ज़िन्दगी की धूप-छाँव

(38)
  • 86.6k
  • 8
  • 29.5k

ख़ुशियों का एहसास शनिवार होने के कारण दफ़्तर में छुट्टी थी. घर में था, पर तनाव बेहद ज़्यादा था. कुछ परेशानियाँ दफ़्तर की थीं, कुछ घर की. ज़िन्दगी जैसे एक बहुत बड़ी मुसीबत लगने लगी थी. बड़ा खिन्न और उदास-सा था मैं. ऐसे ही मिजाज़ के कारण पत्नी से भी ज़ोरदार झगड़ा हो गया था. फलस्वरूप न तो मैंने नाश्ता किया था और न ग्यारह बजे वाली चाय पी थी. अख़बार तक पढ़ने का मन नहीं कर रहा था. मैं अनमना-सा पलंग पर लेटा न जाने क्या-क्या सोचे चले जा रहा था.

Full Novel

1

ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 1

ज़िन्दगी की धूप-छाँव हरीशं कुमार ’अमित' ख़ुशियों का एहसास शनिवार होने के कारण दफ़्तर में छुट्टी थी. घर में पर तनाव बेहद ज़्यादा था. कुछ परेशानियाँ दफ़्तर की थीं, कुछ घर की. ज़िन्दगी जैसे एक बहुत बड़ी मुसीबत लगने लगी थी. बड़ा खिन्न और उदास-सा था मैं. ऐसे ही मिजाज़ के कारण पत्नी से भी ज़ोरदार झगड़ा हो गया था. फलस्वरूप न तो मैंने नाश्ता किया था और न ग्यारह बजे वाली चाय पी थी. अख़बार तक पढ़ने का मन नहीं कर रहा था. मैं अनमना-सा पलंग पर लेटा न जाने क्या-क्या सोचे चले जा रहा था. सवा दो ...Read More

2

ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 2

ज़िन्दगी की धूप-छाँव हरीशं कुमार ’अमित' मजबूरियों की समझ बच्चा बड़ी बेसब्री से पापा के दफ़्तर से वापिस आने इन्तज़ार कर रहा था. परीक्षाएँ पास आ रही थीं और उसकी अंकगणित की किताब गुम हो गई थी. स्कूल में अध्यापक ने सख़्त ताकीद की थी कि अगले दिन अंकगणित की किताब ज़रूर लेकर आनी है. इसी कारण बच्चा पापा के दफ़्तर से लौट आने का बड़ी बेचैनी से इन्तज़ार कर रहा था ताकि उनके साथ जाकर बाज़ार से नई किताब खरीदकर ला सके. कुछ देर में पापा घर आ गए. बच्चे ने सोचा कि पापा चाय-वाय पी लें, फिर ...Read More

3

ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 3

ज़िन्दगी की धूप-छाँव हरीशं कुमार ’अमित' रिश्तों का दर्द शाम के समय वह दफ़्तर से घर पहुँचा, तो उसे तेज़ भूख लगी हुई थी. उसने सोचा था कि घर पहुँचकर चाय पीने की बजाय वह पहले खाना खा लेगा. चाय-वाय बाद में होती रहेगी. मगर घर पहुँचने पर पता चला कि वहाँ का तो नज़ारा ही कुछ और है. दो-तीन बार घंटी बजाने पर सिर पर पट्टी बाँधे हुए उसकी पत्नी ने दरवाज़ा खोला था और फिर कराहते हुए जाकर बिस्तर पर ढह गई थी. पूछने पर पता चला था कि उसके सिर में बहुत तेज़ दर्द हो रहा ...Read More

4

ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 4

ज़िन्दगी की धूप-छाँव हरीशं कुमार ’अमित' डर शाम को घर पहुँचकर मैंने बहुत डरते-डरते खिलौने का डिब्बा मुन्नू के में पकड़ाया. उसका जन्मदिन बीते एक हफ़्ता हो गया था, पर उसका पसंदीदा खिलौना उसे जन्मदिन वाले दिन मैं दे नहीं पाया था. वजह कड़की ही थी. इस महीने के शुरू में तनख़्वाह मिलने पर उसका खिलौना खरीदने की बात सोची हुई थी, पर तनख़्वाह मिलने पर घर खर्च का हिसाब-किताब लगाने पर उस खिलौने को खरीदने की कोई गुंजाइश बहुत चाहने पर भी निकल ही नहीं पा रही थी. फिर भी एक कम कीमत वाला खिलौना मैं उसके लिए ...Read More

