Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 67 in Hindi Motivational Stories by Dr Yogendra Kumar Pandey books and stories PDF | गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 67

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 67

जीवन सूत्र 79 & 80 भाग 66


जीवन सूत्र 79: स्वयं के कर्ता होने का भ्रम न पालें

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-


प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।

अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।(3.27)।


इसका अर्थ है- वास्तव में संपूर्ण कर्म सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं तो भी जिसका अंतःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है, ऐसा अज्ञानी 'मैं कर्ता हूं' ऐसा मानता है।

इस श्लोक से हम "कर्मों में कर्तापन के अभाव" इन शब्दों को एक सूत्र के रूप में लेते हैं। कर्मों को लेकर आसक्ति से बंधने का एक प्रमुख कारण है कर्मों को लेकर स्वयं में कर्तापन का भाव।यह भाव मनुष्य को अहंकार की ओर ले जाता है। मनुष्य संसार की उन क्रियाओं से बंधता है,जिन्हें वह अपना मानता है या अपने लिए आवश्यक मानता है।वास्तव में मनुष्य कुछ पाने के लिए भी कर्म करता है और यह कहना अव्यावहारिक होगा कि हर मनुष्य को अपने जीवन में कोई कर्म कुछ पाने के दृष्टिकोण से नहीं करना चाहिए। अगर ऐसा होगा तो वह मेहनत से दो वक्त की रोटी कमाने के लिए श्रम कैसे करेगा? अपने परिवार का भरण पोषण कैसे करेगा? आखिर कर्म तो उसे करना होगा और अगर कर्म कर रहा है तो कहीं न कहीं एक उत्तरदायित्व बनता है।उदाहरण के लिए किसी संस्था में अगर वो किसी पद पर कार्यरत हैं तब तो उसे सुनिश्चित कार्य आवंटित होते हैं और वह यह तो नहीं कह सकता कि इस कार्य के लिए वह जिम्मेदार नहीं है क्योंकि कर्मों में कर्तापन नहीं होना चाहिए और जो उसने कर दिया सो कर दिया। वास्तव में कर्तापन के अभाव का तात्पर्य अपनी ज़िम्मेदारी का अभाव या कर्मों का त्याग भी नहीं है। वस्तुतः कर्मों को तो पूरी दक्षता से भली प्रकार करना चाहिए लेकिन अहंकारपूर्वक यह मान लेना कि 'मेरे कारण ही यह कार्य संपन्न हुआ है' और 'मैं ही इस कार्य को बेहतर तरीके से कर सकता हूं' इस सोच का त्याग होना ही कर्तापन का अभाव है। वास्तव में अगर मनुष्य यह सोच अपने भीतर ला सके कि कर्ता के बदले वह इन कार्यों को करने का माध्यम है तो वह बिना मोह- माया के, संतुलित ढंग से और अधिक कुशलता के साथ किसी कार्य को संपन्न कर सकता है।


जीवन सूत्र 80 :सत्व, रजस और तमस गुणों में संतुलन तथा नियंत्रण जरूरी


मनुष्य का राग है कि कर्मों से छूट नहीं पाता है।वह स्वयं को कर्मों का कर्ता मान लेता है कि मैंने यह किया,मैंने वह किया। कुछ क्रियाएं स्वतः होती हैं।जैसे सोना,पलकें झपकाना आदि। कुछ क्रियाएं मनुष्य की चेष्टा से संपन्न होती हैं, जैसे चलना,उठना बैठना आदि। कुछ क्रियाओं में वह विचारपूर्वक निर्णय लेता है कि यह कार्य संपन्न करना है।इसे इस तरह से करना है या उस तरह से करना है।इसमें उसके विवेक और लिए गए निर्णय की बड़ी भूमिका होती है। प्रश्न यह है कि ऐसे कार्यों में वह स्वयं को कर्ता क्यों न माने?वहीं श्री कृष्ण यह घोषणा करते हैं कि सभी प्रकार के कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा ही किए जाते हैं।

वास्तव में सभी प्रकार के कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा ही किए जाते हैं और मनुष्य भूलवश इन कार्यों से प्रभावित होने के बाद भी यह मान बैठता है कि मैंने स्वतंत्र रूप से निर्णय लेकर यह कार्य किया है।प्रकृति में 3 गुण सत्व,रजस और तमस प्रभावी हैं।हम अपने दैनिक जीवन में इन तीनों गुणों से प्रभावित होते रहते हैं और इनसे बाहर भी होते रहते हैं।सत्व गुण हमें सकारात्मक बनाता है।संतुष्टि सिखाता है और आनंद से भर देता है।रजस गुण अनेक क्रियाओं के संचालन में प्रेरक का कार्य करता है।तमस गुण हममें आलस्य और अक्रियता उत्पन्न करता है।कुल मिलाकर हमारे सात्विक कार्य भी किसी ना किसी गुण से प्रभावित अवश्य हैं।यही है प्रकृति के गुणों द्वारा परवश होकर कर्म करना।अब यह हम पर निर्भर है कि हम ध्यान,योग और थोड़े अभ्यास से किस गुण के खेमे में जाएं।


डॉ.योगेंद्र कुमार पांडेय