Baat bus itni si thi - 27 in Hindi Moral Stories by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | बात बस इतनी सी थी - 27

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बात बस इतनी सी थी - 27

बात बस इतनी सी थी

27.

घर लौटकर मैंने माता जी को ऑफिस में रखे हुए प्रॉपर्टी पेपर से संबंधित सारी बातें बतायी । माता जी बोली -

"तू बहुत सीधा है, बेटा ! मंजरी इतनी सीधी नहीं है, जितनी सीधी तू उसको समझ रहा है और जितनी सीधी वह दिखती है !"

इन दो सालों में मैं यह समझ चुका था कि मंजरी वास्तव में इतनी सीधी तो नहीं है, जितनी सीधी बनने और दिखने की वह कोशिश करती है । लेकिन हमारे जिस फ्लैट को मैं बेच चुका था, उसी फ्लैट की वापिस माता जी के नाम पर रजिस्ट्री की केमिस्ट्री को मैं अभी तक नहीं समझ पाया था । मैंने माता जी से कहा -

"मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि आपके नाम पर फ्लैट की रजिस्ट्री के वे पेपर्स असली हैं या फर्जी हैं ? उन पेपर्स पर आपके हस्ताक्षर हैं ! वे हस्ताक्षर आपने ही किए हैं या वह हस्ताक्षर भी फर्जी हैं ? और उन पेपर्स में मंजरी की क्या चाल हो सकती है ?"

माता जी ने मेरे किसी भी सवाल का सीधा जवाब नहीं दिया । वे बोली -

"हमारे घर के पेपर्स हैं, उन्हें तू ऑफिस में क्यों छोड़ आया ? कल उन सभी पेपर्स को लेकर आना, तब तुझे सब-कुछ समझ में आ जाएगा ! मैं तुझे समझाऊँगी !"

अगले दिन एक अजीब से अनचाहे डर और संकोच के साथ जब मैं ऑफिस पहुँचा, तो मंजरी से मेरा सामना नहीं हुआ । इससे मुझे बड़ा सुकून मिला था । मैंने सोचा, शायद मंजरी मुझसे पहले ही ऑफिस पहुँच चुकी होगी और इस समय अपने केबिन में बैठी होगी । मैं यह नहीं चाहता था कि मेरा उससे कहीं भी किसी भी तरह से सामना हो ! लेकिन हम दोनों का केबिन आमने-सामने था, इस वजह से हमारा आमना-सामना होना एक सामान्य बात थी ।

नौकरी करने के लिए अपने केबिन में जाना मेरी मजबूरी थी । मैं धीरे-धीरे कदम घसीटता-सा अपने केबिन की ओर बढ़ गया । अपने केबिन के निकट पहुँचकर अनायास ही मेरी नजर मंजरी के केबिन की ओर उठ गई । मैंने देखा, मंजरी अभी तक नहीं आई थी ।

मैं बड़ी शांति और सुकून के साथ अपने केबिन में बैठकर ऑफिस के काम में व्यस्त हो गया । शाम तक मैं लैपटॉप पर नजर गड़ाए हुए अपने काम में व्यस्त रहा । मुझे हर पल ऐसा आभास होता रहा कि मंजरी मेरी ओर देख रही है, इसलिए मैंने एक बार भी मंजरी के केबिन की ओर नजर उठाकर नहीं देखा । शाम को ऑफिस छोड़ने से पहले मैंने अपनी अलमारी से प्रॉपर्टी के पेपर्स निकाले और बहुत जल्दी करके मंजरी से पहले ही मैंने ऑफिस छोड़ दिया ।

घर पहुँचा, तो माता जी ने सबसे पहले मुझसे यही सवाल पूछा -

"फ्लैट की रजिस्ट्री के पेपर्स लेकर आया है ?"

"हाँ, बिल्कुल ! आज तक ऐसा कभी हुआ है कि मेरी माता जी ने मुझे कोई आदेश दिया और मैंने उसका पालन न किया हो ?"

यह कहते हुए मैंने अपना बैग खोलकर उसमें से फ्लैट की रजिस्ट्री के पेपर निकाले और उन्हें माता जी के हाथ में थमाते हुए बोला -

"अब तो मुझे बता दीजिए कि इस रजिस्ट्री की केमिस्ट्री क्या है ?"

"हा-हाँ बता दूँगी ! थोड़ा धैर्य रख ! पहले हाथ मुँह धोकर खाना खा ले, खाना तैयार रखा है !"

मेरे पास धैर्य के साथ इंतजार करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था, इसलिए चुपचाप हाथ मुँह धोकर खाना खाने के लिए बैठ गया । खाना खाने के बाद मैं कुछ देर तक यह सोचकर माता जी के पास बैठा रहा कि वह मुझे हमारे फ्लैट की रजिस्ट्री की उन पेपर्स के बारे में जरूर कुछ-न-कुछ बताएँगी, जो मैंने उन्हें अपने ऑफिस से लाकर दिये थे । लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, जैसा मैंने सोचा था । माता जी ने खुद कुछ बताया नहीं और मेरी दोबारा पूछने की हिम्मत नहीं हुई । कुछ देर इंतजार करने के बाद मैं सोने के लिए अपने बिस्तर पर चला गया ।

अगले दिन रविवार की छुट्टी थी । नींद और आलस में डूबा हुआ मैं सुबह देर तक बिस्तर पर लेटा रहा । लगभग नौ बजे माता जी ने आकर मुझे जगाया -

"आज उठना नहीं है क्या ? तबीयत तो ठीक है तेरी ?"

"हाँ जी, माता जी ! तबीयत तो बिल्कुल ठीक है ! बस थोड़ा आलस है ! अभी कुछ देर में उठ जाऊँगा !"

"तबीयत ठीक है, तो कुछ देर में क्यों ? यूँ आलस में पड़े रहना ठीक है क्या ? नौ बज गए हैं, उठ और नहा धोकर नाश्ता कर ले !"

"जी माता जी !" कहते हुए मैं बिस्तर छोड़कर तुरंत उठ खड़ा हुआ ।

मैंने उठकर जल्दी से शोच वगैराह रोज के जरूरी काम निबटाये और नहा-धोकर नाश्ता करने के लिए बैठ गया । माता जी पहले से ही नाश्ते की प्लेट तैयार करके मेरा इंतजार कर रही थी । हम दोनों ने साथ बैठकर नाश्ता किया । नाश्ता करने के बाद मैं अपना लैपटॉप लेकर बैठा, तो माता जी ने मुझसे कहा -

"चंदन, बेटा ! लैपटॉप लेकर मत बैठ ! इसको कुछ देर के लिए उठाकर अलग रख दे !"

"जी माता जी !" कहकर मैंने लैपटॉप एक तरफ रख दिया और खुद उठकर खड़ा होते हुए बोला -

"जी, माता जी ! बताइए, क्या करना है ?"

हम आज ही अभी अपने फ्लैट में शिफ्ट कर रहे हैं ! घर का यह सारा सामान चला जाए, इसके लिए एक गाड़ी चाहिए !"

हालांकि हमारे एक कमरे के किराए के उस घर में ज्यादा सामान नहीं था, क्योंकि अपने पुराने फ्लैट का सभी सामान मैं वहीं पर उसी को दे आया था, जिसको मैंने फ्लैट बेचा था । मैंने देखा, माता जी ने मेरे बिस्तर को छोड़कर बाकी सभी सामान समेटकर बाँधकर पैक कर लिया था । और अब फिलहाल हमारे पास जो कुछ भी सामान था, मुझे उसको ले जाने के लिए एक गाड़ी की व्यवस्था करने का काम मिला था, जो मुझे जल्दी-से-जल्दी पूरा करना था ।

मुझे अभी तक माता जी ने फ्लैट की रजिस्ट्री के उन पेपर्स के बारे में कुछ भी नहीं बताया था, इसलिए मुझे माता जी का आदेश सुनकर और घर के सामान को पैक्ड देखकर थोड़ी-सी शंका, थोड़ा भय, थोड़ा अविश्वास और थोड़ी हँसी आ रही थी कि फ्लैट के पेपर्स मिलने मात्र से हम घर का सारा सामान लेकर वहाँ शिफ्ट होने के लिए कैसे जा सकते हैं ? यही सब सोचकर मैंने माता जी से कहा -

"माता जी ! केवल मंजरी के दिये हुए इन पेपर्स पर भरोसा करके आपने अपना सारा सामान बाँध लिया ? जबकि आप खुद ही मुझे एक दिन समझा रही थी कि वह इतनी सीधी नहीं है, जितनी दिखती है ! दूसरे, वह आदमी, जिसको मैंने फ्लैट बेचा था, अभी भी उस फ्लैट में अपने परिवार के साथ रह रहा है । ऐसे में जबकि फ्लैट खाली ही नहीं है, हमारा सामान लेकर वहाँ जाना ठीक रहेगा ?"

"बेटा, तुझे जितना कहा गया है, उतना कर ! जरूरत से ज्यादा दिमागी कसरत करके अपने दिमाग को कष्ट मत दे !"

"ठीक है, माता जी ! जैसा आपका आदेश है, वैसा ही होगा !"

यह कहकर मैंने गूगल से एक नंबर निकाला और तुरंत फोन करके सामान ले जाने के लिए एक गाड़ी बुक कर दी और गाड़ी ड्राइवर से सामान उठाने के लिए अपने साथ एक नौकर लेकर आने के लिए भी कह दिया ।

कुछ ही देर बाद एक टाटा 407 गाड़ी मेरे फ्लैट के सामने आकर खड़ी हो गई । मात्र आधे घंटे में मैंने ड्राइवर और उसके नौकर से सारा सामान गाड़ी में लोड करा दिया था । उसके बाद जहाँ सामान पहुँचाना था, ड्राइवर को अपने उस फ्लैट का एड्रेस देकर उस गाड़ी को रवानाकर दिया और मैं भी माता जी के साथ अपनी गाड़ी में बैठकर अपने फ्लैट में शिफ्ट होने के लिए चल दिया ।

दोपहर के लगभग दो बजे हम अपना सामान लेकर उस सोसाइटी में पहुँच गए, जिसमें हमारा वह फ्लैट था, जिसे मैं पहले बेच चुका था । सोसाइटी में प्रवेश करते ही मेरी धड़कन बढ़ने लगी । मेरा मन कई तरह की कल्पनाएँ करने लगा -

"जिस व्यक्ति को मैंने फ्लैट बेचा था, माता जी उसको अपने नाम पर फ्लैट की रजिस्ट्री के पेपर्स दिखाकर घर से बाहर निकलने के लिए कहेंगी । वह उनकी बात मानेगा ? या नहीं मानेगा ? अगर नहीं माना तो झगड़ा होगा ! झगड़ा होते-होते बात कितनी बढ़ जाए, कुछ पता नहीं !"

यही सब सोचता हुआ मैं माता जी के पीछे-पीछे चला जा रहा था । कुछ मिनट बाद मैं माता जी के साथ फ्लैट के दरवाजे पर खड़ा था । फ्लैट के दरवाजे पर अभी भी ताला लगा हुआ था । मैंने सोचा, फ्लैट मालिक अपने पूरे परिवार सहित किसी जरूरी काम से घर से बाहर आउट ऑफ स्टेशन गया होगा ।

लेकिन मैं यह देखकर आश्चर्यचकित था कि फ्लैट पर ताला लगा देखकर माता जी के चेहरे पर न कोई शिकन थी न गुस्सा था । अपने फ्लैट के दरवाजे पर खड़ी हुई माता जी की आँखों में संतोष था । उस समय उन्होंने संतुष्ट होकर कई लंबी-लंबी साँसें ली और उनके चेहरे पर जीत की अद्वितीय अलौकिक चमक थी !

मैं चुपचाप खड़ा हुआ कभी माता जी की आँखों में झाँक रहा था, तो कभी फ्लैट के दरवाजे पर लगे ताले को देखकर अगले पल होने वाली माता जी किसी गतिविधि या अन्य किसी घटना के घटने का इंतजार कर रहा था । कुछ पल बीतने के बाद माता जी ने बहुत ही संतोष और शांतिपूर्वक ढंग से अपने पर्स से चाबियों का एक गुच्छा निकाला और ताला खोलकर फ्लैट का दरवाजा खोल दिया । इसके बाद उन्होंने अपने हैंडबैग से एक नारियल निकालकर मेरे हाथ में देते हुए दरवाजे की ओर संकेत करके कहा -

"ले बेटा ! गृह प्रवेश करने से पहले इस नारियल को फोड़ दो !"

माता जी का आदेश मिलते ही मैंने दरवाजे पर नारियल फोड़ दिया । अगले क्षण हम दोनों उस फ्लैट के अंदर थे, जिसमें मेरे बचपन की यादों के साथ मेरे स्वर्गवासी पिता जी की दिव्य आत्मा बसती थी । फ्लैट में प्रवेश करने से पहले मैं सोच रहा था कि अब माता जी मुझे इस फ्लैट के लिए नया फर्नीचर खरीदकर लाने का आदेश देंगी, लेकिन अंदर आने के बाद मैंने देखा कि फ्लैट में फर्नीचर सहित वह सारा सामान वैसे ही सजा हुआ था, जैसाकि मेरे फ्लैट बेचने से पहले माता जी ने सजाया हुआ था ।

उस समय माता जी के चेहरे पर ऐसा संतोष था, जो मैंने पिता जी के स्वर्गवास के बाद आज से पहले उनके चेहरे पर कभी नहीं देखा था । मेरे पिता जी के दिए हुए उस उपहार को दोबारा पाकर माता जी बहुत खुश थी । इतनी खुश कि जिसको शब्दों में कहना मुमकिन नहीं है । लेकिन मुझे आश्चर्य और ग्लानि इस बात की थी, इस घर से दूर रहकर उन्हें जो पीड़ा हुई होगी, वह पीड़ा उन्होंने आज तक कभी मेरे सामने अपने चेहरे पर नहीं आने दी थी ।

कुछ देर तक प्रसन्नचित्त मुद्रा में फ्लैट में इधर-उधर टहलते हुए माता जी ने वहाँ पर रखे हुए फर्नीचर सहित उन सभी सामानों का मुआयना किया, जिनकी उन्होंने उस फ्लैट में होने की अपेक्षा की थी । सभी सामानों को अपनी आशा और अपेक्षा के अनुसार पाने के बाद पूरी तरह संतुष्ट होकर उन्होंने अपने साथ लाया हुआ भोजन का डिब्बा खोला और डाइनिंग टेबल पर दो थालियों में खाना परोसकर मुझे खाना खाने के लिए कहा । उनका आदेश पाकर मैं उनके पास की डाइनिंग चेयर पर बैठ गया और फिर हम दोनों ने एक साथ खाना खाया ।

खाना खाते हुए पूरे समय माता जी उस फ्लैट के साथ जुड़ी हुई हमारे अतीत की छोटी-छोटी कहानियाँ सुनाती रही, जिन्हें सुनकर मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं केवल माता जी के साथ नहीं हूँ, अपने पूरे परिवार के साथ मेरे बचपन को दोबारा जी रहा हूँ ! शायद माता जी भी अपने अतीत में विचरने लगी थी, इसलिए वह कुछ देर तक आत्मविस्मृत-सी बैठी रही और फिर अचानक मुझसे बोली -

"इस फ्लैट की मेरे नाम रजिस्ट्री की केमिस्ट्री को समझना चाहता था न तू ?"

"हाँ, समझना तो चाहता था, लेकिन आपने ... !"

"तो ले, यह देख !"

कहते हुए माता जी ने अपने मोबाइल में रिकॉर्डेड एक वीडियो खोलकर मेरे सामने रख दी ।

क्रमश..