भाग 75
पुरवा लेटी हुई थी और अमन वही पास में खामोशी में बैठा हुआ था। पुरवा की तबियत खराब होने से उसका डॉक्टरी की पढ़ाई का फैसला और भी मजबूत हो गया। अब फिर से काढ़ा पिलाने का समय हो गया था।
काढ़ा और बूटी का असर शुरू हो गया था।
पुरवा जो अभी तक चादर को खूब कस कर खुद से लपेटे हुए थी। अब उसे गरमी लग रही थी। चादर आधा खिसका दिया। फिर थोड़ी ही देर में और पसीना होने लगा।
अमन ने फिर से खुराक देने के पहले पुरवा का माथा छुआ तो वो पसीना हो कर बिलकुल ठंडा हो गया था।
अमन अम्मी के बताए अनुसार जड़ी निकालने लगा। वो उसे निकाल कर घिसकर पुरवा को पिला दिया।
कुछ समय बिताने की गर्ज से जिस अखबार के टुकड़े में जड़ी रख कर पुरोहित जी ने दी थी उसे खोल कर पढ़ने लगा। हेड लाइन पढ़ते ही उसका दिमाग चकरा गया।
पंजाब में बहुत बड़ा बवाल हो गया था। ऐसे ही किसी चाय पानी की दुकान पर हिंदू, सिक्ख और मुस्लिम आपस में बातें कर रहे थे। कोई देश के बंटवारे के पक्ष में था कोई विपक्ष में। कोई गांधी का समर्थन कर रहा था तो कोई जिन्ना का, कोई पटेल का।
सब के अपने अपने तर्क थे। सभी को अपनी ही बात, अपना ही पक्ष सही लग रहा था।
किसी को अंदाजा नहीं था कि बात इतनी बिगड़ जाएगी। बहस करते करते, खुद को सही साबित करते करते। बात इतनी बढ़ गई कि तू तड़ाक से हाथा पाई पर आ गई।
फिर जल्दी ही दो गुट बन गए।
आपस में मार पीट करने लगे। एक सिक्ख के पास तलवार मौजूद थी। आवेश में उसके उससे वार कर दिया।
दूसरा पक्ष अपनी हार होते देख वहां से चला गया।
फिर रात में हारने वाले पक्ष के अपनी पूरी बिरादरी को इक्कठा कर लिया और जो जो लोग उनके विरोध में बोल रहे थे। उनके घरों पर लाठी डंडे, तलवार फरसा, से हमला कर दिया और जम कर उत्पात मचाया। कई लोगों को जान से मार डाला। उसमे निर्दोष बच्चे और महिलाएं भी शामिल थे।
इस घटना के बाद पीड़ित पक्ष कहां चुप बैठने वाला था। अब तो बात कुछ खास लोगो की ना हो कर समुदाय समुदाय की हो गई। जिसकी जहां बहुलता थी वहां उनको मारा काटा गया। ये आग धीरे धीरे पुरे देश में सुलग रही थी।
अमन का चेहरा ये सब पढ़ कर निस्तेज हो गया। अच्छी बात ये थी कि ये अखबार अंग्रेजी का। कोई पढ़ नही सकता था। अमन ने चुप चाप उसे वैसे ही रख दिया।
पुरवा और उसके माता पिता यहां उनके भरोसे ही आए हैं। जैसे भी हो उन्हें जल्दी से जल्दी यहां से सुरक्षित निकालना होगा।
इससे पहले की हालात और भी ज्यादा खराब हो।
पर पुरवा की तबियत भी तो ठीक होनी चाहिए।
उसने पूछा,
"अब कैसा महसूस हो रहा है पुरु..?"
