भाग 45
इधर पुरवा की चाय भी तैयार हो गई।
वो जब तक तीन गिलास में चाय ले कर आई सतुआ पिस गया था। वो अशोक को चाय की गिलास पकड़ाया और उनके कंधे पर तारीफ के अंदाज में हाथ रखते हुए मुस्कुरा कर बोली,
"वाह..बाऊ जी..! आप तो छुपे रुस्तम निकले। आप तो बड़े गुनी हैं। इतनी इतना सारा सतुआ इतनी जल्दी पीस डाला। अम्मा तो अभी इसे अकेले पीसने में दो घंटे से ज्यादा ही लगाती। हम तो जानते ही नहीं थे कि आपको ये सब भी आता है।"
अशोक ने चाय की चुस्की ली और उर्मिला को छेड़ते हुए बोले,
"हूं.. पुरवा..! मानना पड़ेगा.. स्वाद है तेरे हाथ की बनी चाय में। ( फिर खुद की तारीफ करने के अंदाज में बोला) ये तो बहुत ही जरा सा काम है तेरे बाऊ जी के लिए। देखा नही… तूने कितनी जल्दी निपटा दिया। तेरी मां इसी के लिए रोना रोती रहती है कि बहुत काम है। सारा दिन सांस लेने की भी फुर्सत नहीं मिलती।"
उर्मिला रंग बदलते हुए पति को देख रही थी। अभी कुछ देर पहले इसकी उंगलियों को स्पर्श कर जो आनंदित हो रहे थे। अब उसकी कमियां निकाल रहे हैं। बड़े ही मौके बाज है अशोक। ये वो जान गई।
उर्मिला ने भी हाथ साफ कर चाय का पहला घूंट भरा और वो चाय के स्वाद से संतुष्ट हो गई। वो बोली,
"अब तू भी अच्छी चाय बनाने लगी है। अंदाज मिल गया है, कितनी चीनी.. कितनी पत्ती… कितना दूध डालना है। धीरे धीरे तुम्हे सब कुछ सिखा देंगे हम अपनी बिटिया को। फिर ससुराल में कोई ताना नही दे पाएगा। ना तुझे ना मुझे कि तेरी मां ने क्या सिखाया है तुझे..?"
अशोक तो वैसे ही शांत दिमाग वाले थे। और अभी इस वक्त कुछ और भी अच्छा मन था उनका। उर्मिला को चाची के साथ हुई बात- चीत को उनसे बताने का सही वक्त लगा। चाय खत्म होने पर अशोक बाहर जाने लगे काम करने के लिए।
बाहर जाने के लिए उठे अशोक को उर्मिला ने रोका और बोली,
"सुनिए जी.…! थोड़ा बैठ जाइए। आपको कुछ बताना है।"
अशोक को लगा कहीं गुलाब बुआ ने तो कोई संदेशा नही भेजा है, जो उर्मिला रोक रही है बताने को। चाची को घर को देख- भाल को ले कर तो कोई अंदेशा उसके मन में था ही नहीं। वो पूरी तरह आश्वस्त था कि चाची इस बात के लिए मना नहीं करेंगी।
अशोक वैसे होता तो इस वक्त अपने काम का अकाज कर के इस वक्त नहीं बैठता। पर उर्मिला ने रोका है तो जरूर ही कोई गंभीर बात होगी। इस लिए अशोक बैठ गया।
उर्मिला बोली,
"सुबह सारा काम निपटाने के बाद आप के कहे मुताबिक मैं चाची के घर गई थी। पहले तो वो मना की कि हम इतनी दूर जाएं ही नही। फिर जब मैं रुकने को राजी नहीं हुई तो तैयार हो गई बड़के भईया से कह कर घर की देख- भाल करवाने को। पर थोड़ी ही देर उन्हें पता नही क्या हो गया..! जब मैं अंदर से सब से मिल कर वापस लौटने लगी तो मुझे आवाज दे कर वापस बुलाया और एक झटके से बड़ी ही रुखाई से मना कर दिया।"