5

ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 5

ज़िन्दगी की धूप-छाँव हरीशं कुमार ’अमित' चोरी इतवार की शाम को साहब ने अपने दोस्तों के साथ अगले दिन को किसी रेस्टोरेंट में खाना खाकर फिल्म देखने का प्रोग्राम बना लिया था. हालाँकि अगले पूरे हफ़्ते हैड क्लर्क को छुटटी पर रहना था, पर साहब को विश्वास था कि खुद उनकी और हैड क्लर्क की ग़ैरमौजूदगी में दफ़्तर के दोनों क्लर्क किसी-न-किसी तरह सब संभाल ही लेंगे. फिर चपरासी भी तो था. तीन-चार घण्टे की ही तो बात थी. बस उन लोगों को शाम की छुटटी हो जाने के समय यानी पाँच बजे तक दफ़्तर में मौजूद-भर रहना था ...Read More

6

ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 6

ज़िन्दगी की धूप-छाँव हरीशं कुमार ’अमित' भलमनसाहत रात के सवा दस बजे थे, अम्बाला जाने के लिए करनाल के अड्डे पर खड़ा मैं बस का इन्तज़ार कर रहा था. दस चालीस पर रवाना होने वाली बस आने ही वाली थी. अगले दिन चूंकि दीवाली थी, इसलिए अड्डे से छूटनेवाली हर बस के लिए भीड़ काफ़ी ज़्यादा थी. दस चालीस वाली बस को पकड़ लेना बहुत ज़रूरी था, क्योंकि इसके बाद डेढ़ बजे बस मिलनी थी, जब तक कि अब वाली पकड़कर अपने घर भी पहुँच चुका होना था. थोड़ी देर बाद अम्बाला जानेवाली बस प्लेटफॉर्म की तरफ आती दिखायी ...Read More

7

ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 7

ज़िन्दगी की धूप-छाँव हरीशं कुमार ’अमित' स्थितियाँ स्टेशन पर दस मिनट रूककर गाड़ी आगे चल चुकी थी, मगर मेरे में अब भी पन्द्रह-बीस मिनट पहले का घटनाचक्रम घूम रहा था. कुछ देर पहले एक परिवार के मुखिया की ट्रेन से उतरने की घबराहट की बात सोचते ही अपनी मुस्कराहट को रोकना मेरे लिए मुश्किल हो जाता था. उस पुरूष की बातें थी ही ऐसी हास्यापद. इस बात के बावजूद कि ट्रेन ने उसे स्टेशन पर दस मिनट तक रूकना था, वे महानुभाव इसी चिंता में डूबे थे कि प्लेटफार्म किस तरफ आएगा और अगर उस तरफ का दरवाज़ा बंद ...Read More

8

ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 8

ज़िन्दगी की धूप-छाँव हरीशं कुमार ’अमित' कारण लोकल बस में मैं एक और एक अन्य नवयुवक ‘केवल महिलाए’ वाली पर साथ-साथ बैठे सफ़र कर रहे थे. एक स्टॉप पर बस जब रूकी तो चढ़नेवालों में एक वृद्धा भी थी. टिकट लेकर जब वह हमारी सीट के पास आई तो उसने मेरे साथ बैठे न ...Read More

9

ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 9

ज़िन्दगी की धूप-छाँव हरीशं कुमार ’अमित' लालच लोकल बस से उतरकर मैं तेज़-तेज़ कदम बढ़ाते हुए अपने दफ़्तर की बढ़ रहा था. आज तो दफ़्तर पहुँचने में कुछ ज़्यादा ही देर हो गई थी. तभी सामने से आ रहे एक नवयुवक ने मुझसे कोई पता पूछा. उसके पूछने के तरीक़े से लग रहा था जैसे वह पहली बार दिल्ली में आया हो. मैं झुँझला-सा उठा. ‘इसे पता बताने लगा तो और देरी से पहुँचूँगा दफ़्तर’ एकाएक यही बात मेरे दिमाग़ में आई, लेकिन तभी मेरी नज़र उस नवयुवक के साथ खड़ी नवयुवती पर पड़ी. नवयुवती वाकई बहुत ही सुन्दर ...Read More

