Baat bus itni si thi - 16 in Hindi Moral Stories by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | बात बस इतनी सी थी - 16

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बात बस इतनी सी थी - 16

बात बस इतनी सी थी

16.

अगले दिन मेरी माता जी गाँव में चली गई । गाँव में हमारा पैतृक घर था, जिसमें मेरे एक ताऊ जी रहते थे । माता जी को स्टेशन पर छोड़ने के बाद मैं घर वापिस लौटा, तो उनकी अनुपस्थिति में मुझे वह घर बिल्कुल वीरान खंडहर-सा लग रहा था । यह सोच-सोचकर कि आज तक मैं अपनी माँ को दुःख और अपमान के सिवा कुछ नहीं दे सका, मैं ग्लानि में डूबकर अंदर ही अंदर कहीं गलने और टूटने लगा था । लेकिन इस दलदल से निकलने का मुझे कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था । कुछ देर बाद निराश परेशान होकर मैं भी घर से अपने ऑफिस के लिए निकल गया ।

शाम को छुट्टी के बाद ऑफिस से घर लौटना मुझे एकदम निरर्थक-सा लगने लगा था । मन में बार-बार बस एक ही सवाल उठ रहा था -

"माता जी गाँव चली गई हैं, तो अब घर किसके लिए ?और क्यों जाना है ? क्या सिर्फ मंजरी से टॉर्चर होने के लिए ?"

ईंट-पत्थर से बने उस मकान में मंजरी की उपस्थिति मुझे उस मकान के घर होने का एहसास कराने में नाकामयाब सिद्ध हो रही थी । आज से पहले जहाँ मैं जाने-अनजाने खिंचा चला जाता था, माता जी के वहाँ से चले जाने के बाद आज मुझे वहाँ की किसी चीज से ऐसा लगाव महसूस नहीं हो रहा था, जो मुझे अपनी ओर खींचकर वहाँ ले जाए ! !

इसी अहसास की कमी के चलते मैंने उस दिन शाम को ऑफिस से छुट्टी होने के बाद घर जाना कैंसिल कर दिया और अपने एक बैचलर दोस्त के कमरे पर चला गया । वहाँ जाकर सबसे पहले मैंने अपने मोबाइल को स्विच ऑफ किया । इसके बाद मैं खाना खाकर बेफिक्र होकर सो गया । माता जी घर में होती, तो मैं इस तरह बेफिक्र होकर नहीं सो सकता था, क्योंकि वे मेरा तब तक जागकर इंतजार करती रहती, जब तक मैं घर वापिस नहीं लौत जाता ! या कम-से-कम उन्हें मेरे घर नहीं लौटने की सूचना नहीं मिल जाती ! हो सकता है, मंजरी ने भी मेरा इंतजार किया हो, लेकिन मैं पूरी रात अपने बैचलर दोस्त के कमरे में ही घोड़े बेचकर सोता रहा और सुबह उठकर वहीं से ऑफिस के लिए निकल गया ।

तीन दिन तक मेरा यही क्रम चलता रहा - शाम को ऑफिस से छुट्टी होने के बाद किसी दोस्त के कमरे पर जाना, अपना मोबाइल स्विच ऑफ करके सो जाना और सुबह उठकर वहीं से ऑफिस चले जाना । ऑफिस टाइम में मेरा मोबाइल हमेशा ऑन रहता था । जब मंजरी की कॉल आती, तो मैं अपनी जूनियर से कॉल रिसीव कराके कहलवा देता कि अभी व्यस्तता की वजह से बात करना मुमकिन नहीं है । चौथे दिन जब मैं ऑफिस में था, मेरे मोबाइल पर पुलिस की कॉल आई । पुलिस ने मुझसे कहा -

"आपकी पत्नी ने ऑनलाइन शिकायत दर्ज कराई है कि आप चार दिन से घर पर नहीं पहुँचे हैं ! आप अपनी पत्नी की कॉल भी रिसीव नहीं कर रहे हैं ! आपकी पत्नी घर में अकेली बहुत परेशान है, क्योंकि आपने घर में उनके लिए कुछ खाने-पीने की व्यवस्था भी नहीं की है ! आपके घर में पानी भी नहीं आ रहा है और सीवर पाइप चॉक हुई पड़ी है । ऐसी स्थिति में उनका घर में रहना बहुत मुश्किल हो गया है, इसलिए आप तुरंत घर आकर इन सब समस्याओं का समाधान करें !"

पुलिस का आदेश सुनकर मैं पागल-सा हो गया था कि अभी तक मंजरी केवल महिला आयोग से कॉल कराकर मेरा दिमाग खराब और टाइम बर्बाद करती थी, अब पुलिस को भी मेरे पीछे लगा दिया है ।

जो भी हो, पुलिस की हिदायत का पालन करना जरूरी था, इसलिए शाम को ऑफिस से छुट्टी के बाद मैं घर लौट आया । जब मैं घर पहुँचा, मंजरी घर पर नहीं थी । दरवाजे पर ताला लगा हुआ था और मैरे पास उस ताले की डुप्लीकेट चाबी नहीं थी । मैंने उसको कॉल करने की कोशिश की, तो कॉल नहीं लगी । उसका मोबाइल स्विच ऑफ था । अब मेरे पास दो ऑप्शन थे - पहला ऑप्शन था, उसके लौटने का इंतजार करूँ ! दूसरा ऑप्शन था, घर के अंदर जाने के लिए ताला तोड़ दूँ ! अपने ही घर में ताला तोड़कर घुसना मुझे ठीक नहीं जान पड़ा, इसलिए मंजरी के लौटने का इंतजार करने के अलावा अब मेरे पास कोई ऑप्शन नहीं था ।

मंजरी का इंतजार करते हुए लगभग एक घंटा तक में सोसायटी के पार्क में टहलता रहा । जब मंजरी के घर लौट आयी, तब मैं भी घर पहुँच गया । मेरे घर पहुँचने पर मैंने महसूस किया कि मंजरी के चेहरे पर मेरे घर लौटने की खुशी से ज्यादा अपनी जीत का घमंड था । उसी घमंड की पट्टी को अपनी आँखों पर बांधकर वह मेरे वहाँ न रहने की वजह से उसको पिछले तीन दिनों में हुई समस्याओं को लेकर लगभग आठ-दस मिनट तक मुझे दिल खोलकर खरी-खोटी सुनाती रही ।

यह सोचकर कि टंकी में पानी नहीं आने और सीवर पाइप ब्लॉक होने से मंजरी का परेशान और गुस्सा होना जायज है, मैं कपड़े बदले बिना ही सीवर पाइप का जायजा लेने के लिए बाथरूम में गया । वहाँ पर देखा, तो टंकी से भी पानी आ रहा था और सीवर पाइप से पानी की निकासी होने में भी कोई दिक्कत नहीं थी । उसके बाद मैंने दूसरे बाथरूम और फिर तीसरे बाथरूम और फिर रसोई में जाकर देखा, कहीं पानी और सीवर पाइप ब्लॉक होने की कोई समस्या नहीं मिली ।

दो मिनट पहले तक मंजरी के लिए मेरे दिल में जो सहानुभूति जागी थी, कहीं कोई समस्या नहीं मिलने पर अब वह सहानूभूति खत्म हो चुकी थी । सहानुभूति की जगह मन में यह विश्वास दृढ़ होता जा रहा था -

"कानून का सहारा लेकर मंजरी मुझे इतना परेशान कर देना चाहती है कि मैं उसकी शर्तों पर जीने के लिए मजबूर हो जाऊँ ! लेकिन मैं मंजरी की शर्तों पर नहीं जी सकता ! मैंने आज तक कभी उसको मेरी शर्तों पर जीने के लिए मजबूर नहीं किया, तो फिर मैं क्यों ... ?" मेरे अंदर से मेरे अस्तित्व ने विद्रोह करते हुए कहा ।

अपनी ही उलझन में उलझा हुआ मैं ड्राइंग रूम में आकर चुपचाप सिर पकड़कर सोफे पर बैठ गया और अपने सुखद अतीत, उलझन भरे हुए वर्तमान और अनुमान की चादर से ढके अनदेखे भविष्य के बारे में सोचने लगा ।

माता जी की अनुपस्थिति में अब मंजरी को भी ड्राइंग रूम में बैठने-लेटने में कोई दिक्कत नहीं थी । आज वह बहुत खुश थी । उसकी खुशी की वजह हर तरह से उसकी वह जीत थी कि उसने जैसा चाहा था, वह वैसा करने में कामयाब हो रही थी - मेरी माता जी खुद गाँव चली गयी और उसकी पुलिस से शिकायत करने के बाद मैं वापिस घर लौट आया था । अपनी जीत के दर्प में उछलती हुई वह भी वहीं पर ड्रॉइंग रूम में आकर मेरे पास सोफे पर बैठते हुए बोली -

"तुम्हें क्या लगता था ? टंकी में पानी नहीं आने और सीवर पाइप ब्लॉक होने जैसी घर की छोटी-छोटी समस्याएँ तुम्हारे बिना नहीं सुलझ सकती ? तुम सोचते थे कि मैं तुम्हें यहाँ रोती-बिलखती हुई मिलूँगी ?"