फिर उर्मिला ने जो कुछ भी चाची ने कहा था, उसे विस्तार से सब कुछ अशोक को बताया।
बात खत्म होते- होते अशोक के माथे पर चिता की रेखाएं उभर आईं। वो गंभीर स्वर में बोले,
"फिर… अब क्या किया जाए…? जानवरों को ऐसे ही तो नही छोड़ा जा सकता। अब यही है कटास -राज की महिमा। जब तक वो नही चाहेंगे, उनके दर्शन कोई थोड़े ना कर सकता है।"
उर्मिला बोली,
"हां पुरवा के बापू..! ये तो आप सही कह रहे हो। बिना उनकी मर्जी के कोई उनके दर्शन नही कर सकता। इसी लिए तो उन्होंने एक रास्ता बंद होने पर दूसरा रास्ता खोल दिया।"
उर्मिला की बात सुन कर निराश अशोक के चेहरे पर थोड़ी सी उम्मीद की रौशनी दिखाई दी। अशोक उत्सुकता से बोले,
"कैसा दूसरा रास्ता पुरवा की अम्मा..! मुझे जल्दी बताओ। तुम ना रुक- रुक के एक एक बात बताती हो। पूरी बात नही बताती।"
उर्मिला बोली,
"इत्मीनान रक्खो। बता रही हूं पूरी बात।"
"वो…. जब आप घर में आए तो देखा था ना धनकू बहू को जाते हुए। वो आई तो थी प्याज मांगने। पर मुझे विचार आया कि इससे कह कर देखती हूं। अगर ये राजी हो जाए तो कोई समस्या नहीं हो। वरना चंदू नंदू को उनके मामी- मामा संग बुलाना पड़ता। पर जब दूध- दही इस्तमाल करने को बोले हम उसको तो झट से खुशी -खुशी राजी हो गई।"
अशोक बोले,
"ये तो बड़ा ही अच्छा किया तुमने। अब पड़ोसी हैं उनसे ज्यादा कोई और थोड़ी ना संभाल पाएगा। सबसे अच्छी बात तो ये है कि भरे पेट को खिलाने से क्या फायदा…? संतुष्टि तो तब मिलती है जब किसी जरूरत मंद को खिलाओ। चाची अगर राजी होती देख- रेख को तो दूध भी उन्हीं के घर जाता। उनके घर तो पहले से ही इफरात है सब कुछ। बेचारे धनकू का परिवार कुछ दिन तो कायदे से खा- पी लेगा। चंदू -नंदू के आने से उनकी पढ़ाई का हर्जा होता। फिर वो भी तो जिद्द करते साथ चलने को।"
धनकू को घर की देख- रेख सौंपने के अपने निर्णय से अशोक को सहमत होते देख उर्मिला ने चैन की सांस ली। वरना उसे डर था कि अशोक से पूछे बिना धनकू बहू को कह दिया है। वो नाराज न हो जाए।
अशोक खड़े होते हुए बोले,
"चलो… फिर तुमने सब कुछ जाने का निर्णय कर ही लिया। अब तो बस जाने की तैयारी करो। मैं चलूं अपना काम निपटा लूं। जानवरों को सानी पानी डाल दूं। फिर थोड़ा उरद भी सींच दूं।"
उर्मिला बोली,
"हां… हां… जाइए.. जब प्याज देने को बोला था हमने तब तो बड़ा चिढ़ रहे थे। अब… अब… मानते हो ना मुझको। मैं जो कुछ भी करती हूं। सोच समझ कर दिमाग लगा कर करती हूं।"
अशोक बोले,
"हां.. मानता हूं भाई.….! ये घर तुम्हारे भरोसे ही इतना बढ़िया से चल रहा है। मैं इतना सब-कुछ थोड़े ही कर पाता हूं। पर पुरवा की मां ..! चाची से हमको ऐसी उम्मीद नहीं थी। हम हर वक्त उनके लिए खड़े रहते हैं पर जब आज हमारा कुछ मौका लगा उनकी मदद लेने का तो साफ मुकर गई। इसका हमको दुख रहेगा।"