Aadhi duniya ka pura sach - 22 in Hindi Moral Stories by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | आधी दुनिया का पूरा सच - 22

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आधी दुनिया का पूरा सच - 22

आधी दुनिया का पूरा सच

(उपन्यास)

22.

मन्दिर के प्रांगण से निकल कर छिपती-छिपाती चलते-चलते पर्याप्त दूरी तय करने के पश्चात् रानी सड़क के किनारे एक टीन शेड के नीचे बैठ गयी । धूप तेज थी और वह चलते-चलते थक चुकी थी, इसलिए कुछ देर उसी टीन शेड के नीचे विश्राम करना चाहती थी । लेकिन, कुछ ही क्षणोंपरांत उसने देखा, एक पुलिस जीप उसी दिशा में बढ़ी आ रही है, जहाँ वह बैठी थी । जीप को देखते ही रानी भयभीत हो उठी और शरीर में बची अल्प शक्ति के सहारे पुलिस जीप की विपरीत दिशा में चलने लगी ।

रानी ने चलना आरम्भ ही किया था, तभी एक बस उसके निकट आकर रुकी। कंडक्टर आनन्द विहार-गाजियाबाद आनन्द विहार-गाजियाबाद कहते हुए सवारियों को बुला रहा था। बस रुकते ही रानी को आभास हुआ कि वह डीटीसी बस अपने निर्धारित बस स्टॉप पर रुकी है। वह बिना विलंब किये बस में चढ़ गयी । जिस क्षण वह बस में चढ़ रही थी, उसी क्षण पुलिस की जीप वहाँ से गुजरती हुई आगे बढ़ गयी । पुलिस की जीप गुज़रते ही रानी को बड़ी राहत मिली ।

बस यात्रियों से इतनी खचाखच भरी थी कि खड़े होने के लिए भी स्थान नहीं था । रानी ने आगे घुसकर अपने खड़े होने के लिए तो जगह बना ली, किन्तु बैठने के लिए सीट मिलना कठिन था । अतः वह बस में खड़ी होकर कोई एक सीट खाली होने की प्रतीक्षा करने लगी । संयोगवश अगले स्टॉप पर उतरने के लिए उसके निकट वाली सीट से एक महिला उठ खड़ी हुई, तो झट से रानी सीट पर झपट पड़ी और थकान की मारी अशक्त-सी आँखें बंद करके बैठ गयी। बैठते ही रानी के कानों में आँखों से बहती बहती अश्रूधारा के साथ हृदय की मूक वाणी गूंजने लगी -

"बेचारे काका ! मुझे सहारा देते-देते उन्हें अपने प्राण गँवाने पड़े ! भीड़ का पत्थर लगने के बाद भी उन्हें अपने माथे से बह रहे खून से अधिक मेरी चिन्ता थी । अपनी आखिरी साँस में भी मेरी चिन्ता करते-करते ...! अच्छा होता, मैं उस दिन काका के मन्दिर में नहीं गयी होती !" अपने सद्य अतीत को स्मरण करके रानी की सिसकियाँ उभरने लगी, लेकिन वह नहीं चाहती थी कि उसकी विषम परिस्थिति के विषय में किसी को पता चले, इसलिए अपनी हथेली से अपना म

हर एक स्टॉप पर बस रुकने से कुछ क्षण पहले ही कंडेक्टर ऊँचे स्वर में बस-स्टॉप के नाम से यात्रियों को अवगत करा रहा था । रानी को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि कौन-सा स्टॉप आ गया है ? वह तो लम्बी यात्रा करके कहीं दूर निकल जाना चाहती थी, इसलिए आँखें बंद करके बैठी रही। उसने अपनी आँखें तब खोली, जब कंडक्टर ने उसको पुकारकर कहा -

"ऐ लड़की ! उतरना नहीं है क्या ?"

"हँ-अँ ! यह बस और आगे नहीं जाएगी क्या ?" रेणु ने झटके के साथ आँखें खोलकर कंडक्टर से पूछा।

"नहीं ! यह इस बस का लास्ट स्टॉप है !"

