मेरा भारत दिखा तुम्हें क्या? 10
काव्य संकलन-
मेरा भारत दिखा तुम्हें क्या?
वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्त’’
समर्पण --
धरती के उन महा सपूतों,
जिनके श्रम कणों से,
यह धरा सुख और समृद्धि-
पाकर, गैार्वान्वित बनी है,
उनके कर कमलों में सादर।
वेदराम प्रजापति मनमस्त।
दो शब्द-
आज की इस भयावह चकाचौंध में भारत की पावन धरती से मानवी के बहुत सारे सच्चे चेहरे गायब और अनदिखे से हो रहे हैं, उन्हीं की खोज में यह काव्य संकलन ‘मेरा भारत दिखा तुम्हें क्या ?’ अपने आप को ,आप सभी सुधी समीक्षक मनीषियों के करकमलों में आत्म समर्पण कर रहा है। इसकी रक्षा और सुरक्षा का भार आप सभी पर ही है। इन्हीं आशाओं के साथ सादर समर्पित--
वेद राम प्रजापति ‘मनमस्त’
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पंच तत्व, पंचायतन पंच वेद, पंचेश।
पंचामृत सुचि, पंच नद, पंच महल परिवेश।।
पावन भू, जल शीतलम, निर्मल गगन निहार।
त्रिविधि अनल, मधुमय अनिल, पंच तत्व संसार।।
पदम पवाया धूम है, रानीघाटी शान।
प्रिय पिछोर, डबरा शुगर, रूचिर आंतरी मान।।
वेद यर्जु ऋग है, शाम, अथर्व पहिचान।
वेद व्यास पंचम कृति, श्री भागवत मान।।
अलख लखेश्वरि रतनगढ़, सालवई गन्नेश।
पांच देव ब्राजे यहां, ब्रम्हा, विष्णू महेश।।
गो-दुग्धा, दधि, घृत मिला, शतरस सहद समान।
शहस्त्र सुधा-तुलसी दले, पंचामृत पहिचार।।
सिन्धु जान्हवी, पारा-यमुना, लवणा-सरस्वती जान।
गोदावरि सम मैंगरा, सूखा-सरयू मान।।
गढ़ पिछोर, द्वि देवगढ़ मगरौरा गढ़ लेख।
ऐतिहासिक संधि बना, सालवई गढ़ मेख।।
मात-रतनगढ़ पूर्व में, पश्चिम हर्सी बांध।
उत्तर घाटी शीतला, दक्षिण सिन्ध का नांद।।
चतुर्सीम के मध्य में, हरित धरा का वेश।
गिरि, गहवर, खाइ्र, विमल-पंचमहल परिवेश।।
पावन धरती यश मई, मदन-मधुप गुणगान।
पंच महल की झलक पर, ललक रहे भगवान।।
पंच महल की परिधि की, परख, पारखी कीन।
पर्व ओढ़े हरितमा, नदीं बजातीं बीन।।
नदी बजाती बीन, ताल झरने दे जाते।
पपीहा, केकी, कीर, सातवे स्वर में गाते।
भरका, खाई, कछार, उगलते हीरे-मोती।
डांड़े, टीले बने, यती मनमस्त स-होती।।
56- तुमने अब तक -
तुमने अब तक प्यार न जाना, पशु-पक्षी भी जान गए।
प्यार हृदय की अनुभूति है, पत्थर भी, भगवान भए।
निशि-बासर, हरिनाम रट रही, बह तोता मैंना की जोड़ी।
सत संगत अनुभूति पाकर, जीवन की पहतियां मोड़ी।
वफादार हो गए श्वान-भी, बीज न तुमने, अबै बऐ।।
पावस के अनछुए प्यार को, पपीहा के हृदय ने जाना।
धनगर्जन में छुपे प्यार को, मस्त मयूरी ने पहिचारा।।
भुंसारे की प्यारी आहट, मुर्गे भी तो रटत रमे।।।
प्यार से गंगा सिर पर बैटी, नागदेव गलहार बने।।
प्यार भरी है सिंह सवारी, गरूणासन भी प्यार सने।
शुष्क बांस-वंशी मोहन की, जिसने त्रिभुवन मोह लए।।
मई जन्म के दुर्लभ देही, मानव की तुम, जग में पाऐ।
ऊहा-पोह मिटी नहीं अबलौं, और कहां तक दें, समुझाए।
अब भी समय, समझलो कुछ तो, नहिं चौरासी फेर, गए।।
प्यार से पत्थर भी पिघले हैं, प्यार से मौसम बदल गए।
प्यार भरा जीवन, जीवन है, प्यार के अगणित रूप भए।
