Aadhi duniya ka pura sach - 7 in Hindi Moral Stories by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | आधी दुनिया का पूरा सच - 7

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आधी दुनिया का पूरा सच - 7

आधी दुनिया का पूरा सच

(उपन्यास)

7.

लगभग आधा घंटा की यात्रा के बाद गाड़ी एक झुग्गी नुमा घर के सामने रुकी । झुग्गी के बाहर अंडे के छिलकों का ढेर चूसी हुई हड्डियों के साथ पढ़ा था। रानी पर अभी अपनी मजबूत पकड़ रखते हुए स्त्री गाड़ी से नीचे उतर पड़ी। रानी भी अपनी इच्छा के विरुद्ध महिला के साथ गाड़ी से उतरी और महिला की मजबूत पकड़ में ही झुग्गीनुमा घर में प्रवेश किया।

झुग्गी के अंदर विचित्र-सी दुर्गंध भरी हुई थी । रानी ने दुर्गंध से बचाव करने हेतु अपनी नाक बंद करते हुए महिला से कहा-

"मुझे अपने घर जाना है ! मुझे छोड़ दीजिए ! मैं आपके आगे हाथ जोड़ती हूँ !"

रानी की प्रार्थना पर प्रतिक्रिया देने के लिए महिला ने उसकी नरम बाँह पर अपना क्रूर पंजा गड़ाते हुए कहा -

"अब इस झौंपड़ी को ही अपना घर समझना ! मेरी मर्जी के बिना तू यहाँ से कहीं नहीं जा सकेगी ! समझी तू ! यहाँ तुझे खाने-पीने को दाल-चावल सब्जी-रोटी पानी-चाय, पहनने को कपड़े और रहने को सिर पर छत सब कुछ मिलेगा !"

कुछ क्षण मौन रहने के पश्चात् महिला ने पुनः कहना आरम्भ किया -

तुझे और क्या चाहिए ? बोल ! जब और कुछ के लायक हो जाएगी, तो वह भी मिलेगा !" महिला ने चेहरे पर विकृत-घिनोनी-सी मुस्कराहट लाते हुए रानी की बाँह पर अपने पंजे की पकड़ ढीली करके कहा। उसकी उसकी मुस्कुराहट और शब्दों से आभास हो रहा था कि उनमें बहुत कोई भयानक कूट अर्थ छिपा है। अपनी बाँह पर से स्त्री की पकड़ ढीली होते ही जब रानी को राहत मिली, तो उसने दयनीय मुद्रा में निवेदन किया-

"मैं कहीं नहीं जा रही हूँ, मेरी बाँह छोड़ दीजिए ! बहुत दर्द हो रहा है !"

स्त्री ने तुरंत रानी की बाँह छोड़ दी और हँसते हुए कहा -

"ले, तू भी क्या याद रखेगी ! माई को अपनी बेटियों को फालतू में दर्द देने की आदत नहीं है !"

रानी स्त्री की पकड़ से मुक्त हुई, तो अपनी बाँह पर पड़े स्त्री की उंगलियों के रक्तवर्णित चिह्नों को देखकर उसकी आँखों से आँसू की धार बह निकली और मुँह से अनायास फूट पड़ा -

"माँ ऐसी नहीं होती है ! आप किसी की भी माँ नहीं हो सकती !"

रानी के शब्द-व्यवहार पर स्त्री की कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई । शायद उसने रानी को सुना नहीं था, क्योंकि उस समय उसका ध्यान कहीं किसी दूसरे बिंदु पर अटका था और वह अपने किसी परिचित को पुकार रही थी -

"अरे जग्गी ! ओ जग्गी ! यहाँ सुन !"

कुछ ही क्षणों में एक अधेड़ युवक स्त्री के समक्ष आकर खड़ा हो गया। स्त्री ने उसको निर्देश देते हुए कहा -

"जा, होटल से खाना लेकर आ। लजीज़ मटन-बिरयानी भी लाना ! आज मेरी बेटी मुनिया आयी है !"

स्त्री का आदेश सुनकर युवक ने एक बार अंदर झाँककर देखा और फिर स्त्री से पैसे लेकर उसका आदेश पालन करने के लिए चला गया।

झुग्गी मुख्यतः दो भागों में बटीं थी - बाहर का भाग खुला हुआ था और भीतरी भाग पुन: दो भागों में बँटा हुआ था। झुग्गी के सबसे भीतरी भाग में प्रायः दिन में प्रवेश वर्जित रहता था, इसलिए उसमें ताला पड़ा हुआ था । जब उस भीतरी भाग का ताला खुलता था, तब भी उसमें सबको प्रवेश की अनुमति नहीं होती थी ।

झुग्गी के मध्य भाग में रानी के आने से पहले ही दो अन्य लड़कियाँ भी बैठी हुई थी । उनमें से एक वयस्क दिखायी पड़ रही थी, जिसके माथे पर सलवटें पड़ी हुई थी । दूसरी किशोरवयः थी और निरन्तर जिज्ञासा भरी दृष्टि से रानी को देख रही थी । रानी चुपचाप वहाँ पड़ी चारपाई पर बैठी थी । कुछ समय पश्चात् भोजन लेकर अध्ययन युवक आश । स्त्री ने झुग्गी के मध्य भाग में उपस्थित वयस्क लड़की को भोजन का पैकेट देते हुए कहा -

"ले री ! तू भी खा ले और इन दोनों - चुनिया और मुनिया को भी पेट-भर खिला दे ! मुनिया की अच्छे से तसल्ली कर देना ! इसको पता चल जाए कि माई अपनी बेटियों कितना ध्यान रखती है !"

