Zindagi ki Dhoop-chhanv - 7 in Hindi Short Stories by Harish Kumar Amit books and stories PDF | ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 7

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ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 7

ज़िन्दगी की धूप-छाँव

हरीशं कुमार ’अमित'

स्थितियाँ

स्टेशन पर दस मिनट रूककर गाड़ी आगे चल चुकी थी, मगर मेरे दिमाग़ में अब भी पन्द्रह-बीस मिनट पहले का घटनाचक्रम घूम रहा था. कुछ देर पहले एक परिवार के मुखिया की ट्रेन से उतरने की घबराहट की बात सोचते ही अपनी मुस्कराहट को रोकना मेरे लिए मुश्किल हो जाता था. उस पुरूष की बातें थी ही ऐसी हास्यापद. इस बात के बावजूद कि ट्रेन ने उसे स्टेशन पर दस मिनट तक रूकना था, वे महानुभाव इसी चिंता में डूबे थे कि प्लेटफार्म किस तरफ आएगा और अगर उस तरफ का दरवाज़ा बंद होगा तो उतरेंगे कैसे. उनकी चिंता का एक विषय यह भी था कि सामान को पहले से ही दरवाज़े के पास ले जाया जाए या फिलहाल अपनी सीट के साथ ही रखा जाय. ख़ैर, अपना स्टेशन आने पर तो वे महानुभाव अपने परिवार और सामान समेत गाड़ी के डिब्बे से एक मिनट की अवधि में ही उतर जाने में सफल हो गए थे.

कुछ देर बाद मेरा स्टेशन आने को था. जैसे-जैसे वह पास आता जा रहा था, मेरी मुस्कराहट ग़ायब होती जा रही थी. स्टेशन आने पर अपने परिवार और सामान समेत उतर जाने की घबराहट मेरे दिल-दिमाग़ पर हावी होने लगी थी.

-०-०-०-०-०-


फ़र्क

ब्रीफकेस को मरम्मत के लिए दिया हुआ था, इसलिए उस रोज़ टिफिन हाथ ही में लिए दफ़्तर जाने वाली बस में अन्दर हुआ. हमेशा की तरह भीड़ काफ़ी थी. मेरा स्टॉप जब आने वाला हुआ, तो मैंने अगले दरवाज़े तक पहुँचने की कोशिश शुरू की. एक हाथ में टिफिन पकड़े, दूसरे से लोगों को हटाता हुआ आगे बढ़ रहा था कि एक यात्री की रूखी-सी आवाज़ सुनाई दी, ‘‘ध्यान से निकल यार, कहीं सब्ज़ी न गिरा देना दूसरों पे!’’

अगली सुबह ठीक हो चुका ब्रीफकेस लेकर जब उसी बस की भीड़ में से आगे निकलने की कोशिश कर रहा था, तो संयोग से वही कलवाला यात्री टकरा गया और ब्रीफकेस पर नज़रें जमाए हुए कहने लगा, ‘‘आइए साहब, आइए.’’ साथ ही बैठे आगे रास्ता बनाने के लिए एक तरफ़ हट-सा ही गया.

-०-०-०-०-०-

अहमियत

सड़क पर चलते हुए मैंने दूर से ही नवीन बाबू को पहचान लिया था. वे सड़क किनारे खड़े किसी से बातें कर रहे थे. मैं जानता था आजकल वे बेकारी से जूझ रहे हैं. किसी ज़माने में जब से ‘कखग टाइम्स’ में सहायक संपादक थे, तो मैं उनसे मिलने के लिए उनके दफ़्तर के बीसियों चक्कर लगाया करता था. नवीन बाबू ने मेरी अनेक रचनाएँ अपने अखबार में छापी थी. उन्हें ख़ुश रखने के लिए उन दिनों मैं कभी-कभी उनके लिए छोटे-मोटे उपहार भी ले जाया करता था. कुछ वर्षों बाद अख़बार बन्द हो जाने पर मेरा नवीन बाबू से नाता टूट गया था. मगर फिर भी कभी-कभार मुलाक़ात हो जाती थी. चलते-चलते मैं रूक गया और वापिस चलने लगा. रमेश बाबू से मिलकर उन्हें चाय-ठंडा पिलाने के बजाय किसी और रास्ते से अपने गंतव्य स्थान पर पहुंचना मुझे ज़्यादा ठीक लग रहा था.

-०-०-०-०-०-

ज़िन्दगी

नहाकर कपड़े पहन रहा था कि बाथरूम के बाहर से अपनी सात वर्षीय बेटी, निष्ठा, की आवाज़ सुनाई दी, ‘‘पापा, रिक्शावाला आ गया है. मैं स्कूल जा रही हूँ. शाम को मेरी तीन कापियाँ, कलर्स और पैंसिल का पैकेट लाना मत भूल जाना. कितने दिन हो गए हैं, हर रोज़ भूल जाते हो.’’

मेरा हाथ पैंट की जेब में पड़े पर्स पर चला गया. पर्स को बगैर खोले ही मैं जानता था कि उसमें पड़े रूपयों से महीने के इन आख़िरी दिनों में दफ़्तर आने-जाने का किराया भी मुश्किल से निकल पाएगा.

‘‘बाय, पापा. शाम को मेरा सारा सामान ले आना. नहीं तो मैं कुट्टी हो जाऊंगी आपसे.’’ हँसते हुए बाहर से निष्ठा कह रही थी. इधर बाथरूम के अंदर मेरी आंखें पनीली होने लगी थीं.

-०-०-०-०-०-

बड़े साहब

वक़्त के पाबन्द दफ़्तर के बड़े साहब सुबह पूरे नौ बजे सरकारी गाड़ी से अपने दफ़्तर के सामने उतर रहे थे. अपने कमरे में पहुँच उस दिन के अख़बारों पर नज़र डालते हुए उन्होंने सिगार पीया. फिर एक कोल्ड ड्रिंक भी. तब तक किसी दूसरे दफ़्तर की एक महिला अधिकारी उनसे गपशप लड़ाने आ गईं. उनके साथ बातों का सिलसिला चल पड़ा तो चलता ही रहा. यह तभी टूटा जब साहब के प्राइवेट सेक्रेटरी ने साढ़े ग्यारह बजे की एक मीटिंग के बारे में उन्हें याद दिलाया. साहब को सामने बैठी खूबसूरत महिला के साथ बतरस में बड़ा मज़ा आ रहा था, पर मीटिंग भी बेहद ज़रूरी थी. अनमनी-सी हालत में साहब ने मीटिंग में हिस्सा लिया. मीटिंग के अधबीच फाइव स्टार होटल में लंच का कार्यक्रम था. लंच के बाद चली मीटिंग में तो साहब बस ऊंघते-से ही रहे.

वापिस दफ़्तर पहुँचे तो दो लोग मिलने आए हुए थे. उन्हें निपटाया. फिर एक सिगार और पीया. एक कॉफ़ी भी. तब तक शाम के सवा पाँच बज चुके थे.

साढ़े पांच बजे दफ़्तर से छुट्टी करके उन्हें एयरपोर्ट जाना था - विदेश से आ रहे अपने पुत्र को रिसीव करने. मेज पर पड़े फाइलों के ढेर को उन्होंने उदासीनता से देखा. फिर चौदह मिनट के अन्दर ही उन सब पर अपने हस्ताक्षर की चिड़िया बनाकर उन्हें नीचे ज़मीन पर पटक दिया. पाँच बजकर उनतीस मिनट पर वे फोन पर बजर मारकर अपने प्राइवेट सेक्रेटरी को ड्राइवर से गाड़ी निकालने के लिए कह रहे थे.

-०-०-०-०-०-


महत्त्व

एक हफ़्ते की सरकारी ट्रेनिंग में वह कलकत्ता आया था. किसी कारण पहले दिन की पहली क्लास में तीन-चार मिनट बाद पहुँच पाया था. उस समय अलग-अलग शहरों से आए लोग अपना-अपना परिचय दे रहे थे. वह एक महिला के साथवाली खाली सीट पर बैठ गया था. बैठने के बाद जब उसने कनखियों से उस महिला की ओर देखा था तो उसके मुंह का ज़ायका बिगड़ गया.

बहुत काली-सी और असुंदर औरत थी वह. उस महिला ने पहली दो क्लासों और उसके बाद टी-ब्रेक में उससे बात करने की कई बार कोशिशें की, पर उसने उस महिला के प्रति बहुत ठंडा रूख़ अपनाया. अपनी बातचीत और व्यवहार से वह महिला बड़ी सुशील और कुशाग्र बुद्धि की मालूम पड़ती थी, मगर उसकी शक्ल-सूरत देखते ही उसका दिल उस महिला से बात करने को बिल्कुल न मानता. टी-ब्रेक के बाद उसने जोड़-तोड़ करके अपनी सीट भी बदल ली.

दोपहर में लंच करने के दौरान उसे किन्हीं लोगों से पता चला कि वह महिला एक आई.पी.एस. अधिकारी है. यह सुनते ही उस महिला के प्रति उसका दृष्टिकोण बदल गया. उस महिला का महत्व का पता अब उसे चल चुका था. लंच के बाद लगी क्लास में वह फिर उस महिला के पास वाली सीट पर जा बैठा और उससे बातचीत चलाने की कोशिश करने लगा.

