Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 174 in Hindi Motivational Stories by Dr Yogendra Kumar Pandey books and stories PDF | गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 174

Featured Books
Categories
Share

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 174

जीवन सूत्र 541 भक्ति प्रलोभनों से डगमग ना हो

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-


मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।

विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि। 13/10

अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।

एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोन्यथा।(13/11)।


इसका अर्थ है:- ज्ञान के विषय में बताते हुए भगवान कृष्ण अर्जुन से आगे कहते हैं कि परमेश्वर में अनन्य योग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति का होना,एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव होना और जन-समुदाय में प्रीति का न होना।अध्यात्मज्ञानमें नित्य-निरन्तर रहना, तत्त्वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को सब जगह देखना,ये सब ज्ञान है; और जो इसके विपरीत है वह अज्ञान है, ऐसा कहा गया है।

वास्तव में अव्यभिचारिणी भक्ति का मतलब है,निश्चल भक्ति जो डगमगाए ना,डांवाडोल न हो।


जीवन सूत्र 542 ईश्वर को मानें अपना सर्वस्व

केवल परमपिता परमेश्वर को ही अपना स्वामी और सर्वस्व मानते हुए अगर मनुष्य स्वार्थ और घमंड भाव का त्याग कर दे।साथ ही श्रद्धा और भक्ति भाव के साथ निरंतर प्रेम पूर्वक भगवान का ही चिंतन स्मरण करता रहे तो यह अव्यभिचारिणी भक्ति है। मीरा की भक्ति अनन्य थी। मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।सूर की भक्ति अनन्य थी।अबकि राखि लेहु भगवाना। वे भगवान कृष्ण के चरणों में शरण लेना चाहते हैं। तुलसी की भक्ति श्रीराम के प्रति अनन्य है और हर वेश में उन्हें भगवान राम ही दिखाई देते थे।

जीवन सूत्र 543 फल ना मिलने पर भगवान को ही बदल देना गलत


वर्तमान समय में मनुष्य अपनी भक्ति को अविचलित नहीं रख पाता है।नितांत वैयक्तिक अवधारणा होते हुए भी वह एक बार एक ईश्वर तो दूसरी बार दूसरे भगवान की आराधना करने लगता है।उसकी बुद्धि भगवान के स्वरूपों में भी स्थिर नहीं रह पाती है। ऐसे में तमाम तरह के सांसारिक लोभों के बीच ईश्वर; जिसे वह चाहे जिस नाम से जाने और जिस-जिस नाम से उनकी पूजा करना चाहे; के प्रति एकनिष्ठता हो ही नहीं सकती है। यहां भगवान कृष्ण का तात्पर्य एक ही देव की पूजा से नहीं है बल्कि उनका तात्पर्य उस एक परमात्मा तत्व के प्रति एकनिष्ठ श्रद्धा और भक्ति से है।कोलाहल और भीड़भाड़ में रहकर कार्य करना और इन सबसे दूर रहकर एकांतप्रियता में अंतर है।


जीवन सूत्र 544 मन में रखें एकांतप्रियता


कर्तव्य पालन करने के लिए आवश्यकता के अनुसार भीड़ या कोलाहल के वातावरण में जाना उचित है लेकिन मन से एकांतप्रिय होना ईश्वर की भक्ति में सहायक है।ईश्वर और आत्म तत्व का ज्ञान ही अध्यात्म है।

जीवन सूत्र 545 विषय भोगों से भी बड़े आकर्षण ईश्वर की ओर मुडें

वास्तव में विषयभोगों से मनुष्य का मन तभी उचटेगा,जब इससे भी बड़ा आकर्षण, ईश्वरीय आकर्षण उसके सम्मुख होगा। अनेक बार हम इस ईश्वरीय आकर्षण की जाने-अनजाने अनदेखी कर देते हैं। अब इसे समझने और पहचानने में थोड़ा परिश्रम तो लगेगा ही।




(मानव सभ्यता का इतिहास सृष्टि के उद्भव से ही प्रारंभ होता है,भले ही शुरू में उसे लिपिबद्ध ना किया गया हो।महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत,महाभारत आदि अनेक ग्रंथों तथा अन्य लेखकों के उपलब्ध ग्रंथ उच्च कोटि का साहित्यग्रंथ होने के साथ-साथ भारत के इतिहास की प्रारंभिक घटनाओं को समझने में भी सहायक हैं।श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)

(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)



डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय