मेरा भारत दिखा तुम्हें क्या? 8
काव्य संकलन-
मेरा भारत दिखा तुम्हें क्या?
वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्त’’
समर्पण --
धरती के उन महा सपूतों,
जिनके श्रम कणों से,
यह धरा सुख और समृद्धि-
पाकर, गैार्वान्वित बनी है,
उनके कर कमलों में सादर।
वेदराम प्रजापति मनमस्त।
दो शब्द-
आज की इस भयावह चकाचौंध में भारत की पावन धरती से मानवी के बहुत सारे सच्चे चेहरे गायब और अनदिखे से हो रहे हैं, उन्हीं की खोज में यह काव्य संकलन ‘मेरा भारत दिखा तुम्हें क्या ?’ अपने आप को ,आप सभी सुधी समीक्षक मनीषियों के करकमलों में आत्म समर्पण कर रहा है। इसकी रक्षा और सुरक्षा का भार आप सभी पर ही है। इन्हीं आशाओं के साथ सादर समर्पित--
वेद राम प्रजापति ‘मनमस्त’
43- ऋण चुकाओ -
जिनकी छातियों पर, आज तक, जो खेल खेले हैं।
उन्हें तुम, स्वप्न में भी, आज क्या पहिचान पाए हो।
सदां अपना बता कर, इस तरह ठगते रहे अब तक।
बता दो ये शकुनि पांसे, कहां से चुरा लाये हो।।
यहां बारूद बल से, खेलते हो, आज जो नाटक।
मसीहा हो नहीं सकते, जिसे तुम सोच, आए हो।
चिता पर, रोटियों का सैंकना, अच्छा लगे तुमको।
किसी की भूंख के ऐहसास को, क्या जान पाए हो।।
दबे हैं, आज भी देखो यहां अंगार, राखों में।
हवा कहीं लग गई इनको, धधकते ही, दिखाए हैं।
खेल यह, बंद अब कर दो उधर देखो, धुआं उठता।
न कहना शेष अब कुछ भी, तांडवी-गीत गाए हैं।।
अमृत वृष्टि करने को, धरा पर, तुम बने मानव।
कितने आज तक तुमने, इसके ऋण चुकाए हैं।
नहीं यदि, तो अभी-भी स्वांस को, सार्थक बना डालो।
व्यर्थ क्यों दैव-दुर्लभ देह ले, मानव कहाए हो।।
रहा जो शेष जीवन है, लगा दो मानवी हित में।
कहीं ऐसा कुछ कर डालो, जिसे नित वेद गाए हैं।
अमर है धर्म की धरती, बनो नहिं बोझ अब इसका।
समय इतिहास बन जाओ, तुम्हीं कोहनूर कहाए हो।।
44- तुम्हारा इस तरह सोना -
तुम्हारा इस तरह सोना, कहो-किसको सुहाएगा।
सुनहरा रंग ऊषा का, कहो-किस काम आएगा।
धरा की यह धरोहर है, जिसे तुम, यौं गंवाते हो।
आज जो, जा रहा प्यारे, लौटकर, कल न आएगा।।
समय से जग पड़ो रहबर, जगा दो। सो रहे जो हैं।
जहां के, काम जो आए, उन्हें संसार गाएगा।
तुम्हारा, जग खड़ा होना, समय की चाह है, प्यारे।
ये भीषण दौर को थामो तुम्हें फिर, को बुलाएगा।।
जल रहा आज जो अंबर, उठाकर आंख तो देखो।
उधर सागर की लहरों पर, नया तूफान आएगा।
हवाएं थम रहीं लगता, कोई भू-कम्प आता है।
बिजली की कड़क सुनते। बवंडर घोर छाएगा।।
ध्यान दे। कान दे। सुनलो। कोई आवाज देता है।
उसकी बात को समझो, समय इतिहास गाएगा।
अगर अनसुन रहे सुनकर, धरा की धारिता गिर है।
इसे थामो, जरा थम कर, जमाना सदां गाएगा।।
अभी-भी समय है प्यारे, जरा उठ कर, खड़े होओ।
जहां मनमस्त करना है, सुयश संसार छाऐगा।
न सोओ। जागकर अब-भी, जमाना भी जगाना है।
करो उपकार जी भर कर, नहीं फिर तन ये पाएगा।।
45- अवसाद –
नकली विज्ञापन से यह युग, पग-पग पर, गरिमा खोता है।
उपचारों पर ध्यान न कोई, तब अवसाद बहुत होता है।
क्षण-क्षण पर, पावन शिक्षा भी, द्रुपद सुता सा चीर हो रही।
मौन, आज की विषम सभ्यता, न्यायालय के द्वार रो रही।।
पक्षपात की भेद दृष्टि पर, एकलव्य ठाड़ा रोता है।।
नीति-धर्म के अटल सूत्र भी, विज्ञापन के भाव बिक रहे।
यहां पसीना की, कीमत कहां, वैज्ञानिक बे-मोल हो रहे।
बिन दहेज, बारात लौट गयीं, सिर धर के, होरी रोता है।।
बिकी सभ्यता, कौड़ी-कौड़ी अस्मत लुटती, बिना भाव के।
तुम मौनी बाबा, बन बैठे, नासूरी से विकट घाव, के।
किसने सुना धरा का क्रन्दन, युग प्रहरी, नींदों सोता है।।
क्रान्ती पहरियो तुम्हें बुलाती, गांवन की पावन, यह धरती।
कितना लांछन और सहेगी पग-पग पर, आहें जो भरती।
कंस और दुर्योधन का यहां, पग-पग पर वंदन होता है।।
अगर रहा, ऐही क्रम आगे, रसा-रसातल चली जाएगी।
दृश्य बदल जाऐगा यहां का, युग पीढ़ी क्या-क्या गाएगी।
संभल जाओ मनमस्त बाबरे, क्यों जीवन यौं ही ढोता है।।
46- पेन्सनर्स पीढ़ी -
पेन्सनर्स तीरथ दर्शन क्यों, समझ नहीं आ पाया अब तक।
राज कहीं, कुछ तो गहरा है, ना जाने, यह खेल है कब तक।।
नाम अनेकों में सम्बोधन गुरू कर्मी तदर्थ, अध्यापक।
वर्ग एक, दो तीन कहाए बन कर्मी और समय पालक।
बांट दिया कई एक वर्गों में तथा अनेकों सर्गों बांटा।
अब भी चल रहे चालें टेढ़ीं, लगा पांव में, जैसे कांटा।
ऐसे ही, नित खेल खिल रहे, जिन्दी रहे पीढि़यां जब तक।।
पेन्सनर्स है अब तक कितने, इसी बहाने में गिन जाते।
अखर रहे हैं हम सब इनको मुफ्त रोटियां ये खा जाते।
ना आओ इनकी बातों में, जरा उधर परलोक को जोड़ो।
कितना और इधर ठहरोगे, जीवन गाड़ी, निज पथ मोड़ो।
सबको यही अखरता होगा, पेन्सन खाता, चल है कब तक।।
विकट योजनाएं इनकी हैं, दिल-दिमाग इनका छोटा है।
कहां-लड़ा देएंगे गाड़ी, कहदें- भाग्य त्वयम खोटा है।
सांसद और विधायक केवल, अब हकदार रहे पैंसन के।
तुम्हें भुगतना कितना होगा, पन्ने फटे यहां टेंसन के।
समझ लेउ, पीढ़ी यह अन्तिम कितना सोओगे और कब तक।।
कहीं हिमालय को खिसका दें, कहीं सागरों डुबा देयंगे।
कहीं बर्फीली तूफानों में, भू-कंपन कहीं मचा देयंगे।
कहीं आंधियों झंझा बातों, प्रकृति हाथ कर दें तब जीवन।
जादू सा रच रहे खेल ये, कहां जन्नतों की है सींबन।
क्यों कर बनो, खेल के पुतले, खेलते रहे खेल ये, कब तक।।
47- मानव से मानव की दूरी -
गांवों में जब-जब शहरों की, छाया आती है।
मानव से, मानव की दूरी, बढ़ती जाती है।।
छदम वेश और कपट, ईर्ष्या द्वेष-भावना से।
विकट विषमता की खाई, नित बढ़ती जाती है।
मजहब, साम्प्रदाय, विद्वेषित भावों की बदली।
बे मौसम, विध्वंश कारिणी, मढ़ती जाती है।।
आज पश्चिमी भाव भंवर में, भारत की नइया।
निकट-विनाशी वायु-वेग से, घिरती जाती है।
जाति-पांति अरू भेद-भाव के बीहड़-जंगल में।
नांगफनी संकीर्ण भाव की, उगतीं आतीं हैं।।
भव्य भाव की भातृ-भावना भई भूमिगत सी।
कौमल कला, करूण रस सरिता, सूखी जातीं हैं।
अथक परिश्रम के मस्तक पर, गौरव तिलक कहां।
बेमानी, अन्याय विजय की, गीता गाती है।।
आज एकता और अखण्डता का, दर्शन गढ़ना।
विश्व बंधुता, युगों-युगों से, तुमरी थाथी है।
तुमने जब-जब क्रान्ती विगुल को,यहां बजाया है।
नई प्रभा, नव-सूर्य प्रभाती, यहां उगाती है।।
आज बदलना तुम्हें, विश्व की विषम कहानी को।
जागो वाणी वीर। प्रभाती तुम्हें जगाती हैं।
आएगा बदलाव, तुम्हारे गीत-जागरण से।
चलो गांव की ओर, ये धरती तुम्हें बुलाती हैं।।
48- न्याय का दरबार गांव -
न्यायालय है गांव की चौपाल अब।
न्यायकर्ता है, यहां पर पंच सब।
बिन इजाजत कुछ यहां होता नहीं।
आ सके नहीं झूंठ की औलाद तब।।
ईस के विश्वास का, यह ठांम है।
तीर्थ है मनहर सा, पावन धाम है।
छल, कपट अन्याय, यहां नहीं आ सके-
सब कहैं, मालिक यहां के, राम हैं।।
गांव की, मनुहार ले, मौसम चलैं।
ग्रीष्म, वर्षा, शीत के संग, सब पलैं।
जड़ी बूंटी, प्रकृति का उपहार है-
उन्हीं से सदा स्वास्थ्य के चिंतन चलैं।।
हर समय ही, प्रकृति का वहां न्याय है।
धरित्री सी, दूध देतीं वहां गाय है।
सुखों के भण्डार लगते, गांव सब-
प्यार के वातावरण की, छांव है।।
पेड़ भी यहां, कल्पवृक्षी से सभी।
मौसमी मनुहार लें, फलते सभी।
दे रहे फल, फूल सबको प्यार से-
हैं दयालू मना करते नहीं, कभी।।