Zindagi ki Dhoop-chhanv - 1 in Hindi Short Stories by Harish Kumar Amit books and stories PDF | ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 1

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ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 1

ज़िन्दगी की धूप-छाँव

हरीशं कुमार ’अमित'

ख़ुशियों का एहसास

शनिवार होने के कारण दफ़्तर में छुट्टी थी. घर में था, पर तनाव बेहद ज़्यादा था. कुछ परेशानियाँ दफ़्तर की थीं, कुछ घर की. ज़िन्दगी जैसे एक बहुत बड़ी मुसीबत लगने लगी थी. बड़ा खिन्न और उदास-सा था मैं. ऐसे ही मिजाज़ के कारण पत्नी से भी ज़ोरदार झगड़ा हो गया था. फलस्वरूप न तो मैंने नाश्ता किया था और न ग्यारह बजे वाली चाय पी थी. अख़बार तक पढ़ने का मन नहीं कर रहा था. मैं अनमना-सा पलंग पर लेटा न जाने क्या-क्या सोचे चले जा रहा था.

सवा दो बजे स्कूल से मेरी बेटी, सोनाली, वापिस आई. आते ही हँसते हुए मुझसे प्यार-से लिपट गई. फिर अपने बैग से एक टॉफी निकालकर मुझे दिखाते हुए कहने लगी, ‘‘पापा, आज अंजु का बर्थडे था न, तो उसने स्कूल में बच्चों को दो-दो टॉफियाँ दी थीं. मैंने एक तो खा ली और एक मैं घर ले आई हूँ. आप और मम्मी आधी-आधी खा लेना.’’

सोनाली की बात पूरी होते-न-होते मैं इतना भावुक हो आया कि मेरी आँखें छलछला आईं. तभी मुझे महसूस हुआ कि मेरा सारा तनाव भी न जाने कहाँ छू-मंतर हो गया है.

-०-०-०-०-०-

अपने-अपने संस्कार

छुट्टी का दिन था और शाम को सात बजे भारत और ऑस्ट्रेलिया का ट्वेंटी-ट्वेंटी क्रिकेट मैच होना था. उत्सुकता चरमसीमा पर थी क्योंकि इसी मैच की विजेता टीम को फाइनल में पहुँचना था.

अपनी उत्सुकता के वशीभूत मैच शुरू होने से कुछ मिनट पहले ही मैं टी.वी. लगाकर डबल बेड पर अधलेटा-सा बैठ गया था. गर्मी के दिन थे. मैंने अपनी छोटी बेटी, नित्या, को कहा कि फ्रिज में से मेरे लिए ठंडे पेय की एक बोतल ले आए. मैं पूरा लुत्फ़ उठाते हुए मैच देखना चाहता था.

मगर मेरी हर बात को तत्परता से माननेवाली नित्या उसी तरह खड़ी रही. मैं कुछ पल उसे देखता रहा कि वह बस जा ही रही होगी ठण्डा पेय लेने, पर वह उसी तरह सावधान की मुद्रा में खड़ी रही. इस पर मैंने थोड़ी तेज़ आवाज़ में अपनी बात दोहराई, लेकिन मुझे ऐसा लगा मानो उसने मेरी बात सुनी ही न हो. मैं आगबबूला होकर कुछ कहने की सोच ही रहा था कि वह कहने लगी, ‘‘पापा, ला रही हूँ कोल्ड ड्रिंक. मैच से पहले जन गण मन आ रहा था न.’’

-०-०-०-०-०-

परिवर्तन

उसे लग रहा था कि तनाव से उसका सिर ही फट जाएगा. वह बहुत पछता रहा था कि उसने बीवी-बच्चों को प्रगति मैदान में लगा व्यापार मेला दिखाने का कार्यक्रम बनाया ही क्यों. पहले तो भीड़ भरी बस में प्रगति मैदान तक आते-आते हालत खराब हो गई थी और फिर जितनी उसे आशा थी, उससे कहीं बहुत ज़्यादा खर्च हो गया था. यहाँ तक कि आड़े वक़्त के लिए बचाकर रखे गए दो सौ रुपयों में से भी सौ से ज़्यादा रुपए उड़ गए थे मगर इसके बावजूद उसकी बीवी और दोनों बच्चों के मुँह फूले हुए थे. मेले में तरह-तरह की चीज़ें देखकर उन्हें खरीदने की इच्छा उन सबको हो आई थी. अपने दिमाग़ की चेतावनियों को नजरअंदाज़ करते हुए उसने कुछ छोटी-मोटी चीज़ें उन्हें ले तो दी थीं, पर फिर भी उनकी अनेक मनचाही चीजें ख़रीदने से रह गई थीं. न-न करते भी खाने-पीने पर काफी खर्च हो गया था. चीजों के दाम ही आसमान को छू रहे थे.