"मतलब यहाँ पर पानी की और सीवर पाइप ब्लॉक होने की कोई समस्या थी ही नहीं ! तुमने पुलिस से जो समस्याएँ बतायी थी, वह सब कुछ झूठ था ?"

"नहीं ! मैंने पुलिस से जो बताया, वह सबकुछ सच था ! तुम भी जानते हो, हमारी शादी से पहले तक मैं मल्टीनेशनल कंपनी में एक बड़ी जिम्मेदारी संभालती थी ! फिर घर की ऐसी छोटी-छोटी मेरा समस्याओं से निपटना मेरे लिए कोन-सी बड़ी बात है ? ऐसी प्रॉब्लम तो मैं यूँ चुटकी बजाते हुए सॉल्व कर देती हूँ ! " मंजरी ने बिंदास चुटकी बजाते हुए कहा ।

"तुम ऐसी प्रॉब्लम्स को चुटकी बजाते हुए सॉल्व कर लेती हो, तो फिर मुझे क्यों फोन कराया था ?"

"इसलिए कि तुम्हें तुम्हारी जिम्मेदारियों का एहसास हो ! यह तुम्हारी जिम्मेदारी है कि घर की छोटी-मोटी समस्याओं और बेसिक जरूरतों का ध्यान रखो !"

"मेरी जिम्मेदारियों का तो तुम्हें बहुत अच्छी तरह पता है, तुम्हारी क्या जिम्मेदारी है ? इसके बारे में भी कभी सोचा है तुमने ? कभी फुर्सत के दो-चार पल निकालकर सोचना जरूर कि मुझे परेशान करने के अलावा भी तुम्हारी कोई जिम्मेदारी बनती है ? या नहीं ?"

"मैं अपनी जिम्मेदारी को अच्छी तरह समझती हूँ, इसलिए खुद से चलकर तुम्हारे पास यहाँ आई थी ! और तुम हो कि... !"

"शादी के छः महीने बाद तुम्हें तुम्हारी जिम्मेदारी निभाने की याद आयी है ?"

"छः महीने बाद ही सही, कम-से-कम मुझे अपनी जिम्मेदारी का एहसास तो हुआ ! तुम्हें तो छः महीने बाद भी ... !"

"बहुत देर कर दी है, तुमने तुम्हारी जिम्मेदारी को समझने में ! जहाँ तक मेरी बात है, तो मुझे छः महीने पहले भी अपनी जिम्मेदारी की पूरी समझ थी और आज भु है !"

"तुम्हें आज भी अपनी जिम्मेदारी की पूरी समझ है, तो फिर तुम अपनी जिम्मेदारी से भाग क्यों रहे हो ?"

"क्योंकि आज मुझे यह समझ में आ गया है कि तुम्हारे साथ शादी करने का मेरा फैसला गलत और बिल्कुल गलत था ! अब मैं अपनी गलती को सुधारना चाहता हूँ !"

"देर होने से क्या मतलब है तुम्हारा ?"

"देर होने से और क्या मतलब होगा ? मतलब, देर होना ही है ! " मैंने दृढ़तापूर्वक कहा ।

"मतलब पिछले छः महीने में तुम्हारा किसी के साथ ... ?"

आज से पहले तक मैं मंजरी के इस प्रश्न पर हमेशा यही कहता रहा था कि मेरा किसी लड़की के साथ ऐसा कोई रिश्ता नहीं है, जिससे हम दोनों के बीच में दूरी बढ़े या भरोसा कम हो ! लेकिन आज जब मैं खुद मंजरी से दूर, बहुत दूर होना चाहता था, तब मुझे उससे दूर रहने का सबसे कारगर उपाय उसके शक को पक्का करना ही लगा । मैंने अपनी इस युक्ति को आजमाने के लिए उसके सवाल का जवाब देते हुए कहा -

"हाँ ! सही सोच रही हो तुम !"

