रक्तरेखा

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पत्तों की सरसराहट थम चुकी थी। आसमान फट पड़ा था — और मानो देवताओं के क्रोध से बरस रहा था पानी। हर पेड़, हर झाड़ी, हर तिनका काँप रहा था। हवा में मिट्टी, कीचड़ और काई की गंध घुल चुकी थी। कहीं दूर बिजली की चमक टूटती और धरती को सफ़ेद कर देती। उस रात जंगल सिर्फ़ जंगल नहीं था, वह एक अखाड़ा था — जीवन और मृत्यु का। वहीं, उस अंधेरे और तूफ़ानी संसार के बीच एक औरत भाग रही थी।

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रक्तरेखा - 1

Chapter 1 पत्तों की सरसराहट थम चुकी थी।आसमान फट पड़ा था — और मानो देवताओं के क्रोध से बरस रहा पानी।हर पेड़, हर झाड़ी, हर तिनका काँप रहा था। हवा में मिट्टी, कीचड़ और काई की गंध घुल चुकी थी। कहीं दूर बिजली की चमक टूटती और धरती को सफ़ेद कर देती।उस रात जंगल सिर्फ़ जंगल नहीं था, वह एक अखाड़ा था — जीवन और मृत्यु का।वहीं, उस अंधेरे और तूफ़ानी संसार के बीच एक औरत भाग रही थी।उसकी साँसें टूटी-टूटी थीं, जैसे ...Read More

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रक्तरेखा - 2

धूम्रखंड की रातें कभी साधारण नहीं होतीं। वे इतनी लंबी लगतीं मानो समय का कोई छोर ही न हो,मानो अदृश्य हाथ घड़ी की सुइयों को रोककर आसमान में गहरा धुआँ भर देता हो।हर रात भूख एक नये रूप में लौट आती थी —कभी पेट की खाली गड़गड़ाहट बनकर,कभी आँखों में उतरते आँसुओं की थकान बनकर,और कभी उन बेमकसद सवालों की तरह,जिनका कोई उत्तर धरती पर नहीं होता।जंगल के सिरे पर एक पुरानी झोंपड़ी खड़ी थी। न तो वह सचमुच घर थी,न ही आश्रय। वह केवल एक कोना थी जीवन का,जहाँ इंसान और प्रकृति नेकिसी अस्थायी संधि पर हस्ताक्षर कर ...Read More

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रक्तरेखा - 3

धूप उग आई थी, पर गाँव में उजाला नहीं था।चंद्रवा — धूम्रखंड के दक्षिणी किनारे पर बसा एक भूला गाँव,जहाँ मिट्टी की झोपड़ियाँ हवा से नहीं, बल्कि थकी हुई इच्छाओं और बिखरी हुई उम्मीदों से बनी थीं। सुबह की हवा में धुएँ का रंग था — यह धुआँ चूल्हों का नहीं, उन सपनों का था जो हर दिन पकने से पहले ही राख हो जाते थे।गाँव का कुआँ सूखा था, पर औरतों की आँखें कभी न सूखतीं। बच्चे नंगे पाँव खेतों में दौड़ते, लेकिन उनकी दौड़ में खेल नहीं था — भूख का पीछा था। यह स्थान ऐसा था ...Read More

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रक्तरेखा - 4

इन दिनों चंद्रवा गांव में कुछ अलग ही माहौल चल रहा था मानो सिर्फ आसमान में साफ़ नीला रंग आना नहीं था, बल्कि एक लंबी थकान का उतर जाना था। लगातार बारिश ने हर छप्पर को, हर गली को, हर दिल को नमी से भर दिया था। हवा में अब भी मिट्टी की भीनी-भीनी महक तैर रही थी, लेकिन उसमें अब घुटन नहीं थी, बल्कि खुलापन था — जैसे कोई पुराना बोझ हल्का हो गया हो।धान के खेतों में पानी अब घुटनों तक रह गया था, और बालियां झुककर सूरज की गरमी का स्वागत कर रही थीं। गांव के ...Read More

