Jai Hind ki Sena - 14 in Hindi Moral Stories by Mahendra Bhishma books and stories PDF | जय हिन्द की सेना - 14

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जय हिन्द की सेना - 14

जय हिन्द की सेना

महेन्द्र भीष्म

चौदह

बीस जनवरी, उन्नीस सौ बहत्तर की प्रातः आठ बजे पाँच सदस्यीय दल मध्यप्रदेश की पुरानी रियासत सूरजगढ़ पहुँचा। इस दल में एक मात्र मोना महिला सदस्य थी। शेष पुरुष अर्थात्‌ बलवीर के अलावा अटल, तौसीफ एवं हम्माद भी भानु के गाँव आये थे।

तौसीफ़ ने स्मृति के लिए खुलना में बनी भानु की समाधि के कुछ फोटो लिए थे जिन्हें वह अपने साथ लाया था। फोटोग्राफी उसने एक हॉवी के रूप में सीखी थी।

बलवीर को स्वास्थ्य लाभ के लिए मेजर पाण्डेय की संस्तुति पर तीन माह का अवकाश मिल गया था। अटल की बाँह की पट्टी जो गले के सहारे बाँह को लटकाए रहती थी; छूट चुकी थी। अब वह पहले की तरह पूर्णरूपेण स्वस्थ था। दल में बलवीर सबसे अधिक उदास था। अपनी उदासी को छिपाने का वह भरसक प्रयत्न करता था, फिर भी दल के शेष सदस्यों से उसकी अन्तर्व्यथा छिपी नहीं थी।

भानु के बिना सूरजगढ़ वापस आना उसे डूब मरने जैसा लग रहा था।

यदि भानु द्वारा उससे लिया गया अन्तिम वचन कि वह उमा का पुनर्विवाह करवायेगा और मोना का प्यार न होता तो वह वास्तव में भानु के

द्वारा अपना लिए गए रास्ते पर चला जाता। मोना अपने प्रियतम का दुःख—दर्द समझती है, तभी वह पिछले दिनों से बलवीर को अपना पूरा सहयोग दे रही है। बलवीर मोना को स्वर्गीय भानु की अन्तिम इच्छा से अवगत करा चुका था।

मोना ने इस बात की चर्चा अटल से कर दी थी। अटल उमा को देखने के लिए उतावला हो उठा था। ऐसा क्यों हो रहा था ? वह खुद नहीं समझ

पा रहा था। ठाकुर माधो प्रताप सिंह की हवेली कब आ गयी, अपने—अपने विचारों में खोए सभी को मार्ग का कुछ पता ही नहीं चला।

‘‘भानु का घर यही है।'' बलवीर ने सामने विशाल हवेली की ओर इंगित करते हुए कहा।

हवेली के अंदर सभी बिना रोक—टोक प्रवेश कर गए।

नौकरों ने बलवीर को पहचान लिया और भागकर उन सबके आने की सूचना हवेेली के पहले आँगन में अपने शरीर की मालिश करवा रहे ठाकुर साहब को दी।

उघारे बदन ऊँची कदकाठी के ठाकुर साहब अपनी वृद्धावस्था में भी

युवा वृद्ध की भाँति लगते थे। किसी ने कहा भी है ‘खंडहर बताते हैं इमारत बुलंद थी।'

ठाकुर साहब के कसरती शरीर पर यह उक्ति पूरी तरह चरितार्थ होती थी।

बलवीर के साथ अन्य लोगों को देख ठाकुर साहब ने उठकर सभी का स्वागत किया।

बलवीर की आँखों में बरबस आँसू छलक आये, जिन्हें देखकर ठाकुर साहब ने उसे गले लगा लिया और बलवीर की पीठ ठोकते हुए कहा, ‘‘रोता क्यों है पगले ? तेरा दोस्त, अपने दोस्त और देश के काम आया। उसने एक साथ दोस्ती और देशभक्ति का आदर्श स्थापित कर एक उदाहरण प्रस्तुत किया है ..... तेरा दोस्त तेरे पिता बलदेव और अपने पिता भगत की तरह स्वर्ग में स्थान पायेगा, जहाँ वे बेटे को आया देख प्रसन्न हो रहे होंगे।'' अन्तिम शब्द कहते—कहते ठाकुर साहब का भी गला भर आया।

वातावरण बोझिल न हो उठे यह ध्यान आते ही ठाकुर साहब ने दीवानखाने की ओर सभी को ले जाने के लिए बूढ़े नौकर हरिया को हाथ से संकेत किया।

दीवानखाने में भानु के पूर्वजों के आदमकद फोटो लगे हुए थे। सभी बड़ी—बड़ी रोबदार मूछों के साथ अपना प्रिय शस्त्र लिए हुए बड़े—बड़े फ्रेमों के अंदर कैद थे। कुछ देर बाद ही कुर्ता धोती व साफा पहने ठाकुर साहब दीवानखाने में आ गए। सभी को आग्रहपूर्वक जलपान कराते हुए ठाकुर साहब ने बलवीर से सभी का परिचय प्राप्त किया।

जैसे—जैसे समय गुजरता गया सभी का परिचय भानु के परिवार के सदस्यों से हो गया.......धीरे—धीरे सारी औपचारिकताएँ समाप्त हो गयीं, जिससे बंगाली बंधुओं को बड़ी राहत मिली।