-०-०-०-०-०-

रेत का ताजमहल

चार्टेड बस में चढ़ रही उस स्त्री को देखते ही मैं उस पर लट्टू हो गया था. ख़ूबसूरत चेहरा, आकर्षक देहदृष्टि, कंधों पर झूलते कटे बाल, स्लीवलेस ब्लाउज. जी में आया कि कितना अच्छा हो अगर यह मेरे बगली की खाली सीट पर आकर बैठ जाए. बैठ क्या जाए अगर इस स्त्री से दोस्ती हो जाए तो सोने पर सुहागा. सच में मैं उस स्त्री पर लट्टू हो चुका था. हालांकि ईश्वर में मेरा विश्वास नहीं था पर फिर भी मैं प्रार्थना करने लगा कि वह स्त्री मेरी ही बगल में आकर बैठे. यूँ मेरे से पीछेवाली कुछ सीटें भी खाली थीं, शायद मुझ जैसे नास्तिक की प्रार्थना भी भगवान ने सुन ली थी, क्योंकि वह स्त्री सचमुच मेरी बगल में आकर बैठ गई थी. मैं उस स्त्री से बातचीत चलाने का कोई बहाना खोजने लगा. मेरे तन-मन पर रोमांटिक भावनाएं छाने लगी थी. तभी उस स्त्री ने अपने सिर को साड़ी के पल्लू से ढककर अपने पर्स से हुनमान चालीसा निकाला और उसका पाठ करने लगी. मेरी सारी रोमांटिक भावनाएं एकदम से उडनछू होती जान पड़ीं.

-०-०-०-०-०-


एहसास

आज सुबह दफ़्तर के लिए चलने के कुछ देर पहले ही पत्नी ने यह ख़ुशखबरी दी थी कि वह माँ बनने वाली है. इसी चक्कर में दफ़्तर के लिए कुछ लेट हो गया था. वक़्त पर दफ़्तर पहुँच जाऊँ, इसलिए खाली बस का इंतज़ार न करके एक भीड़भरी बस में चढ़ गया था. बस में सीट मिलने का तो सवाल ही नहीं था. एक घंटा खड़े रहकर यात्रा करना बड़ा यातनादायक लग रहा था. तभी संयोगवश पास की सीट पर बैठा व्यक्ति बस से उतरने के लिए सीट से उठ खड़ा हुआ. मैंने लपककर वह सीट हथिया ली, हालांकि इस प्रयत्न में मुझ जैसे कई और (एक स्त्री समेत) भी शामिल थे. सीट पर बैठ कुछ पल आँखें मूंदे चैन की कुछ साँसे लेने के बाद जैसे ही मैंने आँखें खोली तो पाया कि यह सीट पाने की दौड़ में शामिल वह स्त्री पास ही खड़ी है. कुछ पल बाद यह भी अहसास हुआ कि वह गर्भवती है. यह जान मेरे मन में यही विचार आया कि इस हालत में लोकर बस में सफर करने की बजाय क्यों नहीं यह कुछ महीने की छुट्टी ले लेती या चार्टेड बस में सफर करती. पर तभी मुझे अपनी गर्भवती पत्नी का ख़याल आ गया. पैसों की तंगी के कारण वह बेचारी भी तो ऐसी ही भीड़ वाली लोकल बसों में अपने दफ़्तर जाती है. उस स्त्री को अपनी सीट पर बैठ जाने का निमंत्रण देते हुए मैंने झट-से वह सीट छोड़ दी.

-०-०-०-०-०-

और बाबू रो पड़ा!

आज जब बहुत दिनों बाद बस में सीट मिल गई और दफ़्तर तक का सफर बग़ैर भीड़ की चक्की में पिसते हुए पूरा हो गया, तो (सरकारी दफ़्तर का) बाबू खुश हो गया.

कैंटीन में चाय के कप की क़ीमत पचास पैसे बढ़ गई. बाबू उदास हो गया.

किसी कारण एक दिन की छुट्टी घोषित हो जाने के कारण दफ़्तर आने-जाने के बस के किराए के तीस रुपए बच गए. खुशी के मारे बाबू का हाल बुरा हो गया.

बाबू के घर कुछ मेहमान तीन-चार दिन रहने के लिए आ गए. बाबू पर गमी का दौरा-सा पड़ गया.