मेरा जवाब "हाँ" में सुनकर मंजरी पर बर्फ-सी पड़ गई । कुछ पलों तक वह बुत बनी रही और विश्वास-अविश्वास के झूले में झूलती रही । उसकी हालत देखकर मुझे यह समझ में नहीं आ रहा था कि जिस बात को अब से चार दिन पहले तक वह खुद दिन-भर चीख-चीखकर कहती रही थी, उसी बात को आज वह मेरे मुँह से सुनकर बुत क्यों बन गई है ? कुछ क्षणों के बाद मंजरी का मौन भंग हुआ और उसने मुझसे पूछा -

"कौन है वह ?"

"एक हसीन लड़की है ! तुम्हारे विचार से कौन हो सकती है ? कोई घोड़ी-गधी तो होगी नहीं !"

"यह तो मैं भी समझ सकती हूँ, कोई लड़की ही होगी ! मैं जानना चाहती हूँ, कौन है वह लड़की ? और तुम उसे कब से जानते हो ?"

"कॉलेज के दिनों से जानता हूँ ! कॉलेज में मेरी क्लासफेलो थी ! कॉलेज छोड़ने के बाद हम दोनों ने एक ही कंपनी के एक ही ऑफिस में साथ-साथ ज्वाइन किया था और कई साल तक साथ काम किया है !"

मैंने मंजरी के सभी सवालों का जवाब बहुत गम्भीर लहजे में दिया था, इसलिए वह भी इस विषय को लेकर गंभीर हो गई थी । मंजरी की बेचैनी बढ़ रही थी और उसके चेहरे से जीत का घमंड अब उतर चुका था । अब उसका चेहरा गुस्से से लाल-पीला होकर तमतमा रहा था । उसने कहा -

"मैं तो उसी दिन समझ गई थी, जिस दिन यहाँ आई थी कि तुमने मुझे धोखा दिया है ! तुमने मुझे जो बात आज बतायी है, उसी दिन क्यों नहीं बता दी थी ? मैंने उस दिन भी तुमसे बार-बार पूछा था कि मेरे अलावा तुम्हारा किसी दूसरी लड़की के साथ अफेयर चल रहा है ?"

उसकी बेचैनी को देखकर मुझे हल्की-सी हंँसी आ रही थी, पर मैंने अपनी हँसी रोककर गंभीर लहजे में उससे कहा -

"धोखा मैंने नहीं, तुमने मुझे दिया है ! शादी करने के बाद दो सप्ताह तक मेरे दिल की गहराइयों से निकले चुंबन-आलिंगन से भी तुम्हें मेरे लिए कुछ फील नहीं आया था ! तुम मुझे ठेंगा दिखा कर चली गई थी ! अब शादी के छः महीने बाद तुम्हें यह याद आया है कि हम दोनों में कुछ ऐसा होना चाहिए, जो नहीं हुआ है ! अब तुम्हें अहसास हुआ है कि हमारे बीच से कुछ गायब है !"

"चंदन ! तुम मेरे साथ ऐसा नहीं कर सकते ! मैं तुम्हें ऐसा नहीं करने दूँगी !" मंजरी ने गुस्से से काँपते हुए कहा ।

"क्यों नहीं कर सकता ?"

"चंदन ! तुम ऐसा सोच भी कैसे सकते हो ? उस समय तो बात बस इतनी सी थी कि ... !

"इतनी-सी कितनी-सी ... ?"

"चंदन ! बात बस इतनी सी थी कि तब मुझे इतनी समझ नहीं थी कि ...!" मंजरी का उसकी नासमझी की सफाई देना मुझे रास नहीं आ रहा था । इसलिए मैंने उसको आइना दिखाते हुए कहा -

"मंजरी मैं मान भी लूँ कि उस समय बात बस इतनी सी थी कि तब तुम्हें रिश्तों को निभाने की समझ नहीं थी ! पर तब भी तुम्हें इतनी समझ तो थी कि अस्सी हजार रुपयों से भरा ब्रीफकेस मेरी माता जी के हाथ में देकर वीडियो बना लो और फिर मंडप में बैठकर पूरे समाज के सामने उन्हें बेइज्जत करो ! इतनी समझ तुम्हें नहीं थी कि शादी के बाद एक लड़का-लड़की एक दूसरे के साथ कैसे रहते हैं ? सच कहूँ तो तब ही नहीं, तुम्हें आज भी अपनी जिम्मेदारी की पूरी समझ नहीं है ! आज भी तुम्हें सिर्फ और सिर्फ अपने स्वार्थ की समझ है ! "