10

ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 10

ज़िन्दगी की धूप-छाँव हरीशं कुमार ’अमित' नज़र बनाम नज़र मेट्रो में यात्रा करने के दौरान कोट की जेब में डाला तो बस की एक पुरानी टिकट हाथ में आ गई. मैंने उस टिकट को हाथ में लिया और कुछ देर बाद इस बात का ध्यान रखते हुए कि कोई देख तो नहीं रहा, उस टिकट को नीचे फर्श पर फेंक दिया. अगले स्टेशन पर एक नवयुवक एक बैग लेकर मेट्रो में चढ़ा. बैठने की कोई सीट न होने के कारण वह मेरे पास ही खड़ा हो गया. बैग को उसने अपने पैरों के पास टिका दिया था. फिर उस ...Read More

11

ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 11

ज़िन्दगी की धूप-छाँव हरीशं कुमार ’अमित' हिसाब दफ़्तर में उसकी बगलवाली सीट पर बैठनेवाली सहकर्मी रोज़ाना के वक़्त से घंटा देर से आई. उसने गौर से उसे देखा. सहकर्मी का चेहरा मुर्झाया हुआ था. आँखें तो ऐसी लग रही थीं मानों अभी रो पड़ेगीं. वह समझ गया कि आज भी मियाँ-बीवी में झगड़ा हुआ है. इस मौके का फायदा उठाने के लिए वह अपनी सहकर्मी को कैंटीन में ले गया. कॉफी पिलाई और सैंडविच भी खिलाए. कुरेदने पर पता चला कि सहकर्मी के अपने पति के साथ सम्बन्ध बहुत ज़्यादा तनावपूर्ण हो गए हैं. उसने अपने सहकर्मी से यथासंभव ...Read More

12

ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 12

ज़िन्दगी की धूप-छाँव हरीशं कुमार ’अमित' आइने का सच ‘‘बोर्ड के इम्तहान हैं न इस साल! पढ़ाई पर ध्यान करो और इस मोबाइल से दूर रहा करो! समझ गए न!’’ बेटे को मैंने सख़्ती से ताकीद की तो उसने मोबाइल एक तरफ़ रखकर किताब उठा ली. फिर मैं अपने कमरे में आ गया और अपने मोबाइल फोन को खोलकर उसमें आए मैसेज आदि देखने लगा. तभी बेटे के कुछ कहते हुए इस कमरे में आने की आवाज़ आई - वह शायद पढ़ाई से सम्बन्धित कोई बात पूछना चाहता था. मैंने झट-से फोन एक तरफ़ रख दिया और पास पड़ा ...Read More

13

ज़िन्दगी की धूप-छाँव - 13 - अंतिम भाग

ज़िन्दगी की धूप-छाँव हरीशं कुमार ’अमित' आदत ‘‘पापा, जल्दी घर आ जाओ. छोटू खेलते-खेलते गिर गया है. सिर से खून बह रहा है. मम्मी भी ऑफिस में हैं. डॉक्टर के पास ले जाना पड़ेगा.’’ पिंकी घबराई-सी आवाज़ में रामदीन को फोन पर कह रही थी. ‘‘अगले महीने देखेंगे.’’ रामदीन ने दफ़्तर के काम में डूबे-डूबे आदतवश कह दिया. -०-०-०-०-०- अपनी-अपनी दुकान ‘‘पारस जी, ये आपने अच्छा नहीं किया.’’ फोन पर नश्वर जी की ग़ुस्से-भरी आवाज़ गूँज रही थी. ‘‘क्या अच्छा नहीं किया, नश्वर जी?’’ ‘‘ये जो आपने लिखना-पढ़ना व्हाट्सअप ग्रुप में पोस्ट किया है कि मैं अपनी वही रचनाएँ ...Read More