मै एक नवीन लेखक अपनी इन लघु कहानियों से एक समाज की भिन्न - २ समस्याओ से ग्रस्त छवि को दिखाने का प्रयत्न करूँगा। मै हर समस्या के मध्य रह व मुझसे जूडे अनुभवो की भ्रांतियो को अपने लेख के माध्यम से आप तक प्रस्तुत करने को प्रयत्नशील रहूँगा।
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ये कहानी का दौर शुरू होता है जमुनापुर गांव में रह रहे एक परिवार से। परिवार में चार सदस्य थे। जिसमें से एक मेरी इस कहानी का मुख्य पात्र है। उसका नाम है सांभाजी। इस कहानी में मेरा छोटा सा पात्र ये है कि वह मुझे काका कहता है और मै उसे मेरा लाडला सम्भू। वो कद में छोटा-सा है। दुबला-पतला, हल्का गेहुआ रंग व उसके घुंघराले बाल बडे ही मनमोहक करते है। वैसे तो ज्यादातर समय खामोश ही रहता था। भूरी सी छोटी-छोटी आंखों में, बड़े सपने रखता था। मेरे लाडले सम्भू को पढ़ने लिखने का बहुत शोक था। अपनी बारहवीं कक्षा में पुरे जिले में उत्तिर्ण आया था। मुझे याद है मुझे आकर मिला था, बड़ा खुश था। जब मैने पूछा कि आगे क्या करेगा तो कहता है कि - काका, मैं तो बड़ा होकर आईएएस बनकर, देश की सेवा करूंगा।। बड़े ही नेक विचार थे।
उसकी एक बड़ी बहन भी थी,दुर्गा। शादी लायक हो गई थी, पर कम पढ़े लिखे होने के कारण किसी परिवार की आय का साधन नहीं बन सकती थी। तो अभी तक कुंवारी ही थी। दुर्गा पढ़-लिख नहीं पाई, क्योंकि छोटे को जो पढ़ाना था। ये गरीब परिवारों की मजबूरी ही है। खैर मैने तो सुना हैं कि रिश्ते तो ऊपर वाला बनाता है, लेकिन सच कहूं तो मैंने पिछले गत वर्षों में भगवान के बनाए रिश्तो का भी व्यापारीकरण होते देखा है। अब इसमें भला भगवान भी क्या करें। सांभाजी जी के पिताजी का देहांत हुए भी तो कई साल हो गए, शायद तब सांभाजी ग्यारहवीं में था। वे एक साहुकार के यहां लिखा- पढ़ी का काम करते थे, सरल भाषा में कहें तो मुन्शी थे। बड़े खुशमिजाज आदमी थे। अक्सर मेरे पास ताश खेलने व चाय पीने आ जाए करते थे। वे दूर का चश्मा लगाया करते थे। ओर मुझे अच्छे से याद है कि मेरे यहाँ रोजमर्रा की तरह देहांत से दो- तीन दिन पहले भी आए थे। उस समय उनका चश्मा टूटा हुआ था। मैंने कहा भी था कि पुरुषोत्तम! इसे ठीक करा लो। मगर वह करता भी, तो क्या करता। क्योंकि ठीक करने वाला व्यक्ति एक दिन का राशन जो मांग रहा था। उस से ही दो दिन बाद, जब वह दफ्तर से आ रहे थे। तो सामने से आती हुई कार नहीं दिखी और सिर्फ खबर घर आई कि वह नहीं रहे।
अब सांभाजी पर घर की सारी जिम्मेदारी आ गई। उसकी मां भी सुबह शाम घरों में साफ-सफाई करती। मगर उम्र की ज्यादा लागत देने पर भी कम ही मेहनताना मिलता था। सम्भू पढ़ा-लिखा था, तो साहुकार ने उसके पिताजी की जगह रख लिया। तजूर्बा कम था, तो तनख्वाह भी कम ही थी। वो मजबूरी व गरीबी के दाम नही होते।
जैसे तैसे पढ पाने के बावजूद बारहवीं में जिले का टाॅपर बनना आसान काम ना था। पर फिर भी मुझे फिक्र तो रहती ही थी कि कहाँ उसके आईएएस बनने का सपना पूरा हो पाएगा। आईएएस में तो वैसे ही मारामारी बहुत है। मगर उसने इस दीये को जलाए रखा और पाँच साल रात रात जाग करी कड़ी सार्थक परिश्रम के बाद वह पहली ही बार में ही इंटरव्यू तक पहुंच गया। उसकी पढाई के प्रति प्रतिभा बहुत ही आकर्षित करने वाली थी। मुझे याद है मेरे से इंटरव्यू के बाद मिलने आया था, तो कहता कि - "काका! माँ को साफ- सफाई और बहन की शादी का इंतजाम कर आया हूं।" परन्तु मै फिर भी मन ही मन घबरा सा गया, क्योकिं आईएएस तो सट्टा बाजार का खेल है, मोहनत के साथ-साथ किस्मत भी चाहिए। मै सम्भू व आपके आत्मविश्वास को अभी आघात नही देना चाहता था, तो चुप ही रहा। एक महीने बाद जब परिणाम आए तो मेरे यहाँ परिणाम देखने को आया था।
मगर अब आप हा बताए, मै कैसे बताता कि सम्भू बेटा तुम सामान्य वर्ग से हो, तुम्हारी मेहनत काफी नही है, किस्मत व सरकारी दलालो से बचो तो कुछ हो। खैर उसने हिम्मत कर सच को समझा व अपने जुनूनियत को आजमाने फिर दिन रात मेहनत करने लगा। मगर जब तक आरक्षण व सरकारी अधिकारियों का परिवारवाद रहेगा, तब तक सम्भू जैसे लाखो प्रतिभावान बच्चे गरीबी व सामान्य वर्ग के कारण अपने हक से वंचित रहेगें।
मै ये सोच कर नयी पुस्तिका के लिए लिख कर हटा ही था कि अचानक पास ही चल रहे टेलिविजन पर एक सरकारी अधिकारी की मौत की खबर सुनी, किसी माफियों का काम लगता है। मगर मुझे तो मालूम था कि पीछे कौन- सा माफिया है? ओर ये सोचते- सोचते मै अपने आप को बीस साल पहले ले गया। एक ओर यादो में जहाँ ऐसे सरकारी तंत्र का सामना मुझे भी करना पडा था...