दफ़्तर में बाबू को अपने बनाए ड्राफ्ट पर साहब से शाबासी मिली. बाबू हँस पड़ा.

27 तारीख की शाम को ठसाठस भरी बस में बाबू की जेब में बड़ी हिफ़ाज़त से रखा हुआ पचास रुपए का इकलौता नोट निकल गया. बाबू रो पड़ा.

-०-०-०-०-०-


गुनाह

उस दिन छुट्टी के रोज़ सुबह से घर से निकला हुआ था कुछ निजी काम निपटाने के लिए. होते-होते दोपहर हो गई थी, पर काफ़ी काम अभी बाकी थे. भूख भी लग आई थी. किसी होटल, रेस्टरां या ढाबे में जाकर खाना खाने लायक तो हैसियत थी नहीं. सोचा पटरी के किनारे बैठे केलेवाले से केले खाकर ही भूख मिटा लूं. चार रुपए के तीन केलों में से आख़िरी केला खाते हुए अचानक नज़र पड़ी पास ही खड़े बस का इन्तज़ार करते हुए एक परिवार पर - पति-पत्नी और आठ-दस बरस का एक लड़का व एक लड़की. देखा बच्चे बड़ी ललचाई नज़रों से केलों की ओर ताक रहे थे. जी में आया कि बच्चों को ज़्यादा नहीं तो एक-एक केला लेकर दे दूँ. पर तभी याद आ गया अपनी जेब में पड़े रुपयों का गणित. साथ ही यह ख़याल भी आया कि उन बच्चों के मां-बाप कहीं हीनभावना न महसूस करें. इसलिए चुपचाप आख़िरी केले को निगलता रहा. पर साथ ही यह भी लगता रहा कि केले खाकर जैसे मैंने कोई गुनाह कर दिया है.

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रोमांच

लोकल बस में भीड़ बहुत थी. खिड़की के साथवाली सीट पर बैठे हुए मेरी आँखें बार-बार उस सुन्दर-सी युवती से जा टकरातीं जो छत पर लगा डंडा पकड़े खड़ी होकर सफ़र कर रही थी. वह युवती अपने साथ खड़ी एक और युवती से बातें करते हुए बीच-बीच में मेरी ओर भी देख लेती. उसका यूँ देखना मुझे बड़ा रोमांचित कर रहा था. मेरा यह आत्मविश्वास फिर से प्रबल होने लगा था कि इस अधेड़ उम्र में सफेदी झलका रहे बालों और दाढ़ी के साथ भी मैं किसी के आकर्षण का केन्द्र हो सकता हूँ.

कुछ देर बाद मेरा स्टॉप आने को था और बस से उतर जाने का ख़याल मुझे उदास कर रहा था. न जाने फिर कभी इस युवती से मुलाक़ात हो भी जाएगी या नहीं - मैं इन विचारों में खाने लगा था.

सीट छोड़ने का वक़्त आया तो एक बार फिर मैंने उस युवती की ओर देखा. तभी उसने भी अपनी नज़रें मेरी ओर डालीं. उफ़, कैसे-कैसे समुन्दर मचल रहे हैं इन आँखों में - यह सोचते हुए मैं सीट से उठ खड़ा हुआ और उस युवती के पास से निकलते हुए बस के अगले दरवाज़े की ओर जाने लगा.

अपनी ओर से मैंने भरसक कोशिश की कि अगले दरवाज़े की ओर जाते समय उस युवती का अधिक-से-अधिक स्पर्शलाभ पा सकूं, पर भीड़ इतनी ज़्यादा थी कि मैं इसमें कुछ हद तक ही सफल हो पाया. कुछ इस कारण भी कि तब तक वह युवती मेरी खाली सीट पर बैठने के लिए बढ़ने लगी थी. यह सोचकर कि वह युवती मेरी सीट पर बैठेगी, मेरा रोमांच और बढ़ गया.

काफी भीड़ होने के कारण अगले दरवाज़े की ओर जाना आसान नहीं लग रहा था. कई कोशिशें करके भी मैं एक-दो कदम ही आगे बढ़ पाया था. तभी पीछे से मुझे उस युवती की आवाज़ सुनाई दी. वह अपनी सहेली से कह रही थी, ‘‘आजा तू भी एडजस्ट हो जा. न जाने क्यों मुझे लग रहा था कि यह दाढ़ी वाला खूसट जल्दी ही उतर जाएगा. इसकी सीट पर मेरी नज़र काफी देर से थी. आखिर मिल ही गई उसकी सीट.’’ इसके साथ ही उन दोनों की सम्मिलित हँसी सुनाई दी. मेरा सारा रोमांच काफूर हो चुका था.

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