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रक्तरेखा - 5

रात उतर आई थी।चंद्रवा गाँव की सुबह उस दिन कुछ अलग थी। आम दिनों की तरह न कोई खेतों हल चला रहा था, न ही महिलाएँ चक्की पर बैठकर अनाज पीस रही थीं।गाँव के चौक से लेकर गलियों तक, हर जगह एक अजीब-सा उत्साह तैर रहा था।बच्चों की आँखों में चमक थी, जैसे आज से ही मेले का सपना सच हो गया हो। पूरे चंद्रवा गाँव में जैसे जीवन लौट आया हो।गांव के हर आँगन से जलती हुई चिराइयों की लौ हवा में कांप रही थी। कहीं ढोलक बज रही थी, कहीं गीत गूंज रहे थे पर गांव का ...Read More

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रक्तरेखा - 6

साँझ उतर रही थी। धूप का रंग हल्का सुनहरा हो चुका था, जैसे किसी ने आकाश पर पुराने पीतल थाली पलट दी हो। खेतों में खड़े धान के पौधे हवा से लहराते थे और उनकी हर सरसराहट में मानो कोई भूली-बिसरी लोककथा दुहराई जाती थी। नदी का पानी अब गहरा नीला हो गया था, और किनारे बैठे बच्चे छोटी-छोटी नावें बनाकर बहा रहे थे। उनके हँसने की आवाज़ें पूरे गाँव की निस्तब्धता को तोड़ती थीं, जैसे जीवन का सबसे सरल संगीत।गाँव वैसे तो सदा ही साधारण था — मिट्टी के घर, कच्ची पगडंडियाँ, और दिन-रात परिश्रम में डूबे लोग। ...Read More

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रक्तरेखा - 7

गाँव की चौपाल पर उस सुबह एक अजीब-सी खामोशी थी। पिछली बैठक की हलचल और बहस अब भी हवा तैर रही थी। लोग जानते थे कि आज निर्णय होना है। कोई हँसी-मज़ाक नहीं, कोई उत्साह नहीं—सिर्फ़ गंभीर चेहरे और गहरी निगाहें।बच्चे भी आज दूर खड़े थे, खेलते नहीं, बस देख रहे थे कि बड़ों के चेहरों पर कौन-सा रंग चढ़ता है। महिलाएँ घरों से झाँक-झाँक कर चौपाल की ओर देख रही थीं। हर घर की साँसें आज पंचायत की चौपाल से बँधी थीं।मुखिया आज और भी सधे हुए अंदाज़ में आया। उसका चेहरा कठोर था, जैसे उसने पहले ही ...Read More

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रक्तरेखा - 8

मेले से एक दिन पहले, पूरा दिन गांव व्यस्त रहा। औरतें पकवान बनाती रहीं।बच्चे उत्साह से उछलते-कूदते रहे। बुजुर्ग करते रहे। गाँव की औरतें गीत गा रही थीं, पुरुष ढोलक की थाप पर ताली दे रहे थे और बीच में धर्म खड़ा था — एक साधारण युवक, पर जैसे सबके दिलों की डोर उसी से बँधी हो।वह अपने मन में सोच रहा था —“मेला सिर्फ़ मस्ती नहीं है। ये हमारे दुखों को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने का वक़्त है। ये सब हँसी-खुशी ही हमें ज़िंदा रखती है। यही सोचा कर वह पंचायत की घटना की बात भूलकर पहले की ...Read More

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रक्तरेखा - 9

यह वाक्य सुबह-सुबह ही चंद्रवा गाँव की गलियों में गूँजने लगा था।बच्चों की आँखें नींद से आधी खुली थीं, होठों पर मुस्कान थी। औरतें स्नान करके जल्दी-जल्दी घर का काम निपटा रही थीं ताकि समय रहते चौक की ओर निकल सकें। बूढ़े लोग अपने धोती-कुर्ते सँवारकर बरामदे में बैठे थे और उनकी बातें भी बस एक ही ओर घूम रही थीं—मेला।गाँव की गलियों में हर कोई आज कुछ अलग लग रहा था। कच्चे घरों की दीवारें फिर से लिपी गई थीं, दरवाज़ों पर आम के पत्तों की तोरणियाँ बाँधी गई थीं। ढोल-नगाड़ों की थाप सुबह से ही गूँज रही ...Read More