प्रगति मैदान से बाहर आने वाले गेट के पास वे पहुँचने ही वाले थे कि उसके छोटे बच्चे की नज़र खिलौने बेचनेवाले पर पड़ी और वह प्लास्टिक की एक छोटी बन्दूक दिलाने की ज़िद करने लगा. बन्दूक दस-पन्द्रह रुपए में ही आ जाती, पर अपनी खस्ता आर्थिक हालत के कारण उसे यह खर्च बिल्कुल फिजूलखर्ची लगा. उसने बच्चे को बुरी तरह झिड़क दिया और अपनी चाल तेज कर दी.

तभी उसने देखा गेट के पास उसके दफ़्तर का साथी खन्ना अपने परिवार के साथ खड़ा था. उन सबके हाथ खरीदी गई चीज़ों के पैकेटों से लदे-फदे थे और एक आदमी उन लोगों के हाथों से कुछ पैकेट लेकर उनका बोझ हल्का करने की कोशिश कर रहा था. उसके दिमाग़ में आया कि हो-न-हो खन्ना ने दफ़्तर में अपने पास आने वाली किसी पार्टी से मुफ़्त कार का जुगाड़ किया है और यह उसी कार का ड्राइवर है. खन्ना जैसे चालू आदमी के लिए ऐसे जुगाड़ करना बाएं हाथ का खेल था और खुद उसके लिए महापाप. आदर्शवाद का भूत जो सवार था उस पर. तनाव से भरा उसका दिमाग़ अब जैसे तनाव के समुद्र में गोते खाने लगा था. अपनी स्थिति उसे और भी दयनीय लगने लगी. खन्ना के सामने वह किसी भी हालत में पड़ना नहीं चाहता था.

वह एकदम से रूक गया और खिलौने वाले को पास बुलाकर प्लास्टिक की बन्दूक खरीदने लगा.

-०-०-०-०-०-

जन्मदिन

अगले दिन उनके बच्चे का जन्मदिन था और आज जेब ख़ाली थी. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर जन्मदिन मनाया कैसे जाए. बार-बार यही बात दिमाग़ में आती कि बच्चे का जन्म महीने के आख़िरी हफ़्ते में ही क्यों हुआ, जब कड़की की मार सबसे ज़्यादा होती है.

अपने जन्मदिन को मनाने की कई-कई योजनाएँ बनाते-बनाते बच्चा सो गया था. फिर उसके बाद पत्नी से सलाह-मश्विरे के लिए शुरू हुई उनकी बातचीत धीरे-धीरे लड़ाई-झगड़े में बदल गई थी. इस आपसी कहासुनी से कोई हल न तो निकलना था और न ही निकला.

पति-पत्नी दोनों को लग रहा था कि अगली सुबह बच्चे को किस मुँह से जन्मदिन की मुबारक़बाद देंगे, मगर अगली सुबह जैसे अपने साथ चमत्कार लेकर आई.

अगली सुबह नींद खुलने पर बच्चे ने माँ-बाप से कोई मुबारक़बाद मिलने से पहले ही यह ऐलान कर दिया कि आज वह अलग तरह से अपना जन्मदिन मनाएगा. वह अपने हाथों से तरह-तरह की ड्राइंग बनाकर और उनमें रंग भरकर घर को सजा देगा. होली के त्योहार पर लाए कुछ गुब्बारे पड़े हुए हैं, उन्हें फुला-फुलाकर जहाँ-तहाँ लटका दिया जाएगा.

उसके बाद बच्चे ने यह भी ऐलान किया कि आज वह अपनी पसंद का खाना खाएगा.

यह सुनते ही पति-पत्नी का दिल तेज़ी से धड़कने लगा, मगर तभी बच्चा कहने लगा, ‘‘मुझे राजमा-चावल बहुत अच्छे लगते हैं न. आज मैं वही खाऊँगा और साथ ही आटे का हलुआ भी!’’

बच्चे की बात सुनते ही पति-पत्नी के चेहरे खिल उठे. ऐसा जन्मदिन तो वे आराम से मना सकते थे. ख़ुशी के मारे उन दोनों की आँखें भीग गईं. उन्होंने झट-से आगे बढ़कर बच्चे को गले से लगा लिया.