यह कहते-कहते मेरे दिलो-दिमाग में मंजरी द्वारा हमारी शादी के समय किया गया तमाशा वर्तमान होकर उसका एक-एक दृश्य किसी फिल्म की तरह मेरी आँखों के सामने हवा में तैरने लगा । इसलिए अब हर पल मेरा गुस्सा बढ़ता जा रहा था । अपने गुस्से पर काबू पाने की कोशिश में मैं कुछ पलों तक चुप रहने के बाद फिर बोला -

"मंजरी ! झूठ नहीं बोलना ! क्या यह सच नहीं है ? कि तुम्हें किराए के घर में रहना पसंद नहीं है और तुम शादी के बाद दिल्ली में अपने फ्लैट में रह सको, इसलिए तुम्हारे पापा ने मेरी माता जी से तुम्हारे लिए दिल्ली में कम से कम दो कमरों का एक लग्जरी फ्लैट खरीदकर देने की शर्त रखी कि तभी वे मेरे साथ तुम्हारी शादी करेंगे ! सच कहना, क्या तुम्हारे पापा ने मेरी माता जी के सामने यह शर्त नहीं रखी थी ? तुम्हें दिल्ली में फ्लैट खरीदकर देने से मेरी माता जी के मना करने पर उनके सामने तुम्हारे पापा ने फ्लैट खरीदने के लिए खुद एक करोड़ रुपए देने का प्रस्ताव रखा और बाद में उन्होंने मेरी माता जी को अस्सी लाख रुपये देकर दिल्ली में फ्लैट खरीदने के लिए सहमत कर लिया था ! क्या यह सच नहीं है ?"

"हाँ-हाँ-हाँ ! यह सब सच है ! लेकिन शादी के समय तक मुझे यह सच पता नहीं था ! पापा जी ने बाद में मुझे यह सब बताया था !"

"मंजरी ! मैं जानता हूँ कि तुम्हारे साथ मेरी शादी करने के पीछे मेरी माता जी को दहेज का जरा-सा भी लोभ नहीं था ! उनका बेटा तुमसे प्यार करता था और उन्हें अपने बेटे की खुशियों का लालच था, इसलिए उन्होंने इतना अपमान सहन कर लिया था !"

"मैं जानती हूँ कि आपकी माता जी को दहेज का लालच नहीं था ! मैं यह भी मानती हूँ कि वह आपको खुश देखना चाहती हैं ! पर मेरी खुशियों का क्या ? क्या मुझे खुश रहने का हक नहीं है ?"

"ज़रूर है ! तुम्हें खुश रहने का पूरा हक है ! तुम खुश रहो, इसीलिए तो मेरी माता जी अपने बेटे को तुम्हारे साथ छोड़कर गाँव चली गई हैं !"

"चंदन ! मैं तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ ! मुझे तुम्हारे साथ रहना है, इसलिए मैं यहाँ आयी हूँ ! ये सारी बातें पीछे छोड़कर चलो हम आगे बढ़ जाते हैं ! चलो, अब कमरे में अपने बिस्तर पर चलें ?"

"नहीं ! तुम कमरे में जाकर बिस्तर पर सो जाओ ! मुझे नींद आ रही है, मैं यहीं पर सोऊँगा ! बाकी बातें सुबह कर लेना !" कहकर मैं सोफे पर ही लेट गया और आँखें बंद करके सोने की कोशिश करने लगा ।

सुबह आँखें खुली, तो याद आया कि मुझे कंपनी के काम से तीन-चार दिनों के लिए शहर से बाहर जाना था । मैं जल्दी से उठा और नहा-धोकर जाने के लिए तैयार हो गया । उसी समय मंजरी ने मुझसे पूजा में शामिल होने के लिए कहा । मैंने उसको बहुत थोड़े-से सपाट शब्दों में जवाब देकर अपना पीछा छुड़ाने की कोशिश करते हूए कहा -

"मंजरी ! मेरे लिए मेरी नौकरी तुम्हारी पूजा से ज्यादा जरूरी है !"

यह कहकर में सूटकेस में अपने कपड़े रखने लगा । मंजरी को मुझसे ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी । उसने मुझे शक की नजरों से घूरते हुए पूछा -

"यह सूटकेस किसलिए पैक कर रहे हो ? हम कहीं बाहर जा रहे हैं क्या ?"

