मेरा भारत दिखा तुम्हें क्या? 6
काव्य संकलन-
मेरा भारत दिखा तुम्हें क्या?
वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्त’’
समर्पण --
धरती के उन महा सपूतों,
जिनके श्रम कणों से,
यह धरा सुख और समृद्धि-
पाकर, गैार्वान्वित बनी है,
उनके कर कमलों में सादर।
वेदराम प्रजापति मनमस्त।
दो शब्द-
आज की इस भयावह चकाचौंध में भारत की पावन धरती से मानवी के बहुत सारे सच्चे चेहरे गायब और अनदिखे से हो रहे हैं, उन्हीं की खोज में यह काव्य संकलन ‘मेरा भारत दिखा तुम्हें क्या ?’ अपने आप को ,आप सभी सुधी समीक्षक मनीषियों के करकमलों में आत्म समर्पण कर रहा है। इसकी रक्षा और सुरक्षा का भार आप सभी पर ही है। इन्हीं आशाओं के साथ सादर समर्पित--
वेद राम प्रजापति ‘मनमस्त’
31- समय के गीत -
आज सभी बेचैन खुशी में भी डर लगता।
करै रतजगा सभी, नहीं डर मन से भगता।
सब उदास हैं बहुत समय कम यहां दिखाया।
कहना था कुछ अधिक सोच मन, बहुत लिखा था।।
छोड़ो भाई। पीठ पिछाड़ी कौन कहे क्या ।
देखो दृष्टि पसार, सचाई शेष रहा क्या।
एक नहीं कई रंग, आज भय पैदा करते।
इन काशाए रंग, भंवरियों के पर डरते।।
कौन तुम्हारा राग जिसे गाए जाते हो।
हुए बेसुरे और नहीं महिफिल पाते हो।
गाना है तो आज, समय के गीत गाइए।
बीता, सो गया बीत, समय फिर नहीं पाइए।।
प्रकृति मूल है गांव, गांव से शहर बनाए।
शहरों का विस्तार हुआ तो नगर कहाए।
नगर उगल रहे जहर, महामारी के कारण।
सुख का नहीं संसार, तृषा के बने उदाहरण।।
गांव सभी के स्वजन, प्रेम का सुगम बसेरा।
सब, सबके हैं मीत, सुखद है यहां सबेरा।
सच्चाई का धाम, कपट छल क्षदम से दूरी।
जो कहना कह देत, छिपावा से है दूरी।।
32- ईमानदारी का जनाजा –
अनभिज्ञी अनजान बने, यहां गांव सो रहे।
अधिकारों से रहित, दीन जन यहां जो रहे।
धनवर्गी जो लोग, अहं से गीता गाते।
जिन्हें देख, भयग्रस्त दीन जन कुगति पाते।।
धन अर्जन में व्यस्त शहर, पर मन अशांत है।
आक्रान्तों की भीड़, बनाती कबै शान्त है।
क्या होगा हो रहा, शून्य चिंतन से नगरी।
बे-खबरी से सोंय, चांदनी गांवन बगरी।।
जो कहते स्पष्ट, उन्हीं सिर, भय, लाचारी।
लिए जनाजा चली, यहां पर ईमानदारी।
कालाधन को पाय, समृद्धि नांच रही है।
ऊंची चढ़ मीनार, इबारत बांच रही है।।
भयाक्रान्त हैं लोग, खड़कता शहर न पत्ता ।
तुम चुप हो कर सुनो, कहो कैसी यह सत्ता।
यदि कुछ पूंछा कहीं, घूरते हैं ज्यों िबल्ली
नग्न वेश में नृत्य, यही मरियादा कहली।।
गांव सभी से दूर, नींद खर्राटे लेते।
जीवन की मनुहार, सभी से सब कह देते।
पगडंडी में बैठ, प्यार के गांए तराने।
सच्चे जीवन गीत, इन्हीं के जाने माने।।
33- विमर्श –
को समझे मन भार, बधू-उर की धन सांसे।
औरन को यूं लगत, ठीक कहतीं सब सासें।
आज मिलावट सभी खून बदनाम करो क्यों।
है कुलीन कहां, कौन, श्रेष्ठजन ध्यान धरो यौं।।
रोने, हंसने, बातों से, क्या काम सरेगा।
बिना शीशधड़, सुना कहीं, क्या युद्ध करेगा।
स्त्री दलित विमर्श मध्य कहां सीमा पाओ।
नव नूतन कुछ और नई परिभाषा लाओ।।
नहीं अभीष्ठ कोई रहस्य, जिसे अपनाए नारी।
अपने बंधन बंधी समझ कारण, लाचारी।
दिन को दिन, कह सकी नहीं, इस सोच पड़ी है।
औरों के सुख हेतु, आनि पर व्यर्थ अड़ी है।।