खाना वास्तव में स्वादिष्ट था । लेकिन, अपनी मुक्ति को लेकर उस स्त्री के प्रति आशंकित और शीघ्रातिशीघ्र अपने मम्मी-पापा के पास पहुँचने के लिए बेचैन रानी को उस भोजन में कोई रूचि नहीं थी । फिर भी, उसने चुपचाप खाना खा लिया । जब रानी खाना खा चुकी, तब स्त्री ने कहा -

"अच्छा लगा ? रोज से ऐसे ही मिलेगा ? बस, इस माई पर भरोसा रखना और कभी माई का भरोसा मत तोड़ना ! अब जरा एक बार मुस्कुराके बोल दे कि माई मुझे तुझ पर बहुत भरोसा है !" रानी ने वैसा ही बोल दिया, जैसा स्त्री चाहती थी।

"अब मुझे रोज माई कहके बुलाना ! समझ गई ?"

रानी ने सहमति में अपना सिर हिला दिया ।

"मुंड्डी हिला रही है, मुँह में जुबान नहीं है क्या ?" कहकर स्त्री ठहाका मारकर हँस पड़ी ।

दो दिन तक रानी की झुग्गी में उपस्थित अपने अतिरिक्त अन्य दोनों लड़कियों - सुंदरी-मुंदरी में से किसी के साथ कोई बात नहीं हुई। माई ही उसको दिनचर्या से संबंधित संक्षिप्त आदेश-निर्देश देती थी। तीसरे दिन रानी ने अवसर पाकर किशोरवयः लड़की सुंदरी से पूछा -

"तुम्हारा नाम सुंदरी है ?" रानी के प्रश्न पूछने मात्र से उसके चेहरे पर आशाजनित प्रसन्नता की चमक आ गयी -

"नहीं, साँवली है !" किशोरी ने आत्मीय-भाव से उत्तर दिया ।

" वह स्त्री तुम्हारी माँ है ?"

"नहीं !"

""तो फिर कौन है ?"

"मैं नहीं जानती ! मुझे यह औरत ... !" साँवली अपनी बात पूरी कर पाती, इससे पहले ही स्त्री ने गरजते हुए अंदर प्रवेश किया -

"क्यों री ! तुझे जुबान खोलने के लिए मना किया था ना मैंने ! ऐसे नहीं मानेगी तू ?"

"मैं-मैं-मैं-मैंने कुछ नहीं बोली है ! यह मेरा नाम पूछ रही थी, बस, मैं अपना नाम बता रही थी !"

"तूने नाम बताने के लैयाँ हमारी इजाज़त की जरूरत भी नहीं मानी री सुंदरिया ?"

"अ-अ-अब नहीं बताऊँगी !" साँवली ने रोते हुए कहा । उसकी आँखों में भय के काले बादल गरज रहे थे और झड़ी लगाकर निरन्तर आँसू बरस रहे थे । उसी क्षण वह माई के समक्ष दोनों हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी और बार-बार गिड़गिड़ाकर बस यही कह रही थी-

"मैं अब नहीं बोलूँगी ! कुछ नहीं बोलूँगी !"

साँवली के व्यवहार को देखकर रानी ने अनुमान लगा लिया कि वह स्त्री क्रूरता की पर्याय हो सकती है और स्वयं रानी की भाँति ही साँवली को भी उसकी इच्छा के विरुद्ध वहाँ पर रखा गया है।

रानी की जिज्ञासा अब दिन-प्रतिदिन यह जानने के लिए बढ़ रही थी कि साँवली इस स्त्री के जाल में कैसे फँसी? उसके माता-पिता कहाँ रहते हैं ? उसकी आँखें साँवली के साथ मिलकर वहाँ से निकलने का सपना भी देखने लगी थी । लेकिन, यह तभी संभव था, जब साँवली के साथ बातचीत हो जाए ।

यद्यपि रानी समझ चुकी थी कि साँवली के साथ बातें हो पाना कठिन है, फिर भी उससे बात करने के लिए रानी की तड़प पल-पल बढ़ने लगी । केवल वहाँ से मुक्त होने के लिए नहीं, बल्कि अपनी आत्मा की तृप्ति के लिए भी वह उससे बहुत-सी बातें करना चाहती थी ; उसके विषय में बहुत-कुछ जानना चाहती थी, क्योंकि दो-तीन दिन में ही साँवली के साथ वह अनकहा आत्मीय जुड़ाव अनुभव करने लगी थी । वे दोनों एक-दूसरे की आँखों में झाँक कर एक-दूसरे की पीड़ा समझने लगी थी और दोनों ही एक-दूसरे को शब्दहीन सांत्वना भी देती थी । ऐसा प्रतीत होता था कि दोनों के हृदय के तार परस्पर जुड़े हैं, जिससे उन दोनों के बीच भावों का सम्यक आदान-प्रदान हो रहा था और उन दोनों को बातचीत करने के लिए शब्दों की अब कोई आवश्यकता शेष नहीं रह गई थी ।

क्रमश..