परिभाषा नहीं बनी प्यार की, अब तो जागो, भोए भए।।।
57- अपने और पराए -
अपने यहां, पराए हो गए, आस्तीन के सांप हो गए।
नहीं विश्वास रहा अब कोई, बे नहीं जागे और सो गए।।
कल तक जो अपने, कहलाए, आज उन्हीं ने, करवट बदली।
थोड़ी सी दहशत में आकर, कांप गए, जैसे हो कदली।
साहस बिना, कहां है जीवन, सब के सब, बदनाम हो गए।।।
कल के चैहरे आज उजागर, दुर्दिन कालनेमि बन आए।
रावण का कुनवा सब डूबा, पानी देवा कोई न पाए।
नाग नाथ ये, सांपनाथ बे अब तो इनको सभी समझ गए।।।
मानवता अपमानित करदी, फिर भी ये, हंसते और गाते।
शोषण के दानव से इनने, गहरे पाल लिए हैं नाते।
नहीं पता माली के हाथों, बगिया के अरमान मिट गए।।
तुम समझत थे, कोऊ न जाने अपने, मुंह की, तुमने खाई।
आजादी की इस चौसर पर तुमने गोटी गलत बिठाई।
वादा करके, मुकर रहे हो, अपने हाथों, आप पिट गए।।।
तिनकों की तलवार बना कर, झूंठी बोल रहे जयकारें।
वादों पर, झूंठे ही निकले, निर्मम भूंख खड़ी है द्वारे।
भुंसारे की भनक लगी है, रातों के अब-दिना बीत गए।।।
58- डबरा की झांखी -
डबरा हमारा प्यारा, प्यारा है नगर बां,
ऊंचे-ऊंचे हैं, महल होती चहल, पहल, जरा घूमले।।
डबरा मध्य प्रान्त में भइया, जिला ग्वालियर जानलो।
डबरा भी तहसील बना है, अब इसको पहिचान लो।
झांसी और ग्वालियर बीचों-बीच इसे अब मान लो।
गोरी-ऊंची चिमनी, ठाड़ी है गगन-बां।।
ऊंचे .........................
व्यापारिक परिक्षेत्र यही है, हर किस्मी, व्यापार है।
गाड़ी अड्डा यहां निराला, हर मानव रोजगार है।
चौड़े-चौड़े रोड़ बने जहां, लगते सदां बाजार हैं।
चौड़े रोड़ों से चौगलियां-फूटीं हैं नगरवां।।
ऊंचे..............................
बीच नगर से रेल निकलती, स्टेशन भी पास में।
राईस मीलों की गिनती ना, डबरा के इतिहास में।
हिन्दू, मुस्लिम, सिंधी, पंजाबी, व्यापारी हैं खास में।
दो-दो हैं सिनेमा घर, टी.बी. है अलगवां।।
शुगर मिल डबरा सा नईयां, तुम देखो संसार में।
डबरा शुगर, मांगते देखे, दुनिया के बाजार में।
नगर बसाहट, भवन बनावट, मिली यहां उपहार में।
यहां के निवासी सब, रहते मगर वां।।
ऊंचे........................................
59-- गुप्त जी से और दे दो –
कर रहे, कर बद्ध बिनती ओ, प्रकृति के परिज्ञाता।
जन हृदय, अनुपम चितेरे, गुप्त जीसे और दे-दो।।
राष्ट्र के उत्थान में नित, श्रम कणों की नींव भरने-
एक सौ तीस करोड़ मानव मनों में, मानवी को प्यार करने।
दीन-हीनों की कुटी पर, छान कर, जो छान धरता।।
और मग के कंटकों को, झाड़कर मग कष्ट हरता।।
आज की मानव मही को, आज की अनुकूलता हित-
हर जवां की जिंदगी में- जिंदगी का गीत-दे दो।।
गुप्त जी .......................
सोच है। विज्ञान मानव मौत के सामा जुटाता।
और उस पर ही, खड़े हो, जिंदगी के गीत माता।
नित्य, प्रति जो, भूलकर संहार के, श्रंगार करता।
सब इन्हें ही मानते, विश्व के निर्माण कर्ता।
अब इन्हीं की भूल को, इनके हृदय में ही जगाने-
शारदे-वीणा बजा कर, झनझनाता गीत दे-दो।।
गुप्त जी.............................