सारी रात अटल ने करवटें बदलते हुए काटी। पहले पिता की छत्रछाया से वंचित हुई, फिर पति के देहावसान के बाद वैधव्य को भोगती हुई उमा का अंतिम सहारा भानु भी उसका साथ छोड़ गया। शांत, सौम्य, सुन्दर उमा के साथ उदासी की परछाई अटल ने बहुत पास से महसूस की थी। सादा श्वेत कपड़ों में उमा के सुंदर लावण्यमय चेहरे पर तेजस्विता की स्पष्ट झलक थी। अटल के अंदर बार—बार मोना के कहे शब्द गूंँज रहे थे, ‘‘अटल दा! बलवीर से भानु दा ने अन्तिम समय कहा था कि वह उसकी छोटी बहन उमा का पुनर्विवाह उपयुक्त वर ढूँढ़ कर करा दे।'

ममता और उमा में बहुत साम्यता महसूस की अटल ने। जैसे ममता ही उमा के रूप में उसके सामने आ गयी हो, परन्तु वास्तव में वह ममता नहीं थी।

यह वह अच्छी तरह जानता था। ममता—उमा दोनों के मध्य संतुलन स्थापित करते हुए अटल ऊहापोह में डूबा रहा। सिद्धान्ततः उसे अपने शेष जीवन में ममता जैसी एक जीवन साथी चाहिए थी जिसे उमा विकल्प के रूप में पूरी तरह स्थानापन्नता प्रदान कर रही थी जो व्यावहारिक रूप में उसके लिए अनुकूल था। .........फिर वह उमा को ममता के रूप में स्वीकार कर बलवीर

द्वारा अपने बलिदानी दोस्त भानु को दिये गये वचन की पूर्ति में इस तरह

सहायक भी बनता था, परन्तु क्या इसके लिए स्वयं उमा तैयार हो सकेगी और सहमति दे सकेंगे उमा के परिवार वाले? यहीं पर अटल अटक रहा था।

दूसरा और तीसरा दिन सूरजगढ़ में बिताकर बलवीर सभी को अपने गाँव ले आया। सूरजगढ़ में बिताए इन तीन दिनों में रूपसी किंतु दुर्भाग्य की शिकार उमा के प्रति अटल की सहानुभूति जाग उठी। उमा जैसी सुन्दर सलोनी

नवयुवती को आजीवन वैधव्य पालन करते हुए वह सहन नहीं कर पा रहा था और उमा को ममता के रूप में पाना उसने अपनी नियति समझी। तीन दिन चले वैचारिक अन्तर्द्वन्द्व में अंततः अटल ने उमा के साथ विवाह करने का मन ही मन संकल्प ले लिया।

बाग में विचरती उमा, छत पर एकाकी चिंतन करते हुए विचारमग्न टहलती उमा, आँगन के तुलसीचौरा में जल चढ़ाती उमा, सभी के मध्य बैठी मृदुभाषी उमा, हंँसी के मौकों पर केवल श्वेत दंतपंक्तियों की झलक के साथ मुस्कराती उमा अटल के मनमस्तिष्क में रच बस चुकी थी।

बलवीर बहुत देर तक अपनी माँ से लिपट कर रोता रहा।

पुत्र और भाई के सदृश मित्र भानु का वियोग माँ बेटे को समान रूप से था। मोना माँ बेटे को रोते हुए देख न सकी और अंदर कमरे में चली गयी। संयोग से मोना बलवीर के कमरे में आ गयी थी।

बहुत ही करीने से सजाया गया था कमरा।

दीवार पर बलवीर व भानु की फ्रेम जड़ित फोटो को देखकर मोना को बरबस अपने भानु दा की याद आ गयी और उसकी आँखों से स्वतः अश्रुपात होने लगा।

बहुत देर तक मोना भानु के मुस्कराते फोटो को देखती रही उसके गोरे गालों पर बहते आँसू अब सूख चुके थे।

‘‘बेटी'' मोना के कंधे पर बलवीर की माँ शांति देवी ने धीरे से हाथ रखते हुए कहा। इसके पहले कि मोना के हाथ उनके चरणाें तक पहुँचते शांति देवी ने बहू के रूप में मोना को पाकर अपनी छाती से लगा लिया। बाहर मोना के आने के बाद शांति देवी परिचय सत्र में यह भी जान चुकी थी कि मोना उनकी होने वाली बहू है।

‘‘बेटी जाने वाला कभी वापस लौटकर नहीं आता, केवल उसकी स्मृति

शेष रह जाती है, जिसके सहारे हमें अपने प्रियजनों के अभाव में जीना पड़ता है।'' शांति देवी ने मोना को सांत्वना देते हुए कहा।

रात्रि भोजन के पूर्व अटल और मोना के मुँह से उनके तथा उनके परिवार के साथ बीती दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने शांति देवी के हृदय को झकझोर कर रख दिया।

शांति, देशभक्ति और मानवता की उपासिका शांति देवी सब कुछ

सुनकर व्यथित हो उठीं और जब उन्होंने अपने बेटे बलवीर के साथ तौसीफ एवं हम्माद के मुख से अत्याचारी पश्चिमी पाकिस्तानी सैनिकों की बर्बरता सुनी तो उनका हृदय रो पड़ा। देर रात तक बीती घटनाओं की चर्चाएँ होती रहीं।

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