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रक्तरेखा - 10

शाम ढल चुकी थी। मेले की रौनक अब धीरे-धीरे बुझ रही थी। ढोल-नगाड़ों की आवाज़ें थम गई थीं, पर में अब भी पकौड़ियों के तले हुए बेसन और गुड़ की मिठास की गंध तैर रही थी। बच्चे थककर अपनी माताओं की गोद में सो रहे थे, और बड़े-बुज़ुर्ग अपनी थैलियों में मिठाइयाँ सँभालते घरों की तरफ बढ़ चुके थे।गाँव का चौक अब खाली होने लगा था। बस कहीं-कहीं हँसी की बची-खुची गूँज और किसी थके हुए ढोल की हल्की थाप सुनाई देती थी।चौक से थोड़ी दूर तालाब किनारे आर्यन अपने छोटे भाई-बहनों और कुछ बच्चों संग मेले का बिखरा ...Read More

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रक्तरेखा - 11

धूप के पहले धागे ने जब खपरैल की छतों पर चुपके से अपनी उँगलियाँ रखीं, तो चंद्रवा गाँव हल्के-हल्के लगा। मेला को बीते कई दिन हो चुके थे पर मेला-रौनक की थकान अब भी आँगनों में पसरी थी—कहीं रंगीन काग़ज़ की फटी झालरें दीवारों से उलझी थीं, कहीं गुड़ और बेसन की मिली-जुली ख़ुशबू अभी तक हवा में बसी थी। गली के मोड़ पर रखा मिट्टी का दीपक बुझ तो चुका था, पर उसकी कालिख में रात की रोशनी की याद बाकी थी।औरतें, जिनके हाथों में ...Read More

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रक्तरेखा - 12

रात की पहली पहर। तारे जैसे जले हुए चावल हों—छोटे, सफ़ेद, नेक। हवा में धान के कटने की गंध। कहीं बैलों की घँटी। बबलू और धर्म पूरब वाली गली से निकले। बबलू के हाथ में टहनी, जिसे वह आड़ी-तिरछी रेखाओं में घुमा रहा था—जैसे कोई अजीब-सा आलाप हो। धर्म ने उसका बाजू पकड़ा—“शोर को शोर मत कर, शोर को चुप सुन। रात का कान पेड़ के ऊँचे भाग में लगा होता है।”“मतलब?” बबलू ने बालसुलभ चाव से पूछा।“मतलब यह कि अगर कोई परिंदा सोते-सोते हड़बड़ाता है, तो समझो हवा नहीं, आदमी गुज़रा है। अगर कुत्ते एक साथ नहीं, अलग-अलग ...Read More

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रक्तरेखा - 13

धूप ढल चुकी थी। खेतों की मेड़ों पर धुआँ तैर रहा था — कहीं धान की भूसी जल रही कहीं घरों की छतें। झोपड़ियों के दरवाज़े आधे टूटे थे, दीवारों पर कालिख की लंबी लकीरें थीं।गली के कोनों में बिखरे बर्तन पड़े थे — आधी पकी रोटियाँ, अधजली लकड़ियाँ, और छप्पर से लटकती राख, जैसे आसमान तक कोई सिसकी पहुँच गई हो।अभी भी हवा में एक धीमी-सी चमक बाँट रही थी, मानो धरती ने अपने आँसू पूरे शहर के ऊपर फैलाकर धुंधला बना लिया हो। उस गाँव के किनारे से गुजरती सड़क पर अब सोने-चाँदी की चमक नहीं थी।बार-बार ...Read More

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रक्तरेखा - 14

चंद्रवा की सुबह उस दिन कुछ ज़्यादा ही शांत थी।हवा में धान की हल्की गंध तैर रही थी, तालाब पानी पर सूरज की किरणें चमक रही थीं, और कमल के फूल अपनी पूरी आभा में खिले थे। औरतें घड़ों में पानी भरते हुए धीरे-धीरे हँस रही थीं—किसी की बात पर ठहाका, किसी की झेंपी मुस्कान। बच्चे किनारे पर रस्सी कूद रहे थे, और कभी-कभी हँसते-चिल्लाते हुए गिर पड़ते। जीवन, जैसा था, अपनी सहज धुन में चल रहा था।आर्यन तालाब की सीढ़ियों पर बैठा, पत्थर चुनकर पानी में उछाल रहा था। हर पत्थर के साथ फैलती लहरों में उसे कुछ ...Read More