"भैया, कौन-सी जगह है यह ?" रानी ने पूछा ।

"गाजियाबाद !" कंडक्टर के मुख से गाजियाबाद सुनकर रानी को संतोष हुआ। वह मन-ही-मन सोचने लगी -

"सुबह काका भी तो गाजियाबाद के किसी मन्दिर की ही बात तो कर रहे थे ! काका मुझे लेकर गाजियाबाद में रहना चाहते थे, तो शायद यह जगह अच्छी ही होगी, जहाँ मैं सुरक्षित रह सकूँगी !"

सोचते-सोचते रानी बस से नीचे उतर गयी । चूँकि उसका कोई निश्चित गंतव्य स्थान नहीं था, इसलिए बस से उतरने के पश्चात् भी वह कुछ मिनट तक वहीं खड़ी हुई किंकर्तव्यविमूढ़-सी इधर-उधर ताकती रही । पर्याप्त समय तक वहाँ खड़े-खड़े उसको जब कोई मार्ग नहीं सूझा, तो अनिर्णय की दशा में ही वह अनजान दिशा में भटकने के लिए सड़क पर चल पड़ी।

शाम हो चुकी थी । चलते-चलते रानी के कानों में मन्दिर के घंटे बजने की ध्वनि सुनाई पड़ी । उस समय उसके मनःमस्तिष्क में सकारात्मक भाव-विचार आ रहे थे -

"यह वही मन्दिर हो सकता है, जिसमें काका मुझे लेकर आकर रहने वाले थे !"

यह विचार आते ही रानी ध्वनि की दिशा में चल पड़ी । वह ध्वनि के निकट पहुँची, तो देखा मन्दिर के बाहर प्रसाद लेने वाले भक्तों की भीड़ लगी थी । सभी भक्त पंक्तिबद्ध बैठे थे ! मन्दिर के अन्दर संध्या-भजन चल रहा था। रानी को तेज भूख लगी थी, अतः वह भी पंक्ति में बैठकर प्रसाद की प्रतीक्षा करने लगी । संध्या-पूजन संपन्न होने के कुछ क्षणोंपरान्त ही प्रसाद वितरण का कार्य आरंभ हो गया था, इसलिए रानी को प्रसाद के लिए अधिक समय तक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी । एक बार जितना प्रसाद प्राप्त हुआ था, उसमें रानी की क्षुधा कुछ अंश तक ही शान्त हो पायी थी, अतः रानी ने कई बार प्रसाद ग्रहण किया । पूर्ण तृप्ति का बिंदु अभी दूर था, इसलिए वह तब तक वहीं बैठी रही, जब तक वहाँ से भीड़ छँट नहीं गयी ।

भीड़ छँटने के पश्चात् रानी मन्दिर परिसर में बने चबूतरे पर जाकर विश्राम की स्थिति में बैठ गयी । दिन-भर की यात्रा और चिन्ता से थक चुकी रानी चबूतरे पर बैठे-बैठे निद्रा की गोद में लुढ़ककर अवचेतन संसार से साक्षात्कार करने लगी । उसकी निद्रा तब भंग हुई, जब मन्दिर के पुजारी ने आकर उसको चेताया -

"ऐ लड़की ! कौन है तू ? यहाँ से बाहर निकल ! यह सोने का स्थान नहीं है !"

रानी की नींद टूटी, तो आँखें मलते हुए पुजारी का तात्पर्य समझने का प्रयास करने लगी । पुजारी जी ने पुनः प्रश्न किया -

"क्या नाम है तेरा ? कहाँ से आयी है ?"

'रानी !"

"रानी ! कहाँ की रानी है री तू ? न तन पर कपड़े हैं, न सिर पर छत, फिर भी रानी ! ह-ह-ह-ह-ह !" पुजारी ने रानी को उपेक्षा और तिरस्कार की दृष्टि से देखकर हँसते हूए कहा और होठो-ही-होंठों में बड़बड़ाया - "आँख का अन्धा, नाम नैनसुख' !"

रानी पुजारी के उपेक्षित व्यवहार के पश्चात भी उनींदी अवस्था में वहाँ पर यथास्थिति बैठी रही । किसी प्रकार की अपेक्षित प्रतिक्रिया न पाकर पुजारी ने पुनः कहा -

"यह जगह तेरे सोने के लिए नहीं है जहाँ तू बिस्तर जमाकर सो रही है ? चल बाहर निकल यहाँ से !"

