कमरे में सिर्फ़ एक बल्ब जल रहा था — पीली, थकी हुई रोशनी में दीवारें चुपचाप साँस ले रही थीं। एक खामोशी जो सतह पर ठंडी लगती थी, पर भीतर आग जैसी सुलगती। आरव की आँखें छत पर टिकी थीं, लेकिन उसका दिमाग़ कहीं और भटक रहा था। दीवार पर टिक-टिक करती घड़ी की आवाज़ उसके दिल की धड़कनों से मेल खा रही थी। हर रात की तरह, आज भी वही नर्स आई थी। उसके हाथ में ट्रे थी — दवा, पानी, और वही बेमन मुस्कान। “सो जाइए, सर,” वो बोली। “कल फिर वही सेशन है।” आरव मुस्कराया नहीं। उसने दवा ली, लेकिन निगली नहीं। जैसे उसका दिमाग कह रहा हो — "आज नहीं… आज कुछ याद आएगा।" लाइट बंद होते ही कमरे में अँधेरा नहीं, बल्कि एक अजीब-सी ऊर्जा भर गई। आँखें खुद-ब-खुद बंद हो गईं। और तभी…
ज़हन की गिरफ़्त - भाग 1
भाग 1: नींद से पहले की रात कमरे में सिर्फ़ एक बल्ब जल रहा था — पीली, थकी हुई में दीवारें चुपचाप साँस ले रही थीं। एक खामोशी जो सतह पर ठंडी लगती थी, पर भीतर आग जैसी सुलगती। आरव की आँखें छत पर टिकी थीं, लेकिन उसका दिमाग़ कहीं और भटक रहा था। दीवार पर टिक-टिक करती घड़ी की आवाज़ उसके दिल की धड़कनों से मेल खा रही थी। हर रात की तरह, आज भी वही नर्स आई थी। उसके हाथ में ट्रे थी — दवा, पानी, और वही बेमन मुस्कान। “सो जाइए, सर,” वो बोली। “कल फिर ...Read More
ज़हन की गिरफ़्त - भाग 2
भाग 2: आईने के पीछे की सनाकमरे की दीवारें जैसे हर दिन सिकुड़ती जा रही थीं — या शायद का दिमाग़। कभी जिस कमरे को उसने शांति की जगह समझा था, अब वही चारदीवारी उसे कैद लगती थी। दीवारों पर उग आए फफूंद के धब्बे, पपड़ी-सी उखड़ी पुरानी पेंटिंग, और बल्ब की थकी हुई पीली रोशनी के नीचे फैलते हल्के साये — ये सब अब उसे देखने लगे थे। हाँ, देखने लगे थे। जैसे हर कोना, हर दाग़ उसकी नज़रों से टकरा कर कुछ कह रहा हो। आरव की आँखें अब चीज़ों को सिर्फ़ देखती नहीं थीं — वो ...Read More