"हम नहीं, मैं ! मैं कंपनी के काम से तीन-चार दिनों के लिए आउट ऑफ स्टेशन जा रहा हूँ !"

"तुस्हारी इस 'मैं' से तुम्हारा क्या मतलब है ? तुम अकेले कहीं नहीं जाओगे ! जहाँ भी और जितने दिन के लिए भी जाना है, मैं तुम्हारे साथ चलूँगी ! हम दोनों जाएँगे !"

"नहीं ! तुम मेरे साथ नहीं चल सकती ! मैं वहाँ कंपनी की नौकरी करने के लिए जा रहा हूँ, मजे लूटने के लिए नहीं ! तुम साथ रहोगी तो न काम होगा, न मजे होंगे !"

अंतिम शब्द मैंने बहुत धीरे से कहे थे, मंजरी को सुनाने के लिए नहीं कहे थे । फिर भी, शायद मेरे शब्द उसके कानों में पड़ चुके थे, इसलिए उसने तुरंत पलटकर मुझसे पूछा -

"मैं तुम्हारे साथ रहूँगी, तो न काम होगा, न मजे होंगे !" इसका मतलब वहाँ मजे करने के लिए तुम्हारे साथ और कोई जा रहा है ! क्या मैं जान सकती हूँ, तुम्हारे साथ और कौन जा रहा है ?"

"हाँ, जरूर जान सकती हो ! मेरी कंपनी के ही कुछ और एंप्लॉय्स मेरे साथ जा रहे हैं ! पूछ तो ऐसे रही हो, जैसे तुम सबको जानती हो !"

"सच बताओ, वह लड़की भी तुम्हारे साथ जा रही है न ?"

"कौन-सी लड़की ?"

एक पल को मुझे लगा कि मंजरी मेरी उस जूनियर के बारे में पूछ रही है, जो ऑफिस में अक्सर मंजरी की कॉल रिसीव करती है । मैं सोच ही रहा था, तभी मंजरी बोल उठी -

"वही, जिसके साथ तुम्हारा चक्कर चल रहा है !"

किसी बात की सच्चाई जाने बिना ही अनजान-अपरिचित-काल्पनिक लड़की को लेकर मंजरी के मन में जो शक की लंबी हरी-भरी बेल लहलहा रही थी, उसके फल को खाकर मंजरी का चैन कहीं गायब होता जा रहा था । उसकी बेचैनी को देखकर मुझे हँसी आ रही थी । मैं यह नहीं चाहता था कि मंजरी मेरे यहाँ से जाने के बाद इन तीन-चार दिनों में घर में अकेली रहने के तनाव को झेलने के साथ-साथ किसी बेबुनियाद बात को मन में बसाकर एक फालतू का तनाव भी झेलती रहे ! इसलिए मैंने उसको तसल्ली देते हुए हँसकर कहा -

"मेरे साथ कोई लड़की नहीं जा रही है ! सिर्फ कंपनी के जेंट्स एम्पलॉइ्स जा रहे हैं !"

"तुम झूठ बोल रहे हो !"

मंजरी ने मेरी बात का भरोसा करने की बजाय उल्टे मुझ पर झूठ बोलने का आरोप लगा दिया । मैं सोचने लगा कि मंजरी प्यार की भाषा कभी नहीं समझती । इसलिए इसको उसी भाषा में समझाना पड़ेगा, जिस भाषा को यह अच्छी तरह समझती है । मैंने कहा -

"नहीं, मैं झूठ नहीं, एकदम सच बोल रहा हूँ और तुम भी सही सोच रही हो ! दरअसल वह बाद में अपनी अलग गाड़ी से आएगी ! वह मेरे साथ नहीं जा रही है, क्योंकि हमारा टिकट कंपनी ने पहले ही करा दिया था ! अच्छा, अब मैं चलता हूँ ! पहले ही बहुत लेट हो गया हूँ ! बाय ! अपना ध्यान रखना !"

यह कहते हुए मैंने सूटकेस उठाया और जल्दी से घर से बाहर निकल गया । घर से निकलने के बाद पूरे रास्ते भर जाते-जाते मेरे मन में बार-बार बस यही एक विचार आता रहा था -

"मैं तीन दिन के लिए शहर से बाहर जा रहा हूँ ! मेरी अनुपस्थिति में मंजरी को कुछ परेशानी हुई, तो जल्दी से लौटकर आना भी मुमकिन नहीं होगा !"