रानी को मन्दिर के पुजारी से ऐसे रूखे-कटु व्यवहार की आशा नहीं थी । पिछले कुछ दिनों में मन्दिर के पुजारियों की जो छवि रानी के हृदय में पुजारी काका के उदात्त आचार-व्यवहार से बनी थी, इस पुजारी ने उस उसको ध्वस्त कर दिया था । अतः किसी प्रकार की कोई प्रतिक्रिया दिये बिना ही रानी चुपचाप मन्दिर परिसर से बाहर निकल गयी । उसके बाहर निकलते ही पुजारी ने मन्दिर परिसर का मुख्य द्वार बंद कर दिया और रानी वहीं पर मुख्य द्वार के निकट दीवार से कमर टिकाकर पुनः सो गयी ।

प्रात:काल नींद टूटते ही पुजारी के डर से रानी शीघ्रतापूर्वक वहाँ से प्रस्थान करके पुनः सड़क पर लक्ष्यविहीन भटकने लगी । भटकते-भटकते उसकी दृष्टि सड़क किनारे आकाश के नीचे चाय दुकान सजाकर अंगीठी सुलगाती हुई एक स्त्री पर पड़ी । पेट की भूख से व्याकुल रानी डरती-सहमती धीमें कदमों से उस स्त्री के निकट जाकर खड़ी हो गयी । कुछ क्षणों तक खड़ी रहने के पश्चात् रानी को उस स्त्री में नारी-सुलभ मातृत्व की उपस्थिति का सूक्ष्म अहसास-सा हुआ, तौ वह अंगीठी सुलगाने में स्त्री की सहायता करने लगी । अंगीठी सुलगते ही स्त्री ने अंगीठी पर चाय बनाने के लिए पात्र रखकर रानी से पूछा -

"क्या चाहिए ?"

रानी मौन खड़ी रही । स्त्री ने पुनः पूछा -

"यहीं आस-पास ही रहती है ?" रानी ने कोई उत्तर नहीं दिया ।

"माँ-बाप के साथ नहीं रहती है क्या ?"

"नहीं ! बहुत दिन पहले उनसे दूर ... !" रानी ने मात्र इतना ही कहा था, तभी स्त्री ने पुनः पूछा -

‌ "कैसे ? घर से भागी थी ?" स्त्री ने पूछा ।

स्त्री द्वारा सपाट शैली में पूछे गए प्रश्न का उत्तर देने में रानी क्षण-भर को कुछ असहज हुई, किन्तु अगले ही क्षण उसने स्त्री के समक्ष अपने साथ घटित उस घटना का यथातथ्य वर्णन कर दिया कि कैसे उसके पड़ोसी ने झूठी सूचना को माध्यम बनाकर उसका अपहरण किया था और कैसे वह अपनी सूझबूझ से उसके चुंगल से छूटी !

रानी की आपबीती सुनते-सुनते अब तक स्त्री चाय बना चुकी थी। चाय का पात्र अंगीठी से उतारकर स्त्री ने आलू उबालने के लिए एक बड़ा भिगोना बड़ी अंगीठी पर रख दिया और एक कप में रानी को चाय देकर दूसरे कप में स्वयं चाय की चुस्की लेते हुए बोली -

"कहाँ रहते हैं तेरे माँ-बाप ?" रानी ने स्त्री के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया।

"अब अपने घर जा रही है ? अपने माँ-बाप के पास ?" स्त्री ने पुनः पूछा।

"नहीं ! मैं वहाँ गयी थी, जहाँ हम लोग किराए के घर में रहते थे ! पर मम्मी-पापा नहीं मिले ! अब वे वहाँ नहीं रहते हैं ! रानी ने कहा।

"कहाँ गये ?"

"पता नहीं !"

"पड़ोस में किसी से पूछा नहीं !"

"पूछा था, किसी से कुछ पता नहीं चला !"

"अब क्या करेगी ? कहाँ जाएगी ?" स्त्री ने रानी से पुन: प्रश्न किया । रानी चुप रही। उसके पास न तो कोई स्पष्ट लक्ष्य था और न ही कोई निश्चित मार्ग।

स्त्री ने उबले हुए आलू उसके सामने रखते हुए कहा -

"इन्हें छीलेगी ?" रानी चुपचाप स्त्री की आज्ञा का पालन करके आलू छीलने लगी।

क्रमश..