जग हृदय से जो उपेक्षित नारियां गम घूंट पीतीं।
और जीकर भी मरी सी, जिंदगी को नित्य जीतीं।
नाम जिनका निज जवां पर, लोग लेते, कांपते हैं।
गढ़ गए जैसे जमीं में और खुद को, नांपते हैं।
खोजकर, उद्धार जिनका, जिस हृदय ने ही किया था-
उस हृदय सा आज को, उद्धार कर्ता और दे-दो।।।
गुप्त जी.................................
राष्ट्र के कल्याण का, कल्याण अब नहीं छप रहा है।
देखकर, ऐसी विषमता, आसमां भी कंप रहा है।
हर हृदय में, विजय पाने, क्या कहैं-चौसर मढ़ी है।
पर यहां पर, देश हित की, भूमिका खाली पड़ी है।
खल रहा है बस यही, जन हृदय मनमस्त करने-
वंदना के शत ये ही स्वर, एक मनीषी और दे-दो।।
गुप्त जी..............................
60- निरक्षर रह गए जो –
निरक्षर रह गए जो कुछ, उन्हें साक्षर बनाना है।
ये भारत-भूमि, हम सबकी इसी का ऋण चुकाना है।।
ये धरती-ऋषि मुनि जन की, तपोभूमि, कहाई है।
यमुना-गंगा की धारा, कलोलित यहां बहाई है।
अडिग अविचल, अनूठा जागरूक प्रहरी हिमालय है।
बद्रीनाथ रामेश्वर यहां अगणित शिवालय है।
धरा की आनि पर मिट गए, उन्हीं के गीत गाना है।।
हमें आजाद करने में, कई कुर्बान जो गए।
पावन मातृ-भू की अंक में, हंसते हुए सो गए।
आवाजें सब तरफ होतीं, यदि कहीं सुन सको सुन लो।
निरक्षरता मिटाने की, कहानी गुन सको गुन लो।
सभी पूरी हों आशाएं, यही करके दिखाना है।।।
बने साक्षर सभी भारत, तभी हम, धन्य हो पावैं।
शहीदों की अमानत का, कहीं कुछ ऋण चुका पाएं।
तो आओ। एक जुट होकर, यहां कुछ वायदे करलैं।
साक्षर होंय सब मानव, निरक्षरता कभी हरलैं।
जहां में, अपने भारत को, अधिक पावन बनाना है।।
61- आओ मित्रों वहां चलेंगे -
आओ मित्रों। वहां चलैंगे, शीतल सुख की छांव खोजने-
जिस हरीतिमा के अंचल में, कृषक और मजदूर गा रहे।
सच्चा जीवन प्यार पा रहे ।।।
रवि उगते ही, अरूण किरण से, धरती का चुबन हो करता।
मनोहारी- मृदु हॉस, हॉस से, कालि निशा को, उज्जवल करता।
रश्मि – किरण स्पर्श मात्र से, पुलकित हो धरती की काया।
कुशुम रंगों से, हुकसाता – सा, मधुरितु का, मौसम हो छाया।।
जहां, हुए उन्मुक्त दौड़ते, जीवन दाई, हर जीवन के-
गहन श्यामता लिए अवनि पर, गहराते से, मेघ आ रहे।।
सच्चा ...........................
सौंधी- सौंधी गंध अवनि की, पुलकित होकर, जहां मचलती।
कर्म भूमि पर, रवि की किरणैं श्रम सीकर सी, रोज फिसलती।
कृषकों, के, अल्हड़ गीतों, की गूंज रही हो जहां रवानी।
छाक लिए, सिर धरे मटुकिया, जहां कृषक की, धनिया रानी।
नयनों में प्रिय रूप, सात्वकी वेश, सरल चितवन हो जिसकी।
उस सावित्री की गलियों में, आज लिए हम तुम्हें, जा रहे ।।
सच्चा ...........................
अवनि अंक में, शस्य–श्यामल लहराती हो जहां बालियां।
चिडि़यां मागो कृषक बालिका, बजा रही हो, जहां तालियां।
जहां अनाज के प्यारे दाने, चमचम मोती-खलिहानों में।
हो मनमस्त कृषक का हृदय, नाच रहा हो, प्रिय गानों में।
चहरे की रज, बने पाउडर, श्रम सीकर, कुमकुम बन जाए।
श्रद्धा सुमन, इन्ही कुशुमों के यहां समर्पित किए जा रहे।।
सच्चा ..................................
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