अगले दिन ऑफिस में पहुँचकर भी मुझे लगातार मंजरी की चिन्ता सताती रही कि नयी जगह पर अकेली रहते हुए मंजरी को नये-नये पड़ोसियों से कोई नयी समस्या न बन जाए ! हालांकि मंजरी अभी हाल में ही तीन दिन पहले भी इसी घर में अकेली रह चुकी थी और तब उसने मुझसे कहा था कि छोटी-मोटी घरेलू समस्याओं को तो वह चुटकी बजाकर सॉल्व कर लेती है । फिर भी मुझे लगातार उसकी चिन्ता सताए जा रही थी ।

मंजरी के लिए चिंतित होने के बावजूद उस दिन मैं दिन-भर कंपनी के काम में इतना व्यस्त रहा कि न तो मैं खुद मंजरी को कॉल कर सका और न ही उसकी कॉल रिसीव कर सका ।

जहाँ हमारी ठहरने की व्यवस्था थी, रात को ऑफिस से उस होटल में लौटकर मैंने मंजरी को कॉल करके उसकी कुशल-क्षेम जानने की कोशिश की ! मेरी कॉल लग भी गयी थी और पहली ही रिंग में मंजरी ने कॉल रिसीव भी कर ली थी, लेकिन वहाँ पर नेटवर्क की समस्या के चलते मात्र दो-तीन मिनट में ही कॉल कट गई । जितनी बातें दो-तीन मिनट हुई थी वह भी ठीक से नहीं हो पायी थी, क्योंकि बीच-बीच में नेटवर्क धोखा देता रहा और हम दोनों की ही आवाज उतनी देर के लिए गायब हो जाती रही थी । उसके बाद काफी कोशिश करने के बाद भी मेरी कॉल नहीं लग सकी और फिर न ही मंजरी की कॉल आयी ।

चूँकि घर से आने के बाद अब तक एक बार भी मंजरी से मेरी ठीक से बात नहीं हो सकी थी, इसलिए अगले दिन मैंने ऑफिस पहुँचकर सबसे पहले मंजरी को कॉल करने की कोशिश की । मेरे कई बार संपर्क करने पर भी पहले तो मंजरी ने मेरी कॉल रिसीव ही नहीं की । जब मंजरी ने मेरी कॉल रिसीव की, तो वह बड़ी बेरुखी से बोली -

"बार-बार कॉल करके मुझे परेशान क्यों कर रहो ?"

"रात होटल मे नेटवर्क की प्रॉब्लम के चलते बात नहीं हो सकी थी, इसलिए तुम्हारी कुशल-क्षेम जानने के लिए ... ! कोई प्रॉब्लम तो नहीं है ?"

"बड़ी चिंता है तुम्हें मेरी ? इतनी ही चिंता थी, तो अपने साथ मुझको लेकर क्यों नहीं गये ? मेरी जगह तुम उसको लेकर क्यों गए थे ?"

"अरे यार, मैं किसी को अपने साथ नहीं लाया हूँ ! तुमने तुम्हारे मन में जो शक का कीड़ा पाल रखा है, इसे निकाल फेंको और चैन से रहो !"

"चंदन ! मैं बेवकूफ नहीं हूँ ! और तुम मुझे बेवकूफ बनाने की कोशिश भी मत करना ! जब रात तुम मुझसे बात कर रहे थे, तुम्हारे पीछे से मैंने उसको हँसते हुए खुद अपने कानों से सुना था ! समझे तुम ?"

मंजरी की बात और उसका तर्क सुनकर मुझे हँसी आ गयी । मैंने कहा -

"मंजरी ! यार, तुम कितनी शक्की लड़की हो ! जब रात मेरे कमरे में मेरे साथ कोई था ही नहीं, फिर तुमने किसी को हँसते हुए कैसे सुन लिया ? सिर्फ पीछे से टीवी चल रहा था !"

अपने पक्ष में सफाई देते हुए मैंने देखा कि मंजरी ने अपनी बात कहते ही फोन काट दिया था, उसने मेरी बात सुनी ही नहीं थी । उसके बाद मैंने कई बार उसके मोबाइल पर कॉल करने की कोशिश की, हर बार कम्प्यूटर उसका मोबाइल स्विच ऑफ बताता रहा था ।

क्रमश..