Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 7 in Hindi Motivational Stories by Dr Yogendra Kumar Pandey books and stories PDF | गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 7

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 7

शिकायत छोड़ें, सुख दुख समझें एक समान

छात्रावास के बालक पृथ्वी को हर चीज से शिकायत रहती है।मानो उसने शिकायत करने के लिए ही जन्म लिया है।छात्रावास में उसे कोई भी असुविधा हुई तो शिकायत।नल में पानी नहीं आ रहा,तो "कुछ समय में मिल जाएगा" की सूचना मिलने के बाद भी शिकायत। पढ़ने के समय भी उसका ध्यान इसीलिए विचलित रहता है।स्वयं की पढ़ाई पर ध्यान देने के बदले वह"और बच्चे क्या कर रहे हैं",इस पर अधिक ध्यान देता है। अभी ठंड के दिन हैं और उसकी शिकायत प्रकृति में पड़ रही कड़ाके की ठंड से लेकर उसके अनुसार सूर्यदेव के आलस्य तक से है।आचार्य सत्यव्रत ने ठंड का सामना करने के लिए छात्रावास में पर्याप्त प्रबंध करवा रखा है। पृथ्वी है कि उसे अपने लिए अलग से सुविधा चाहिए।छात्रावास के एक कमरे में चार बालक रहते हैं।वहां प्रत्येक विद्यार्थी के लिए बिस्तर,पढ़ने की टेबल,एक टेबल लैंप,सामान व किताबें रखने के लिए अलमारी और ठंड के दिनों में एक गीजर की व्यवस्था है,ताकि कक्ष में गरम पानी मिल सके। कुल मिलाकर छात्रावास में न अधिक सुविधाएं हैं और न अभाव की स्थिति है।वहीं पृथ्वी है कि उसे किसी भी स्थिति में संतुष्टि नहीं होती है।

आज की सांध्य चर्चा में पृथ्वी ने आचार्य से शिकायत के स्वर में कहा:-

पृथ्वी: आचार्य जी,भीषण भीषण ठंड पड़ रही है। सुबह उठकर योगाभ्यास के लिए जाना मुझसे तो संभव नहीं है । मुझे तो इस ठंड के कारण बहुत परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। क्या कोई ऐसा उपाय नहीं है गुरुदेव कि ठंड का प्रकोप कम हो जाए?

आचार्य ने मुस्कुराते हुए कहा: -

आचार्य सत्यव्रत : शीत ऋतु में वातावरण का ठंडा होना प्रकृति की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है,पृथ्वी।हमें इसे सहन करना ही होगा।

गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से अध्याय 2 के 14 वें श्लोक में कहा भी है:-

हे कुन्तीपुत्र!शीत- उष्ण और सुख-दुख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग का प्रारम्भ और अन्त होता है।उनकी उत्पत्ति होती है तो विनाश भी होता है।वे अनित्य हैं।इसलिए,हे भारत !उनको तुम सहन करो।

पृथ्वी:आचार्य जी,आपके कहने का मतलब यह है कि चाहे जितनी ठंड पड़े,हम लोग इसे सहन कर लें।यहां तक कि हम लोग ठंड से बचाव के लिए पर्याप्त व्यवस्था भी न करें।

आचार्य सत्यव्रत: नहीं पृथ्वी! तुम ठीक तरह से नहीं समझ पाए। ठंड को सहन करने का मतलब यह नहीं है कि कोई व्यक्ति शीत लहर में भी बिना गर्म कपड़ों के रहे और बाहर निकल जाए। जैसे वर्षा से बचाव के लिए छाता जरूरी है,उसी तरह से ठंड से बचाव के अपने सुरक्षा उपाय तो अपनाने ही होंगे।हां, हमें दृष्टिकोण को बदलना होगा। हमें अपने ध्यान को बार-बार इस अनुभूति से दूर ले जाना होगा कि बहुत ठंड पड़ रही है और मैं ठिठुर रहा हूं।

पृथ्वी: तो क्या आचार्य जी "ठंड नहीं पड़ रही है", ऐसा सोच लेने मात्र से ठंड कम हो जाएगी?

आचार्य सत्यव्रत: नहीं पृथ्वी, ठंड तो कम नहीं होगी लेकिन उस ठंड को सहन करने की तुम्हारी क्षमता बढ़ जाएगी। फिर यह भी तो सोचो कि देश के अनेक लोगों के पास आज भी पर्याप्त गर्म कपड़े उपलब्ध नहीं हैं।अत्यधिक ठंड के उस चिंतन ने तुम्हें तुम्हारे स्वाभाविक कर्मों को करने से रोक दिया है,इसलिए तुम मौसम की एक अवस्था को मुसीबत के रूप में ले रहे हो। यह एक तरह का आलस्य ही है।

पृथ्वी: समझ गया गुरुदेव।

आचार्य सत्यव्रत ने उपस्थित श्रोताओं के समक्ष अब अगले अर्थात 15 वें श्लोक का दार्शनिक अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा:-

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।

समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।2/15।।

इसका अर्थ है,हे पुरुषश्रेष्ठ ! दुख और सुख में समान भाव से रहने वाले धीर पुरुष को इंद्रियों और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते हैं।ऐसा व्यक्ति मोक्ष का अधिकारी होता है।

वास्तव में यह बहुत कठिन होगा कि दुःख और सुख को एक जैसा मान लिया जाए।जीवन में सुख और दुख दोनों का प्रवाह होता है।यह स्वाभाविक है कि सुख का प्रसंग आने पर हमारा मन खुशी से झूम उठता है और दुख आने पर हम शोक और कभी-कभी अवसाद में डूब सकते हैं।विषयों में प्रबल आकर्षण होता है और हमारी इंद्रियां उसके अभिमुख होती हैं।आकर्षण का एक कारण अलग-अलग चीजों के प्रति अवस्थाजन्य भी होता है।बचपन में तितलियों,पत्तियों, रंगबिरंगे फूलों और पशुपक्षियों को देखकर प्रसन्न होने वाला मन किशोरावस्था में अपने स्वतंत्र या स्वायत्त अस्तित्व की तलाश करता है तो यौवन में अधिकारभाव चाहता है। अगर उम्र के उत्तरार्ध में मनुष्य ईश्वर या उस परम सत्ता; जिसे वह अपनी-अपनी आस्था के अनुसार अलग-अलग नामों से जानता है की ओर न मुड़े, तो फिर जीवन में सारी प्राप्त चीजों के छूटने का भाव पैदा होगा और यह उसके अविचलन, दुख व अशांति का कारण बनने लगता है।अतः यह कठिन अवश्य है लेकिन हम सुख और दुख दोनों को समान मानकर अधिक से अधिक संतुलित रहने की कोशिश करें। हम यह सोचें कि दुख और सुख दोनों ही स्थायी नहीं हैं और आते-जाते रहते हैं।ऐसे में इंद्रियों व विषयों के संयोग हमें व्याकुल नहीं करेंगे।

डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय