Ek-Apreshit-Patra - 7 in Hindi Letter by Mahendra Bhishma books and stories PDF | एक अप्रेषित-पत्र - 7

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एक अप्रेषित-पत्र - 7

एक अप्रेषित-पत्र

महेन्द्र भीष्म

वितृष्णा

अनार का जूस लेकर जब मैं वापस वार्ड में पहुँची, तो देखा बाबूजी अपनी आँखे बन्द किये झपक चुके थे। उनकी नींद में व्यवधान न हो यह सोचकर मैंने धीरे से जूस वाली थैली टिफिन बॉक्स के अन्दर रख दी और बेड के समीप रखे ऊँचे टीन के स्टूल पर बैठ कर बाबूजी के स्वतः जागने की प्रतीक्षा करने लगी।

अभी मुश्किल से दस—बारह मिनट ही बीते होंगे कि वार्ड में ही बाबूजी के बेड से कोई आठ—दस पलंग आगे की ओर एक महिला का कर्कश स्वर गूँजा। मेरी तरह लगभग सभी का ध्यान उस ओर खिंच गया। वह महिला अपने मरीज को डाँट रही थी। उसकी तेज आवाज से बाबूजी भी जाग गये।

‘‘बेटी तुम आ गयीं।''

‘‘हाँ! बाबूजी, लीजिए अनार का जूस पी लीजिए।''

‘‘थोड़ा सहारा दो बेटी।''

‘‘जी बाबूजी....... बाबूजी को बैठाने के बाद मैंने थैली से जूस निकाल कर गिलास में भर दिया। लीजिए.... पीजिए बाबूजी।'' दोनों हाथों से गिलास को पकड़कर बाबूजी धीरे—धीरे जूस पीने लगे।

कुछ अस्पष्ट शब्दों में वह महिला पुनः चिल्लायी।

‘‘शांति रखिए''..... इस बार इंचार्ज नर्स को बोलना पड़ा। उक्त महिला की आवाज धीमी जरूर हुई, किन्तु उसकी बड़बड़ाहट बन्द नहीं हुई।

बाबूजी जूस पी चुके थे। उन्होंने सोने की इच्छा जतायी। मैंने उन्हें लेटने में मदद करते हुए चादर उनके कुछ ऊपर खींच दी।

‘‘बाबूजी सिर दबा दूँ।''

‘‘नहीं बेटी!.... अच्छा थोड़ा बालों को खींचो।'' बाबूजी को अपने बालोें को उँगलियों में फँसाकर धीरे—धीरे मुट्‌ठी में भरकर खिंचवाना अच्छा लगता था। बीसियों बार मैं उन्हें इसी तरह से सुला चुकी थी। मैं सिरहाने बैठकर बाबूजी के दूधिया बालों को अपनी मुट्‌ठी में भरने लगी, तभी वह महिला पुनः कर्कश स्वर में बोली।

‘‘बाबूजी! ये महिला बहुत असभ्य है। यहाँ अस्पताल में इस तरह हल्ला कर रही है, तो घर में पता नहीं कैसा व्यवहार करती होगी।''

‘‘बेटी.... ये अपने पिता का इलाज कराने के लिए यहाँ आयी हुई है।''

''ओ...हो.... अपने पिता से इस तरह बात कर रही है।'' मैंने आश्चर्य के साथ प्रश्न किया।

‘‘देख लो, एक तुम हो बेटी, जो अपने बूढ़े ससुर की निरंतर सेवा में स्वयं को कष्ट दे रही हो और एक वह है, जो अपने सगे बाप को देखने सप्ताह में एक दिन आती है और जितनी देर रहती है उस बेचारे को इसी तरह लताड़ती रहती है।''

‘‘कष्ट कैसा बाबूजी, आप तो ऐसा न कहिए।'' मैं बेचैन—सी हुई, ''छोड़िए बाबूजी ये संसार है। आप सोने का प्रयास कीजिए। मैं डॉक्टर के द्वारा लिखे पर्चे की दवायें लेने जा रही हूँ।'' मैंने पैड से दवा के पर्चे को निकाला और वार्ड से बाहर आ गयी।

‘‘सुनिए!'' कर्ण प्रिय स्वर ने मुझे पीछे की ओर मुड़कर देखने के लिए विवश कर दिया। श्वेत ब्लाउज के साथ मैचिंग साड़ी पहनने से सौम्य—सी दिखाई पड़ रही महिला को देखकर मैं चौंकी, यह तो वही महिला है, जो वार्ड में कुछ देर पहले अपने वृद्ध असहाय पिता के ऊपर तीव्र कटाक्षपूर्ण शब्द बाणों से निरन्तर प्रहार कर रही थी।

‘‘आपका दवा का पर्चा गिर गया है..... लीजिए।'' मेरे पास आते वह बोली।

मैंने अपना पर्स खोलकर देखा, जिसमें से दवा का पर्चा नदारद था।

मैंने दवा का पर्चा लेकर उसे देखा। पर्चे पर बाबूजी का नाम व दवाएँ लिखी हुई थीं, ‘‘धन्यवाद'' मैंने कहा।

‘‘नो मेंशन प्लीज...... चलिए मैं भी दवा लेने ही चल रही हूँ।''

वह मेरे साथ हो ली.... मैं सोच में पड़ गयी कि क्या, यह वही महिला है, जो कुछ देर पूर्व वार्ड में असभ्यता का परिचय दे रही थी।

‘‘क्या सोचने लगीं आप? वह विनम्रतापूर्वक बोली।

‘‘कुछ नहीं.......।''

‘‘यहाँ आपका कौन भर्ती है।'' मैंने बात बदलते हुए पूछा।

‘‘मेरे पिता हैं। वह ऐसे बोली मानों उसे झूठ बोलना पड़ा हो।

‘‘और..... आपका यहाँ कौन भर्ती हैं?'' उसने मुझ से प्रश्न किया।

‘‘जी मेरे ससुरजी''

‘‘अच्छा'' कुछ सोचकर वह पुनः बोली, ‘‘लगता है..... आप वार्ड में मेरे रवइये को देखकर परेशान हुई होंगी।''

‘‘हाँ..... हाँ..... नहीं..... नहीं.....।'' मैं अकचका—सी गयी। यद्यपि उसने प्रश्न तो सही किया था। पर इस तरह वह सीधे—सपाट पूछ बैठेगी, ऐसी मुझे उम्मीद नहीं थी।

वह खिलखिलाकर हँस पड़ी। मैं उसका गोरा हँसता चेहरा देखने लगी, जो सादे श्वेत परिधानों के बीच फूलों की तरह खिल उठा था। वह वास्तव में सुन्दर थी। चेहरे और शारीरिक बनावट से वह पर्वतीय क्षेत्र की स्त्री प्रतीत हो रही थी।

‘‘खैर छोड़िए! यह बताइए आप क्या करतीं हैं? मेरा मतलब आप गिृहणी मात्र तो लगती नहीं।'' उसने मुझे नीचे से ऊपर तक देखते हुए पूछा।

‘‘मैं.... मैं यहाँ नवाबाद महिला थाने की इंचार्ज नन्दिता चौधरी हूँ..... और आप?''

‘‘वाह!...... मैं पद्‌मा ठाकुर हूँ, इसी शहर के गवर्मेंण्ट डिग्री कालेज में इतिहास पढ़ाती हूँ...... बोरिंग सबजेक्ट है न ''

‘‘नहीं....नहीं हिस्ट्री तो मेरा प्रिय विषय रहा है।'' मैं बोली।

‘‘अरे कहाँ.... हिस्ट्री पढ़ाते—पढ़ाते हिस्टीरिया—सा हो जाता है।” वह खिलखिलाकर हँस दी।

पद्‌मा के इस तरह से खिलखिलाकर हँसने में भी सौम्यता का पुट था, फिर वह वार्ड में अपने पिता से इतनी असभ्यता से क्यों पेश आ रही थी। यह पहेली मेरी समझ से परे थी।

‘‘आपका तो चेलेंजिंग जॉब है। अरे हाँ याद आया। पिछले सण्डे को ही तो अखबार के मुख्य पृष्ठ पर आपका फोटो छपा था..... सुषमा हत्या काण्ड का पर्दाफाश करने पर। अरे! वाह आप तो वाकई बड़ी हस्ती हैं। इंसपेक्टर की वर्दी में क्या खूब जँचती हैं आप।'' उसने गर्मजोशी के साथ कहा।

‘‘अरे नहीं..... सब ड्‌यूटी के अन्तर्गत है...... न उससे कम, न ज्यादा।'' मैंने नपे—तुले शब्दों में कहा।

अस्पताल परिसर में ही स्थित हम दोनों ने अपने—अपने पर्चे की दवाएँ खरीदीं। दुकानदार से दवाएँ व कैशमेमो लेकर हम लोग वार्ड की ओर चल दिये। रास्ते में परिचय बढ़ता गया। हम दोनों में बहुत जल्दी दोस्ती हो गयी, जो महिलाओं में सहज व स्वाभाविक है।

बाबूजी गहरी नींद में थे। उनका हार्निया का ऑपरेशन हुआ था। टाँके कल काटे जायेंगे। मैंने अवकाश ले रखा था। ‘वो' दिन में ड्‌यूटी करते और रात में बाबूजी के पास रहते। मैं रात में बच्चों के साथ घर में रहती। दिन में बाबूजी की देख—रेख में रहती। दोपहर बाद दोनों बच्चे स्कूल से सीधे अस्पताल आ जाते हैं।

हम दोनों पति—पत्नी पुलिस विभाग में हैं। वह सर्किल आफीसर हैं। मेरा थाना भी उन्हीं के अधिकार क्षेत्र में आता है।

एक तरह से वह घर और बाहर दोनों जगहों पर मेरे बॉस हैं। लेकिन वह मुझे अपने बॉस कहीं से भी महसूस नहीं होते। हम दोनों पति—पत्नी से ज्यादा एक दूसरे पर न्योछावर होने वाले मित्र जैसे हैं।

‘‘तुम शान्त पड़े रहो।'' पद्‌मा की तेज आवाज गूँजी। बाबूजी की नींद

बाधित नहीं हुई। वह शांत सोते रहे। मैंने दवाएँ साइड रैक पर रख दीं और पद्‌मा के पिता के बेड के पास आ गयी। बेड पर पद्‌मा के वृद्ध पिता कुछ अस्पष्ट—सी आवाज में कहना चाह रहे थे, जिसे पद्‌मा जान—बूझकर अनसुना कर रही थी। ‘‘ओह!..... सॉरी..... आइए बाहर चलें।'' पद्‌मा मुझे देख अपनी गलती महसूस करते हुए बोली।

मैंने सहमति से अपना सिर हिलाया और उसे बाहर लॉन में लेकर आ गयी। मुझे बाबूजी की नींद की चिन्ता थी, जो पद्‌मा के वार्ड में रहते बाधित हो सकती थी। लॉन की हरी दूब पर हम दोनों बैठ गये।

‘‘जाड़े के मौसम की धूप कितनी भली लगती है।'' पद्‌मा ने कहा।

‘‘हाँ.... क्यों पद्‌मा जी.....

‘‘आपका व्यवहार अपने पिता के साथ अच्छा नहीं है।'' पद्‌मा बीच में ही बोल पड़ी,.... ‘यही कहना चाह रही थीं न आप?''

‘‘हाँ.... '' मुझे बरबस कहना पड़ा। वैसे मैं चाहते हुए भी इस प्रश्न को टाले हुए थी, क्योंकि नयी—नयी दोस्ती में सामने वाले की कुछ कमियाँ या गलतियों को अनदेखा करना ही पड़ता है।

‘‘तो सुनिए मिसेज चौधरी..... वास्तव में मैं नारी स्वतंत्रता की प्रबल समर्थक हूँ। हमारा समाज सदियों से पुरुष प्रधान रहा है और वर्षों से ये पुरुष हम स्त्रियों पर हमारी ही कमजोरी के कारण हम पर शासन करते चले आ रहे हैं। वास्तव में हम स्त्रियाँ जन्म से ही पराधीनता स्वीकार कर लेती हैं। पुरुष हम पर आमादा बने रहने की कोशिश इसलिए करता रहता है, क्योंकि वह स्त्रियों को अपने बराबर कभी नहीं लाना चाहता है। वह हमें अपने अधिकार क्षेत्र में लेकर स्त्री बने रहने पर मजबूर किये रहता है। अपने स्वार्थ के लिए, अपने अधिकार को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हमें मादा होने का आभास दिलाता रहता है। भय, दया, असुरक्षा और संत्रास का भाव बराबर वह हमारे मन—मस्तिष्क में भरता रहता है, ताकि हम कभी उसकी बराबरी न कर सकें, उस पर हॉवी न हो सकें,...... मिसेज चौधरी जहाँ तक मेरा अनुभव है, यदि स्त्री चाह ले तो पुरुष चौबीसों घंटे पालतू पशु की तरह उसके आगे—पीछे घूमता रहे, किन्तु हम स्त्रियों को जन्म से ही पुरुष की अहमियत जताते हुए हमें कभी पिता, कभी भाई, कभी पति, और कभी बेटे के अधिकार—क्षेत्र में दे दिया जाता है। फलस्वरूप हमारी प्रकृति पुरुषों के अनुकूल और नियति पुरुषों की इच्छा पर अवलम्बित हो जाती है। यह सार्वभौमिक सत्य है। यद्यपि पुरुष के सम्पूर्ण अस्तित्व की जन्मदात्री हम स्त्रियाँ ही हैं। क्यों....क्या मैं गलत और ज्यादा बोल गयी ?''

‘‘नहीं....नहीं.... आप प्रवक्ता तो हैं ही अध्ययन और तार्किकता आपको सहज सुलभ है और जहाँ तक मेरा विचार है आप कुछ—कुछ सही बोल भी रहीं हैं। यहाँ पर मेरा प्रश्न कुछ और ही था। मेरा मतलब आपका.... अपने पिता के साथ इस तरह का व्यवहार करना क्या पुरुष जाति से आपकी वितृष्णा का द्योतक नहीं है।'' मेरी आँखों में बेड पर लेटे पद्‌मा के पिता का दयनीय चेहरा उभर आया।

‘‘मिसेज चौधरी कुछ हद तक शायद आप ठीक कह रही हैं। क्योंकि वास्तव में बेड पर पड़ा वह बीमार व्यक्ति मेरा पिता न होकर भी मेरा पिता है। यदि मेरा वास्तविक पिता होता, तो मैं शायद उसके साथ ऐसा व्यवहार नहीं करती...... इससे भी बुरा व्यवहार करती।''

‘‘क्या कह रही हैं आप?'' मैंने आश्चर्य के साथ पूछा।

‘‘हाँ मिसेज चौधरी..... वास्तविकता यह है कि बेड पर पड़ा वह बूढ़ा आदमी मेरे लिए केवल एक पुरुष है एवं सामाजिक दृष्टि से मेरा पिता है.... बहुत लम्बा इतिहास है। मिसेज चौधरी! मेरे मन में पुरुषों के प्रति पैदा हो चुकी वितृष्णा का बहुत कुछ कारण—संबंध मेरी आप—बीती जिन्दगी से है।''

मेरे मन में पद्‌मा के अतीत को जानने की उत्सुकता बढ़ने लगी। स्त्री सुलभ आदत के अनुरूप मुझे वह सब कुछ जान लेने की तीव्र इच्छा होने लगी, जो पद्‌मा की आप—बीती थी। जिस कारण उसके जेहन में पुरुषों के प्रति नफरत भरी हुई थी।

‘‘बताइए न! मिसेज पद्‌मा ठाकुर।''

‘‘केवल पद्‌मा कहिए मिसेज चौधरी।'' पद्‌मा ने मुझे टोका।

‘‘ओह! पद्‌मा क्या है? आपका अतीत?''

तो सुनिए..... आज से कोई चालीस वर्ष पहले राय सुरेन्द्र बहादुर आई.सी.एस. अल्मोड़ा जिले के कलेक्टर हुआ करते थे। वह अविवाहित थे। उनकी शादी की उम्र बीत चुकी थी। वह पहले दर्जे के अय्याश और रंगीन मिजाज के थे। उनकी कोठी में तमाम नौकर—चाकरों में एक था ‘नन्दलाल उप्रेती', जो उनका खाना बनाया करता था।

नन्दलाल उप्रेती वहीं अल्मोड़ा के पास चितई गाँव का रहने वाला था। कलक्ट्रेट में नौकरी पक्की हो जाने के कारण वह अपना परिवार अल्मोड़ा ले आया था। उसके परिवार में उसकी पत्नी और एक पन्द्रह वर्षीया इकलौती बेटी गंगा थी। अच्छे स्वास्थ्य के कारण गंगा अपनी वास्तविक उम्र से बड़ी लगती थी। गौरवर्ण व सुन्दर थी। नन्दलाल अपनी बेटी गंगा के हाथ पीले करना चाहता था। अतः वह अपनी बिरादरी में वर की तलाश के लिए अक्सर अवकाश लेकर अल्मोड़ा से बाहर जाया करता था।

नन्दलाल द्वारा बार—बार अवकाश लेने से कलेक्टर साहब को असुविधा होनी स्वाभाविक थी। एक दिन नन्दलाल के द्वारा छुट्‌टी मांगने पर उन्होंने उसको बुरी तरह डाँटा और उसकी छुट्‌टी की अर्जी नामंजूर कर दी। उस दिन नन्दलाल का बागेश्वर जाना अत्यंत आवश्यक था, क्योंकि वहाँ से वर पक्ष की सूचना आयी थी कि वह अपनी बेटी के विवाह की बात पक्की कर जाये। काफी अनुनय विनय करने के बावजूद जब नन्दलाल को छुट्‌टी मिलने की उम्मीद नजर नहीं आयी; तब उसने कलेक्टर साहब से विनती की कि उसकी अनुपस्थिति में उनका भोजन उसकी पत्नी आकर बना दिया करेगी।

रंगीन मिजाज कलेक्टर ने भोले नन्दलाल के प्रस्ताव को बनावटी खीज प्रकट करते हुए स्वीकार कर लिया और नन्दलाल की छुट्‌टी की अर्जी मंजूर कर दी। नन्दलाल को कलेक्टर साहब की रंगीन मिजाजी का आभास नहीं था। आभास हो भी कैसे? राय सुरेन्द्र बहादुर को अल्मोड़ा आये अभी एक माह ही बीता था।

नन्दलाल के स्थान पर उसकी पत्नी कलेक्टर साहब का खाना बनाने आने लगी। पर्वतीय स्त्रियाँ अपनी अनुपम सुन्दरता के लिए विख्यात हैं ही। वह भी कुमाऊँनी स्त्री। नन्दलाल की पत्नी भी सुन्दरता की प्रतिमूर्ति थी। वह अपनी वास्तविक उम्र से बहुत कम की दिखती थी। सभी अंजान व्यक्ति उसकी बेटी गंगा और उसे परस्पर बहन समझने की भूल कर बैठते थे।

नन्दलाल की पत्नी आम पर्वतीय स्त्रियों की तरह भोली, नाजुक और पतिव्रता स्त्री थी। पहले दिन से ही कलेक्टर ने उसे अपने जाल में फाँसना शुरू कर दिया। वह उससे मीठी—मीठी बातें करता और उसके नजदीक आने का प्रयास करने लगा। दूसरे दिन से उसने उसके साथ हल्की—फुल्की छेड़खानीभरी चुहल—बाजी भी शुरू कर दी।

इतने बड़े हाकिम को अपने सामने पाकर नन्दलाल की भोली पत्नी संकोच से भर उठती। वह चाहते हुए भी उस कामुक कलेक्टर की ज्यादतियों का विरोध नहीं कर पाती। यही संकोच उसे धोखा दे गया। कलेक्टर नन्दलाल की पत्नी के द्वारा किसी भी प्रकार का प्रतिरोध न करने को उसकी मूक सहमति समझ बैठा और तीसरे दिन ही मौका पाकर उसने नन्दलाल की सुन्दर पत्नी को अपनी बातों के जाल में फँसाते हुए उसे आलिंगनबद्ध कर लिया। नन्दलाल की पत्नी जब तक कामातुर कलेक्टर की नीयत ठीक से समझ पाती, तब तक अनुभवी अय्याश कलेक्टर अपनी हरकतों में काफी आगे बढ़ चुका था। स्वयं को कामांध कलेक्टर की मजबूत पकड़ से छुड़ाने की उसने भरपूर कोशिश की; किन्तु वह स्वयं को छुड़ा पाने में असमर्थ रही। वह बेचारी अपने बचाव के लिए छटपटाती रही और अय्याश कलेक्टर अपने मन की करता रहा। कलेक्टर ने नन्दलाल की पत्नी को धमकी दी कि अगर उसने इस बात का जिक्र अपने पति या किसी से भी किया, तो वह न केवल उसके पति को नौकरी से निकाल देगा; बल्कि उसके ऊपर चोरी का झूठा इल्जाम लगाकर जेल भिजवा देगा।

सब कुछ लुटाकर डरी, सहमी नन्दलाल की पत्नी अपने घर आ गयी उसी रात उसका पति बागेश्वर से वापस आ गया। कलेक्टर की धमकी से भयभीत नन्दलाल की पत्नी अपने पति के समाने मुँह बन्द किये रही।