आँखें तो बच्चे की भी भीग गई थीं, पर यह बात पति-पत्नी को न जाने कैसे पता नहीं चल पाई. न ही यह बात भी उन्हें पता चल पाई कि पिछली रात को उन दोनों के बीच हुई लड़ाई-झगड़े की आवाज़ें सुनकर बच्चे की नींद खुल गई थी और उसने बहुत कुछ सुन लिया था.

-०-०-०-०-०-

कोहरा

बड़ा अफसर अपने कमरे में छोटे अफसरों की मीटिंग ले रहा था. बाकी सब तो ठीक चला, पर एक छोटे अफसर को बड़े अफसर की खूब लताड़ पड़ी. यह नहीं कि उस छोटे अफसर का काम खराब था. उसका काम दूसरे अफसरों से कहीं ज़्यादा बढ़िया था, पर उस अफसर की सबसे बड़ी कमी यह थी कि वह बहुत ईमानदार और सच्चा था. न वह बड़े अफसर के सामने दुम हिलाता था और न अपने साथी अफसरों के खिलाफ़ चुगली किया करता था. बस अपने काम से मतलब रखता था.

छोटे अफसर के पास बड़े अफसर की डाँट सुनने के अलावा और कोई चारा नहीं था. मीटिंग खत्म हुई, तो वह अपने साथियों से नज़रें चुराते हुए जल्दी से अपने कमरे की ओर चल पड़ा.

छोटा अफसर अपने कमरे के पास पहुँचा ही था कि सामने से उसे रमेश आता दीख गया. रमेश उसी दफ़्तर में क्लर्क था. रमेश के साथ कोई और भी था.

छोटे अफसर को देखते ही रमेश ने बड़ी नम्रता से उसे अभिभावदन किया और फिर कहने लगा, ‘‘सर, आपने मेरा जो कई सालों से अटका हुआ तनख़्वाह बढ़ने वाला केस क्लीयर किया था, उसका एरियर मुझे मिल गया है. पूरे अस्सी हज़ार मिले हैं. आपका बहुत-बहुत शुक्रिया, सर.’’

‘‘अरे, इसमें शुक्रिया की क्या बात है. तुम्हारा जो हक बनता था, तुम्हें मिलना ही चाहिए वह.’’ छोटे अफसर ने मुलायम-सी आवाज़ में कहा और फिर अपने कमरे की ओर बढ़ चला.

चलते-चलते छोटे अफसर ने सुना. रमेश अपने साथी से कह रहा था, ‘‘ये सर बहुत ईमानदार हैं. इन जैसा ईमानदार मैंने कोई देखा नहीं अब तक.’’

छोटे अफसर के मन पर बड़े अफसर की लताड़ के कारण छाया सारा कोहरा एकदम से छँट गया.

-०-०-०-०-०-

इमोशनल फूल

दफ़्तर में बैठा काम कर रहा था कि मेरा मोबाइल फोन बजने लगा. देखा, तो मेरे अधीनस्थ का नाम स्क्रीन पर चमक रहा था. मुझे थोड़ी-सी हैरानगी हुई क्योंकि यह अधीनस्थ अभी पाँचेक मिनट पहले तक तो मेरे कमरे में मेरे सामने ही बैठा हुआ था और बीवी की बीमारी के कारण दो हफ़्ते की छुट्टी के लिए इसरार कर रहा था. उसकी छुट्टी मैंने मंज़ूर भी कर दी थी.

सशंकित-सा मैंने जैसे ही फोन उठाया, उधर से मेरे अधीनस्थ की किसी से बात करने की आवाज़ सुनाई दी. कोई अधीनस्थ से पूछ रहा था, ‘‘तो यार करवा ही ली तुमने दो हफ़्ते की छुट्टी मंज़ूर! इतनी आसानी से कैसे दे दी इतनी लम्बी छुट्टी तेरे साहब ने?’’

तभी अधीनस्थ की आवाज़ सुनाई दी, ‘‘अरे, कैसे नहीं मिलती छुट्टी! अपनी बीवी की खराब तबीयत का रोना रोया, साथ में चेहरे पर दुःखभरे भाव लाने की एक्टिंग की. बस हो गई छुट्टी मंज़ूर!’’

‘‘अब तो दो हफ़्ते मज़े करोगे! घर में ही रहोगे या कहीं घूमने-फिरने जाने का इरादा है?’’

‘‘घूमेंगे-फिरेंगे-ऐश करेंगे और क्या!’’ कहकर अधीनस्थ हँसा. उसके बाद फिर कहने लगा, ‘‘हाँ, बीच-बीच में साहब को फोन करके यह भी बताता रहूँगा कि बीवी की तबीयत और बिगड़ रही है. इस तरह और एक-दो हफ़्ते की छुट्टी का जुगाड़ बैठ जाएगा. वो चुगद तो स्साला इमोशनल फूल है. ज़रा सा इमोशन दिखाओ, झट पिघल जाता है मोम की तरह.’’