पुरवा मुस्कुरा कर बोली,
"अब ठीक लग रहा है। पर एक दिक्कत है।"
"क्या..?" अमन ने पूछा।
पुरवा बोली,
"मुझे भूख लग रही है।"
अमन बोला,
" जो हुकुम सरकार..! अभी आपके खिदमत में कुछ खाने के लिए ले कर आता हूं।"
इधर पूजा पूर्ण हो गई थी। अब बस आरती भर होना था।
पुरोहित जी सलमा से बोले,
"पुत्री..! देखो अगर बिटिया की तबियत में कुछ आराम हुआ हो तो उसे भी आरती में शामिल कर लो। उसने इन पांचों दिन बहुत सेवा की है। बच्चो को भी बुला लो।"
सलमा "जी पुरोहित जी ..! " कह कर अमन और पुरवा को बुलाने के लिए उठ गई।
इधर अमन पुरवा के लिए कुछ खाने के लिए व्यवस्था करने उठा था। तभी सलमा ने कमरे में प्रवेश किया और अमन से पूछा,
"तुम कहां जा रहे ..?"
अमन बोला,
" वो पुरवा को कुछ आराम महसूस कर रही है। वो कुछ खाना चाह रही है। उसी की व्यवस्था करने जा रहा हूं।"
सलमा बोली,
"अभी कुछ देर और ठहरो बिटिया..! पूजा खत्म हो गई है पुरोहित जी आरती करने जा रहे हैं।इसके बाद प्रसाद मिलेगा।चलो तुम दोनो भी आ जाओ। पुरोहित जी ने तुम दोनो को बुलाने ही भेजा है।"
इतना कह कर सलमा आरती में डालने के लिए कुछ पैसे ले कर अमन को पुरवा को जल्दी से साथ ले कर आने को बोल कर चली गई।
अमन ने हल्का सा सहारा अपने हाथो का दे कर पुरवा को उठने में मदद की।
पुरवा ने झोले में से अपनी साफ ओढ़नी अमन से मांगी। अच्छे से ओढ़ कर धीरे धीरे पैर रखते हुए मंदिर की ओर जाने के लिए चल पड़ी।
अमन ने अपना हाथ आगे कर बोला,
"पुरु..! सहारा ले लो। आराम से चल सकोगी।"
पुरवा ने अमन के अपनी ओर बढ़े हाथ को संकोच से देखा।
आराम तो वाकई उसे मिलता अमन के हाथ का सहारा ले कर। पर कैसे वो सब के सामने एक पराए लड़के का हाथ पकड़ कर चले।
अमन जैसे उसके मन की उलझन समझ गया।
वो बोला,
"बबराओ मत.. पुरु कोई कुछ नही कहेगा। अगर ऐसा है तो अभी तो सहारा ले कर चल ही सकती हो यहां कोई नहीं है। आगे चल कर छोड़ देना भाई मेरा हाथ। मैं कुछ नहीं कहूंगा।"
अमन ने इतना कह कर पुरवा को अपने हाथ का सहारा देने के लिए हाथ पकड़ लिया।
वो मंदिर के करीब पहुंचे तो पुरवा ने एक झटके से अमन का हाथ छोड़ दिया और दीवार का सहारा ले कर चलने लगी। फिर वही उर्मिला के करीब आ कर बैठ गई।
पुरोहित जी ने पुरवा के ऊपर जल छिड़क कर उसका शुद्धि करन किया और फिर उससे भी आरती करवाई।
बड़े ही दिव्य, अलौकिक माहौल में आरती के साथ ही पांच दिनों से चल रहा अनुष्ठान पूरा हो गया।
पुरोहित जी ने सब को प्रसाद दिया और फिर भंडारे में बन रहे प्रसाद को ग्रहण कर वापस लौटने की आज्ञा दे दी।
साथ ही अशोक को अपना और अपने परिवार का खास ध्यान रखने के लिए बोला। साथ ही चेताया,
"पुत्र..! होनी तो हो कर रहती है, उसे कोई टाल नही सकता। बस इस अनुष्ठान के माध्यम से ये करने की कोशिश की है कि कम से कम अहित हो सके।आगे प्रभु की इच्छा बेटा।"
इतना कह कर पुरोहित जी चले गए।