Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 37 in Hindi Motivational Stories by Dr Yogendra Kumar Pandey books and stories PDF | गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 37

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 37

भाग 36 जीवन सूत्र 40,41


जीवन सूत्र 40 प्रेम और कर्म में संतुलन है आवश्यक


गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है: -

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।

नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठित।।2/57।।

इसका अर्थ है, हे अर्जुन!जो सर्वत्र स्नेहरहित हुआ,उन शुभ या अशुभ वस्तुको प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है,उसकी बुद्धि स्थिर है।

स्थितप्रज्ञ मनुष्य के अन्य लक्षणों पर प्रकाश डालते हुए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि जिस मनुष्य की बुद्धि स्थिर हो जाती है ,वह चहुंओर अतिरेक स्नेह की भावना से रहित हो जाता है। जिन वस्तुओं या अभीष्ट की प्राप्ति को वह शुभ मानता है, उनके मिलने पर भी वह प्रसन्न नहीं होता।जिन वस्तुओं या अभीष्ट की प्राप्ति या खोने को वह दुख का कारक मानता है,ऐसे संयोगों पर भी वह अप्रसन्न नहीं होता।

महाभारत के आसन्न युद्ध से पलायन कर अर्जुन अपने जीवन से भी पलायन करना चाहते थे। वे विपरीत परिस्थितियों को भावनाओं के वशीभूत होकर स्वीकार करने से मना कर रहे थे। आखिर वे युद्ध से भागकर जाते कहां? अगर विनाशकारी युद्ध तय ही हो गया था, तो उनके हथियार रखने के बाद और युद्ध क्षेत्र से दूर चले जाने के बाद भी कौरव उन पर भी अवश्य प्रहार करते। श्री कृष्ण ने उन्हें यही समझाने की कोशिश की, कि पलायन करने के स्थान पर आसक्ति और घृणा के भावों को समता से लेकर कर्म करते रहने की आवश्यकता है। इससे वैराग्य और संन्यास लेने की भी आवश्यकता नहीं रहेगी और अर्जुन युद्ध के क्षेत्र में रहते हुए भी संतुलित रह सकते हैं, जो उस समय की आवश्यकता थी।

हमारे व्यावहारिक जीवन में भी अर्जुन जैसी परिस्थितियां छोटी - छोटी चीजों को लेकर भी आ सकती हैं। ऐसे अवसरों पर हमारा स्नेह,हमारी अप्रसन्नता हमारी अरुचि झलकते रहती है। अब अगर इन चीजों से हमारा बचाव नहीं हो सकता है, तो हमें रोने- धोने की बजाय सम होकर अकर्तापन व साक्षी भाव से इन स्थितियों का सामना करना चाहिए।जब हृदय विपरीत परिस्थितियों में भी आनंद को ढूंढना सीख जाता है,तो जीवन की प्रतिकूलताएं स्वतः ही समाप्त होने लगती हैं।


जीवन सूत्र: 41 विषयों से ध्यान हटाना आवश्यक


गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है: -

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।


इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2/58।।

इसका अर्थ है, हे अर्जुन!जिस तरह कछुआ अपने अङ्गोंको सब ओरसे समेट लेता है, ऐसे ही जिस कालमें यह कर्मयोगी इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकारसे हटा लेता है,तब उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है।

इंद्रियों के विषयों से इंद्रियों को पृथक करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। अगर हमारी आंखें खुली है और सामने स्वादिष्ट भोजन रखा हुआ है, हमें भूख भी लगी हुई है,तब ऐसे में हमारा ध्यान उस स्वादिष्ट भोजन की ओर जाएगा ही।दृश्य इंद्रिय का विषय है रूप। जीभ स्वादिष्ट भोजन चाहती है।आंखें बंद कर लेने से भी हमें भोजन की थाली दिखाई देती रहेगी क्योंकि भूख लगी हुई है।भूखे मनुष्य को भोजन की थाली ग्रहण करने में कोई अनुचित बात भी नहीं है।समस्या तब खड़ी होती है जब हम केवल स्वाद के नाम पर आवश्यकता से अधिक भोजन ग्रहण करने लगें। दूसरों की थाली में से वस्तुएं हथिया लें। क्षुधा पूर्ति और शरीर की आवश्यकता के बदले ठूंस -ठूंस कर मनमाना भोजन करने लगें। यहां हम जीभ के गुलाम हो जाते हैं। इस तरह से इंद्रियां हम पर हावी होने लगती हैं।

डॉक्टर ने कोई चीज खाने से मना की हुई है या उसकी अल्प मात्रा लेने को कहा है। हम हैं कि चलो एक बार खा लेते हैं,या एक बार खाने से क्या बिगड़ जाएगा? यह सोच कर अपनी कामना को विराम नहीं देते हैं।

इस श्लोक में भगवान कृष्ण ने इंद्रियों के विषयों के प्रति हमारी आसक्ति को हटाने के लिए कहा है। जब हमारा कार्य न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति के बदले सुख-भोग पर केंद्रित हो जाता है, तो वहीं से इंद्रियों की गुलामी शुरू होती है।

देखना, सुनना, स्पर्श करना, सूँघना और खाना--ये पाँचों क्रियाएँ क्रमशः नेत्र, श्रोत्र, त्वचा, घ्राण और रसना-- इन पाँच ज्ञानेन्द्रियोंकी हैं।पैर, हाथ,मुख, उपस्थ और गुदा ये पांच कर्मेंद्रियां हैं।

शरीर आत्मा के रहने का मंदिर है तो ज्ञानेंद्रियों और कर्म इंद्रियों को इसे सात्विक और पवित्र बनाए रखना होता है। इंद्रियों के विषय की आसक्ति हटती जाएगी, तो इन इंद्रियों की गुलामी स्वतः ही समाप्त हो जाएगी। विवेकपूर्ण,स्थिर बुद्धि के लिए ऐसा करना अति आवश्यक है।


डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय