Baat bus itni si thi - 20 in Hindi Moral Stories by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | बात बस इतनी सी थी - 20

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बात बस इतनी सी थी - 20

बात बस इतनी सी थी

20.

हम दोनों रात में देर रात तक जागकर बातें करते रहे ।इसी वजह से सुबह हमारी नींद जल्दी नहीं खुल सकी । हम दोनों ही देर तक सोते रहे थे । सूरज सिर के ऊपर चढ़ आने पर कमल को चाचा जी ने जगा दिया, इसलिए वह मुझसे कुछेक मिनट पहले उठ गया था । जब मेरी नींद टूटी, तब तक नौ बज चुके थे । मेरी नींद टूटते ही कमल ने मुझसे कहा -

"जल्दी उठकर फ्रेश हो ले ! नाश्ता तैयार हो चुका है !"

" मै जल्दी से उठकर दैनिक कार्यों से निवृत्त हुआ और फिर स्नान करने लगा । मैं नहाकर बाथरूम से बाहर आया तो यह देखकर कि कमल का पूरा परिवार नाश्ते की मेज के इर्द-गिर्द बैठकर मेरा इंतजार कर रहा है, मैं नाश्ते की मेज की ओर बढ़ गया । मेरे उधर कदम बढ़ाते ही छः फीट के एक हष्ट-पुष्ट नवयुवक ने मेरे निकट आकर पहले हाथ जोड़कर मुझे प्रणाम किया और फिर मेरे पैर छूने के लिए झुक गया । उसको और उसके संस्कार युक्त विनम्र व्यवहार को देखकर मैं अचंभित था कि आखिर यह नवयुवक कौन है ? हालांकि उसकी शक्ल-सूरत काफी हद तक कमल से मिलती-जुलती थी, लेकिन कमल से भी चार इंच लम्बे और उससे भी कुछ भारी शरीर वाले उस नवयुवक को देखकर मेरे मन में यह प्रश्न उठ रहा था -

"यह कमल का बेटा कैसे हो सकता है ? अभी तो कमल खुद ही युवक दिखता है ! कमल ही क्यों, अभी तो कमल के पापा भी बूढ़े नहीं दिखते हैं ! फिर इसका बेटा अभी से इतना बड़ा कैसे हो सकता है ?"

अभी मैं उस नवयुवक के बारे में ही सोच रहा था कि तभी एक सोलह-सत्रह साल की स्मार्ट किशोरी ने आकर हाथ जोड़कर मेरा अभिवादन किया -

"नमस्ते अंकल ! कैसे हैं आप ?"

"मैं ठीक हूँ, बेटा ! आप कैसे हैं ?"

"जी अंकल, मैं भी ठीक हूँ !"

स्मार्टनेस और देसी संस्कारों के मिश्रण से विकसित एक नयी सभ्यता को धारण कर रही उस किशोरी ने मेरी उलझन को, जो कुछ देर पहले नवयुवक के दर्शन ने उत्पन्न की थी, और ज्यादा बढ़ा दिया था ।

शायद मेरी उलझन को कमल के पिता ने अच्छी तरह से समझ लिया था । उन्होंने मेरी उलझन को दूर करने के लिए स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा -

"अरे आर्यन ! कृतिका ! यह अंकल-वंकल बड़े शहरों में रहने वाले बड़े लोगों के फर्जी और दिखावटी रिश्ते होते हैं ! उनके फर्जी और दिखावटी रिश्तों में दमखम नहीं होता है ! अंकल कहकर हमारे देशी रिश्ते की आत्मीयता और लगाव की भावना कहीं गुम-सी हो जाती है ! अपने असली रिश्तों को नकली संबोधन की जरूरत नहीं है ! यह चंदन है, तुम्हारे पापा का बचपन का लंगोटिया यार और तुम्हारा चाचा ! सुबह तुम दोनों को बताया था न !" अंतिम वाक्य उन्होंने मुझसे कहा था ।

"जी दादा जी !" कृतिका और आर्यन ने एक सुर में अपने दादा जी की आज्ञा का पालन करते हुए दोबारा दोनों ने एक साथ मेरा अभिवादन किया -

"चाचा जी, प्रणाम !"

मैंने उन दोनों का अभिवादन स्वीकार करके कमल के पापा का समर्थन करते हुए कहा -

"आप बिल्कुल सही कह रहे हैं, चाचा जी ! अंग्रेजी सभ्यता-सस्कृति ने हमारी संस्कृति को बहुत नुकसान पहुँचाया है ! अंग्रेजी सभ्यता की नकल करने वाले सभी लोग अंग्रेजियत का चोला पहनकर दिखावटी जीवन जीते हैं और दिखावट में ही ज्यादा भरोसा करते हैं । उन लोगों में अपनों के लिए वह प्यार और त्याग कहाँ ? जो हम लोगों में एक-दूसरे के लिए मिलता है !"

"पर चंदन बेटा ! फिर भी, पता नहीं क्यों ? पढ़-लिखकर आज के ज्यादातर नौजवान अपनी संस्कृति को छोड़कर उन्हीं लोगों की भाषा और संस्कृति के पीछे अंधे होकर दौड़ते फिरते हैं, जिन्होंने हमारे देश की धन संपदा को लूटा और सैकड़ों सालों तक जो हमारे देशवासियों को गुलाम बनाकर उन पर अत्याचार करते रहे !"

उनकी बातों का मेरे पास कोई जवाब नहीं था । मैं खुद भी तो अपनी संस्कृति का दामन छोड़कर बड़े शहर में रहने वाला एक भटका हुआ नौजवान बन चुका था ।

खैर, देश, गाँव और शहर के भूत-वर्तमान और भविष्य की चर्चा के बीच नाश्ता शुरू हो चुका था । आज बहुत दिनों बाद मुझे पारिवारिक सुख की अनुभूति हो रही थी, भले ही वह मेरा परिवार न होकर मेरे दोस्त कमल का परिवार था । कुछ समय के लिए तो मैं यह भूल ही गया था कि वह मेरा परिवार नहीं, मेरे दोस्त का परिवार है ।

कमल के मम्मी पापा से तो मेरा पुराना परिचय था । मेरे बचपन से ही उन्होंने मुझे कमल की तरह खिलाते-पिलाते-दुलारते और डाँटते हुए अपनेपन का एहसास कराया था । लेकिन कमल के बच्चों से यह मेरा पहला परिचय था । कमल की पत्नी हम सबके साथ नाश्ता करने के लिए नहीं बैठी थी । वह अभी तक रसोई के अन्दर थी और हम सबके लिए नाश्ता बना रही थी । मैं समझ गया था कि भारतीय संस्कृति का पालन करने के लिए वह एक आदर्श गृहिणी के रूप में परिवार के सभी लोगों को नाश्ता कराने के बाद ही नाश्ता करेंगी । फिर भी, मैंने परिचय करने के उद्देश्य ने उन्हें पुकारा -

"भाभी जी ! आप नाश्ता नहीं करेंगी ? या इस देवर के साथ नहीं करना चाहती ? कहीं ऐसा तो नहीं कि देवर का आना आपको अच्छा न लगा हो ?"

"अरे, नहीं भाई साहब ! आप कैसी बातें कर रहे हैं ! दरअसल मैं पहले से ही मम्मी जी-पापा जी को तसल्ली से खिलाने के बाद ही खाती हूँ ! अब बच्चों को स्कूल और इन्हें ऑफिस जाना होता है, तो यह सब भी मम्मी जी-पापा जी के साथ ही बैठ जाते हैं !" कमल की पत्नी ने रसोई से बाहर हमारे पास आकर कहा ।

"मतलब, जब सब लोग खा चुके होते हैं, तब आपको अकेले बचा-खुचा खाना पड़ता है ?"

"हाँ, आप यह भी कह सकते हैं ! पर अब सबसे बाद में अकेले खाने की आदत पड़ गई है, इसलिए अब ऐसा ज्यादा कुछ महसूस नहीं होता है !"

"चंदन, बेटा ! स्कूल तो मनीषा भी जाती है ! यह पटना के रघुनाथ बालिका इंटर कॉलेज में प्रिंसिपल है ! फिर भी यह इस घर का और हमारा बहुत ध्यान रखती है ! सुबह सबका पेट भरकर दोपहर के लिए खाना बनाकर स्कूल जाती हैं और शाम को लक्ष्मी का अवतार लेकर घर लौटती हैं ! बस यह समझ लो कि हमारे घर की अन्नपूर्णा भी है यही और लक्ष्मी भी यही है !"

नाश्ता करते-करते चाचा जी मुझे मनीषा भाभी की प्रशंसा करते हुए उनकी एक-एक करके अनेक विशेषताएँ बताते रहे और हम सब हँसते-खिलखिलाते हुए नाश्ते का आनंद लेते रहे । नाश्ता करके मैं और कमल घूमने के लिए बाहर निकल गये ।

वह पूरा दिन मैंने और कमल ने अपने पुराने दिनों की यादों में नये-पुराने अनुभवों एक-दूसरे के साथ साझा करके उनसे नई सीख लेते हुए बिताया था । वास्तव में मेरे जीवन में वह पहला ऐसा दिन था, जब मैंने अपने अनेक निर्णयों का निष्पक्ष विश्लेषण करके खुद की गलतियों को स्वीकार किया था ।

अपने बच्चों से संतुष्ट कमल के मम्मी-पापा, त्याग-तपस्या की प्रतिमूर्ति उसकी सुशील और सुंदर पत्नी तथा उसके संस्कारी बच्चों से भरे-पूरे परिवार के साथ एक दिन गुजार कर मुझे मेरे भी एक खुशहाल परिवार की जरूरत महसूस होने लगी थी । कमल के पापा से अपनी भारतीय संस्कृति का गौरव गान सुनकर उस दिन पहली बार मुझे अपनी उस प्रगतिशील बुद्धि पर तरस आ रहा था, जिससे प्रेरित-संचालित होकर मैं जिंदगी के चालीस बसंत पार करने के बाद भी अकेला और कुंवारा बैठा था । दूसरी तरफ कमल एक बीस साल के नौजवान बेटे और सत्रह साल की सुकन्या का बाप बनकर कई बड़ी-बड़ी जिम्मेदारियों के फर्ज और कर्ज़ से मुक्त हो चुका था ।

उस दिन मैं यह सोचने के लिए मजबूर हो गया था कि भारत में पुराने समय से चला आ रहा शादी का वह परंपरागत तरीका ही सबसे अच्छा है, जिसमें शादी कब ? और किसके साथ की जाए ? इसका पहला और अंतिम फैसला शादी योग्य लड़के लड़की के माता-पिता करते हैं, वे खुद नहीं करते । यानी अरेंज मैरिज ही सर्वश्रेष्ठ है । चूँकि इस तरह की शादी अक्सर जवानी के पहले पायदान पर कदम रखते ही हो जाती है और उस नये-नये बने रिश्ते में अधिकारों से पहले कर्तव्यों की बात की जाती है, इसलिए वह रिश्ता लम्बे समय तक चलता है ।

मात्र एक दिन कमल के परिवार के साथ गुजारने के बाद मैं अनायास ही अपने मन-ही-मन में उसके वैवाहिक जीवन की तुलना अपने उन शादीशुदा दोस्तों से करने लगा, जिन्होंने अपना कैरियर सँवारने के बाद अपनी पसंद की लड़की से शादी की थी । इनमें से कई तो ऐसे थे, जिन्हें उसके लिए अपने माता-पिता का विरोध भी झेलना पड़ा था । कमल सहित इन सभी दोस्तों के साथ मेरी काफी घनिष्ठता थी, इसलिए उन सभी की शादीशुदा जिन्दगी के काले-उजले पक्षों को मैंने काफी करीब से देखा था ।

इन सब की तुलना करने पर मेरा निष्कर्ष यह कहता था कि कमल जैसी खुशहाल और सुकून भरी जिंदगी इनमें से किसी को नसीब नहीं थी । इनमें से किसी को भी अपनी अब तक की शादीशुदा जिन्दगी में न कमल की तरह इतनी शांति मिली थी और न ही इतना प्यार मिला था ।

कमल के साथ खुद अपनी और अपने कई दोस्तों की तुलना करके निकले अपने निष्कर्ष की वजह से पहली बार मुझे अपने उस दिन के लिए पछतावा हो रहा था, जब मैंने मेरी शादी को लेकर अपने माता-पिता जी के आत्मीय आग्रह को ठुकराते हुए कहा था कि मैं अपनी मर्जी से अपनी पसंद की लड़की के साथ शादी करना चाहता हूँ और जब तक मुझे अपनी पसंद की लड़की नहीं मिलेगी, तब तक मैं शादी नहीं करूँगा ।

मेरे पापा जी अपनी अंतिम साँस तक बेटे की शादी और पोता-पोती को अपनी गोद में खिलाने का सपना पाले रहे, लेकिन मैं अपनी अंधी जिद के लिए उनकी इच्छा और आग्रह को पीछे छोड़कर आगे बढ़ता रहा । मैं उनके उस छोटे से सपने को थोड़ी-सी भी कद्र नहीं दे सका और वे अपने अधूरी इच्छा के साथ ही इस दुनिया से विदा लेकर चले गए ।

कमल के सफल वैवाहिक जीवन और मेरे मंजरी के साथ तनावपूर्ण संबंध को देखकर मैं यह सोचने के लिए मजबूर हो गया था कि शायद पैंतीस-चालीस साल की उम्र पार करते-करते किसी भी स्त्री या पुरुष के मनःमस्तिष्क और व्यवहार में इतनी लोच नहीं रह जाती है कि वह किसी के साथ सामंजस्य करके उसकी शर्तों पर जीवन जी सकें, जोकि स्त्री-पुरुष दोनों के लिए ही साथ-साथ रहने और जीवन जीने के लिए जरूरी है !

कमल के परिवार के खुशनुमा वातावरण और मेरे तनावपूर्ण अकेलेपन का विश्लेषण यह कह रहा था कि शादी के योग्य बच्चों को अपने माता-पिता के आग्रह पर शादी के लिए सही उम्र में शादी कर लेनी चाहिए ! उनके चुने गए जीवन साथी के साथ शादी करके जिंदगी में जितना सुख-सुकून और आनंद रहता है, ज्यादा समझदारी की उम्र में अपनी मर्जी से अपनी पसंद से चुने हुए जीवन-साथी के साथ उतना सुख-सुकून और आनंद नहीं मिल पाता है !

मैं और मेरे जैसे मेरे अनेक दोस्त मेरे इन तर्कों के जीते-जागते उदाहरण थे और चीख-चीखकर इस बात की गवाही दे रहे थे कि कमल का जीवन हमसे बहुत बेहतर है । गवाही के तौर पर हर कोई कह सकता था कि चालीस साल की उम्र में भी कमल बच्चों की तरह तनावमुक्त जीवन जी रहा है और इसके पीछे कमल का वह परिवार था, जिसका अस्तित्व स्वयं कमल के प्रयासों का परिणाम नहीं है, बल्कि उसका अपने माता-पिता की इच्छाओं और आग्रहों के प्रति समर्पण और स्वीकार्यता का भाव है । इसका सबूत खुद मनीषा भाभी थी, जो कमल की नहीं, उसके मम्मी-पापा की पसंद थी ! मम्मी-पापा की पसंद और मर्जी से उनका विवाह मात्र बीस-बाइस साल की उम्र में संपन्न हो गया था ।

क्रमश..