फिर अधीनस्थ और उसके साथी की हँसी का सम्मिलित स्वर सुनाई देने लगा. गलती से मुझे लग गए फोन को काट देने के अलावा मेरे पास और कोई चारा नहीं था.

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फ़र्क-दर-फ़र्क

‘‘क्या हर दूसरे दिन छुट्टी की एप्लीकेशन लेकर आ जाते हो!’’ बड़े अफसर ने छोटे अफसर की एप्लीकेशन देखते ही कहा.

‘‘सर, वो वाइफ बहुत बीमार है. डॉक्टर ने कहा है कि उसकी देखभाल के लिए उसके साथ कोई रहे. और कोई तो है नहीं घर में. दोनों बेटियाँ अपने-अपने ससुराल में हैं.’’ छोटे अफसर ने खुलासा किया.

‘‘कब से चाहिए छुट्टी?’’ बड़े अफसर की भृकुटी अब भी तनी हुई थी.

‘‘सर, आज तो पड़ोसवाले मेरी वाइफ की देखभाल कर रहे हैं. कल से चाहिए छुट्टी चार दिनों के लिए. फिर मेरी बड़ी बेटी आ जाएगी कुछ दिनों के लिए हमारे यहाँ.’’ छोटे अफसर ने जवाब दिया.

‘‘चार दिन! यहाँ का काम कैसे चलेगा फिर? तुम्हें पता नहीं क्या-क्या ज़रूरी काम पेंडिंग पड़े हैं.’’ बड़ा अफसर फिर गुर्राया.

‘‘सर, मैं सारा ज़रूरी काम आज ही निपटा दूँगा. लंच तो लाया नहीं आज. इसलिए लंच टाइम में भी काम करूँगा.’’ छोटे अफसर ने स्थिति सँभालने की कोशिश की.

‘‘वो तो ठीक है, पर पूरनचंद ने अभी कुछ देर पहले फोन करके बताया था कि उसकी साली आ रही है कुछ दिनों के लिए उसके यहाँ. उसे इधर-उधर घुमाना-फिराना है. शायद उसे घुमाने के लिए कुल्लू-मनाली भी जाना पड़े. अब तुम दोनों में से कोई भी ऑफिस में न हो तो कैसे चलेगा? मैं खुद करूँगा क्या सारा काम?’’ कहते हुए बड़े अफसर ने उसकी एप्लीकेशन का कागज़ एक ओर सरका दिया.

‘‘सर, लेकिन...’’ छोटे अफसर ने कुछ कहना चाहा, पर बड़ा अफसर तब तक कोई और कागज़ पढ़ने लगा था.

बड़े अफसर के कमरे से बाहर निकलते हुए छोटे अफसर के दिमाग़ में पूरनचंद क्लर्क की शक्ल घूम गई. ‘काश मैं भी पूरनचंद की तरह बड़े साहब को उल्टे-सीधे फायदे पहुँचाने वाला और उनके आगे-पीछे दुम हिलाने वाला होता.’ सोचते हुए छोटा अफसर अपने कमरे की ओर बढ़ चला.

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मौजूदगी

‘‘क्यों जी, यह फटी हुई कमीज़ आपने इतने सालों से क्यों संभालकर रखी हुई है. इसे आप न किसी बर्तनवाली को देने देते हो, न किसी और को.’’ विभा, मेरी पत्नी, पूछ रही थी मुझसे.

मैं चुप रहा. अब क्या बताऊँ विभा को. वह तो शायद यह भूल चुकी है कि इस कमीज़ के कपड़े को बहुत साल पहले मैंने अपने पिताजी को दिया था, पर इससे पहले कि वे इसे सिलवा पाते, अचानक उनकी मृत्यु हो गई थी. उनकी मृत्यु के बाद माँ ने कमीज़ का वह कपड़ा यह कहते हुए मुझे दे दिया कि इसे सिलवाकर मैं पहन लूँ.

इस तरह उस कमीज़ को कई सालों तक मैंने पहना था. फिर यह कमीज़ घिसकर फट गई थी और पहनने लायक नहीं रही थी. अब कई सालों से मैंने इसे संभालकर रखा हुआ था. इस कमीज़ को देखकर मुझे ऐसा लगता था मानो पिताजी मेरे आसपास ही हैं. मैं विभा को यह सब कैसे समझाता.

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