तो रखना है।"
अमन अशोक की दवाइयां, पर्चे और बाहर फैले कपड़े समेट कर वैरोनिका आंटी के दिए बैग में समेट कर रखने लगा।
पुरवा भी जल्दी जल्दी पंप मार कर स्टोव की आंच को तेज किया और तब तक आंटी ने अंगीठी दहका कर तैयार कर दी थी उस पर पूरियां तलने लगी। वैरोनिका बेल रही थी पुरवा तल रही थी। थोड़ी ही देर में खाना बन कर तैयार हो गया। उसे दो डिब्बों में दो जगह, एक विक्टर के लिए और दूसरा अशोक और पुरवा के लिए बांध दिया।
साढ़े आठ बजे ट्रेन खुलने का समय था, सवा आठ बजे विक्टर पुरवा और अशोक को साथ लिए स्टेशन के लिए निकलने लगा। वैरोनिका भी उन्हें छोड़ने के लिए स्टेशन तक जाना चाहती थी। ये मोह का बंधन जो इन पन्द्रह दिनों में बंध गया था, इसे तोड़ना आसन नही था। उसने सोचा कि अमन के साथ वापस लौट आयेगी।
पर निकलते वक्त अमन के कंधे पर उसका बैग टंगा देखा तो पूछा, अमन..! ये बैग ले कर तुम कहां जा रहे हो। मैं भी स्टेशन चल रही थी कि तुम्हारे साथ लौट आऊंगी।"
अमन ने आंटी को समझाते हुए कहा,
"आंटी..! अब विक्टर भाई तो अपने गार्ड वाले डिब्बे में रहेंगे। बाऊ जी बीमार हैं उन्हे कुछ होश ही नहीं है कि कौन क्या है..? फिर पुरवा की देख भाल कौन करेगा..? इस माहौल में एक लड़की को अकेले छोड़ना ठीक नही है। मैंने यही सब सोच कर फैसला लिया है कि मैं भी साथ चला जाता हूं। फिर विक्टर भाई के साथ ही वापस भी लौट आऊंगा। आप बिलकुल भी स्टेशन मत जाइए आंटी। माहौल बिगड़ने में जरा सी भी देर नहीं लगती मैं देख चुका हूं।"
वैरोनिका ने पुरवा को गले लगा कर रूंधे कंठ से सदा खुश रहने का आशीर्वाद सिर पर हाथ रख कर दिया। सजल नेत्रों से उन्हें जाते हुए निहारती रही। जब तक वो दिखे बाहर ही खड़ी रही।
अभी तक हमेशा ही से अकेली रहती आई थी बैरोनिक। उसे इसकी आदत सी हो गई थी। पर चंद दिनों के लिए पुरवा और अमन ने उसकी जिंदगी में आकर उसकी परिवार की सुतुप्त पड़ी लालसा को जगा दिया था। अब ये खाली घर उसे कटने दौड़ रहा था। अंदर आई फिर जब नही रहा गया तो अपनी नर्स वाली ड्रेस पहनी और घर में ताला बंद कर के अस्पताल चल दी। वहां भर्ती मरीजों को उसकी जरूरत थी। अपना अकेला पन दूर करने का यही सबसे सरल तरीका उसे समझ आया।
इधर विक्टर सभी को साथ ले कर स्टेशन पहुंचा। अभी ट्रेन आ कर लगी नही थी। पर इतने लोग स्टेशन पर पहले से मौजूद थे कि कही भी तिल रखने की जगह भी नहीं बची थी।
कोई विक्टर को आगे जाने ही नही दे रहा था।
कुछ देर कोशिश को उसने फिर बिगड़ गया और चिल्ला कर बोला,
" जाओ फिर तुम.. लोग जा चुके हो..! मैं ट्रेन का गार्ड हूं। मेरे बिना ट्रेन कैसे जायेगी .? चलो मैं वापस लौट जाता हूं। तुम लोग खुद ही ले कर चले जाना।
विक्टर की इतनी बात सुन कर सभी थोड़ा थोड़ा सिमट कर उसे आगे जाने की जगह दे दी।
विक्टर अमन, अशोक, और पुरवा को साथ ले कर आगे पटरियों के पास आ कर खड़ा हो गया।
उनके आते ही दो मिनट बाद ट्रेन भी आ कर खड़ी हो गई।
लोगों का रेला उसमे चढ़ने को उतावला हो गया। एक दूसरे को धक्का देते हुए वो अंदर जाने की कोशिश करने लगे।
विक्टर ने सबसे पीछे लगे अपने गार्ड वाले डिब्बे के बगल वाले डिब्बे में अशोक, अमन और पुरवा को आराम से बिठा दिया। अशोक को खास कर एक पूरी सीट दिलवा थी अपनी हनक से कि वो बीमार है, उन्हे आराम की जरूरत है।
ठसा ठस भरी हुई ट्रेन दस मिनट में अपने गंतव्य की ओर रवाना हो गई। विक्टर ने अमन को समझा दिया था कि कोई भी परेशानी हो तो तुरंत उसके पास आ जाए या आवाज लगा कर बुला ले।
अशोक लेटते ही दवा के असर से तुरंत सो गए।
सामने की सीट पर पुरवा और अमन बैठे हुए थे। रात गहराते ही पुरवा के ऊपर नींद हावी होने लगा।
अमन ने अनुरोध कर के उसे लेटने को बोल दिया। खुद उसका सिर अपने पैरो पर रख कर बैठा रहा।
नदी, नाले, तालाब, पर्वत, पहाड़ी, खेत खलिहान, ऊसर बंजर भूमि पर करते हुए ट्रेन रुकती, चलती अपनी मंजिल की ओर बढ़ी जा रही थी।
अमन ने पुरवा से उसके घर का पता पूछ कर टेलीग्राम कर दिया था। कल जरूर गोरखपुर किसी को आने के लिए लिखा था। अब जाने कोई आएगा भी नही। अगर नहीं आयेगा तो क्या.. पुरवा .. अकेली गोरखपुर से सिवान और फिर उसके बाद सिंधौली, बाऊ जी को इस हालत में ले कर चली जायेगी..!
बार बार उर्मिला मौसी का चेहरा उसकी जेहन में उभर रहा था। अगर ये सब कुछ उनके साथ नही हुआ होता तो अब तक तक ये लोग अपने घर में होते।
पंजाब हरियाणा को पर कर अब गाड़ी उत्तर प्रदेश में आ चुकी थी। जहां भी जिस स्टेशन पर ज्यादा ठहराव होता विक्टर उनका हाल पूछने जरूर आता। साथ में कुछ खाने के लिए भी जरूर लाता था।
तीसरे दिन सुबह छह बजे ट्रेन गोरखपुर स्टेशन पर पहुंच गई।
पुरवा जैसे जैसे अपने के करीब पहुंच रही थी, उसकी घबराहट बढ़ती ही जा रही थी।
बाऊ जी की तो ऐसी हालत है, उनको तो पता ही नही है कि कैसा तूफान आ कर उनके घर को उजाड़ कर जा चुका है। अब है अगर कुछ तो बस पछतावा और अफसोस अपनी अम्मा को नही बचा पाने का।
पर कहीं मन के किसी कोने में थोड़ी सी तसल्ली थी कि सभी को भले ना सही पर काम से कम एक दोषी को, एक गुनहगार को उसके किए की सजा वो दे चुकी है।