ओ कवि। कविता मग्न, सुना नहिं बाला रोदन।
चोट हृदय नहीं लगी। अरे कैसा अनुमोदन।
पौरसेय यह कथन, राम नहीं सबको हितकर।
पर चलना है उधर, आओ सब चललें मिलकर।।
जीवन अरमानों की अवनी वहां पाओगे।
जहां श्रमिक की श्रम बूंदों में आप नहाओगे।
इसीलिए चलना होगा, गांवों की धरती तुम्हें बुलाती।
भूल गए, गहरे संबंध जो तुम्हें जगाती।।
34- चैन की नींदें –
जादूगर सा सत्य, तमाशा यहां हो रहा।
जनता का सैलाब, साहसी कदम खो रहा।
प्रतिदिन होते काण्ड, स्वप्न से, हो जाते हैं।
कुर्सी के सुख साज, चैन से सो जाते हैं।।
क्षण भर हलचल मचत, किधर की बात हो गई।
दिवस रहा गमगीन, शान्ती से रात सो गई।
बने मसीहा, यहां खेलते डण्डा गिल्ली।
जबरयीं पी रहीं दूध, मूंछ, ऐंठत यहां बिल्ली।।
करूणा हीन सरूप, नहीं पीड़ा से नाता।
चहुगिर्दी गमगीन, गीत, खुश कोई न गाता।
यह दिल दर्दी दशा, देख रो देगा कोई।
चौराहे लुट रहे टेर दे, इज्जत रोई।।
गलियन होत न शोर, व्याप्त है भय का साया।
सन्नाटे के बीच, गा रही, काली छाया।
लगता है उठ रहा यहां, हंगामा भइया।
गांव सभी सुन रहे, सो रहीं नगरीं, शैया।।
कोलाहल का दौर, भाग दौड़े हैं भारी।
जीना मुश्किल लगे, शहर बीमारी न्यारी।
कई रोगों का धाम, शहर का चप्पा-चप्पा।
गांव सभी से दूर खा रहे हैं गोलम-गप्पा।।
35- नीति प्रेम धन ........--
देश बना बाजार, न्याय की नहीं पताका।
नीति, प्रेम, धन, विजय , बेच रहे यहां के काका।
भाव-शून्य हो गया, यहां का पूरा साया।
बादों को गए भूल, मोह, मद की ले माया।।
क्रय-विक्रय का खेल, धड़ल्ले से यहां होता।
हृदय होत बेचैन, न खुलकर कोई रोता।
जटिल समस्या क्षीर श्वान यहां पर पी जाते।।
अपने घर पर बैठ गीत अन गाए गाते
जाति-शुद्धि की बात, मूर्खता यहां जनाती।
भेद-भाव के भाष्य, यहां कविता बन जाती।
भूसी-कूटन मात्र योनि सुद्धि को जानो।
कहां धार्भिक शुद्ध मूढ़ता ही पहचानो।।
जहां प्रदूषित दृश्य पेय और खाद्य स्वास्थ्य है।
इसके ऊपर, कहां-कहां कब, लिखे भाष्य हैं।
चिंता का है विषय, पर्यावरण कहां शुद्ध है।
यहां प्रदूषण भरा, खड़ा एक नया युद्ध है।।
यह कैसा है दौर, कभी क्या मिट पाएगा।
ग्राम्य श्री का रम्य गीत, कोई कभी गाएगा।
वह पावन है भूमि, गांव की, चलो न भाई।
जहां गलियन की धूल, चाहती मेल, मिताई।।
36- काल जयी -
जीवन-संघर्ष, खेल कृषक जन इन्दौर खेला।
सूखा, बाढ़, प्रकोप, सभी कुछ जी भर झेला।।
आंखों मीचे आज गीत ऐसे गाएगा
काल जयी यह काव्य, कभी क्या हो पाएगा।
गैस त्रासदी बीच धुटा दम, वहां भोपाली।
काव्य बद्ध कर दयी, मौत की रूह निराली।
बारूदी की सुरंग हुई, विस्फोट कहां पर।
काश्मीर को, कभी देखता, किधर, कहां पर।।
भू-कम्पों की कम्प, झेलती नेपा धरती।
कैसा तांडव हुआ, मौत-बे जनता मरती।
राजनीति के क्रूर नृत्य, नहीं आंखों देखे।
कैसे, क्या-क्या हुआ, लिखे गुजराती लेखे।।
जातीय हिंसा, बलात्कार के सुने तराने।
लूट, अपहरण बीच, फसे क्यों उच्च घराने।
ऐसा सब कुछ देख, लिखी कविता क्या तूने।
काल जयी नहीं बनी, तुझे धिक्कारा भू-ने।।
कृषकों की क्या व्यथा, नहीं दिल्ली पहिचानी।
अपनी हठ पर डटी, मूंछ की बात, कहानी।
मनमानी का खेल, दाल छातिन पर दलती।
गांवन गहन पुकार, धरा की धीरज हलती।।