वह कलेक्टर नन्दलाल के ऊपर मेहरबान हो गया। भोला नन्दलाल कलेक्टर साहब की मेहरबानी को अपना भाग्य समझने लगा। कलेक्टर ने अपनी वासना पूर्ति के लिए, अपनी कोठी में बने सर्वेण्टक्वार्टर में से एक क्वार्टर नन्दलाल व उसके परिवार को रहने के लिए दे दिया। उसकी पत्नी जो अधम कलेक्टर के सामने कभी न पड़ने की सौगंध खा चुकी थी, उस बेचारी के पास अपने प्रसन्न पति को सर्वेण्ट क्वार्टर में रहने से रोकने के लिए कोई कारण नहीं था।

नन्दलाल के सर्वेण्टक्वार्टर में आ जाने के दिन कलेक्टर राय बहादुर ने नन्दलाल को सरकारी डाक देकर लखनऊ भेज दिया और उसकी पत्नी को

धमकाकर उसे मनमानी करने पर राजी कर लिया।

नन्दलाल की भोली पत्नी उस दुष्ट कलेक्टर के इस अमानुषिक कृत्य को दूसरी बार सहन न कर सकी और दूसरे दिन सुबह—सवेरे उसने ऊँची पहाड़ी से कूद कर आत्महत्या कर ली। नंदलाल को तुरन्त सूचना भेेजी गयी। दुराचारी कलेक्टर के सिवा कोई भी इसे आत्महत्या न समझ सका, सभी इसे महज एक दुर्घटना मान रहे थे। नन्दलाल अपनी पत्नी के विछोह से टूट—सा गया। दुष्ट कलेक्टर ने उसे झूठी सांत्वना दी।

नंदलाल की बेटी गंगा, जो उन दिनों अपने ननिहाल गयी हुई थी। माँ की मृत्यु की सूचना पाकर वापस अल्मोड़ा आ गयी।

उस नराधम कलेक्टर की दृष्टि जब गंगा पर पड़ी, तो वह उसकी अप्रतिम सुन्दरता को देख आवाक्‌ रह गया। जैसे नंदलाल की मृत पत्नी अपने यौवन के प्रारम्भिक दिनों में लौटकर उसके सामने खड़ी हो गयी हो। गंगा अपनी माँ की प्रतिमूर्ति थी। यह जानकर कि गंगा नंदलाल की इकलौती बेटी है। वह दुष्ट मन ही मन बहुत प्रसन्न हुआ और इस पर्वतीय कली को फूल बनाने की कुत्सित योजना उसके मष्तिष्क में पनपने लगी।

शीघ्र ही वह कलेक्टर अपने मन्सूबे में कामयाब हो गया। नादान अल्हड़ गंगा जो यौवन का क ख ग ही जान पायी थी। वह अपने बाप से भी अधिक उम्र के कलेक्टर के बहकावे में आ गयी।

प्रारम्भ के दिनों में कलेक्टर ने नासमझ गंगा को ‘‘बेटी—बेटी'' कहकर उसे ढेर सारे कपड़े, पैसे देकर, उसकी फरमाइशें पूरी कर उसका विश्वास जीतते हुए उससे समीपता बनायी।

भोली गंगा भी ‘कलेक्टर अंकल' कहते—कहते लॉन टेनिस खेलकर वापस लौटे हॉफ पैण्ट पहने राय सुरेन्द्र बहादुर से लिपट जाती। जब—तब उसकी गोद में बैठ जाती; जिससे कामुक कलेक्टर के शरीर में सिहरन—सी दौड़ जाती।

कलेक्टर अंकल की कुत्सित नीयत से बेखबर गंगा इसे अंकल का अपने प्रति स्नेह मानती। उसे कलेक्टर अंकल की मजबूत पकड़, गालों व होठों के पास गड़ती घनी मूँछें अच्छी लगती। उसका पूरा शरीर रोमांच से भर उठता। उसकी इच्छा कलेक्टर अंकल की गोद से हटने की नहीं होती; उस नादान किशोरी को संसार में अंकल के आगे अन्यत्र कुछ न दिखता।

इस तरह के मौके राय सुरेन्द्र बहादुर को बहुत कम समय के लिए मिल पाते थे, क्योंकि कोठी में नौकर—चाकरों की उपस्थिति सदैव बनी रहती थी, जिनके सामने कलेक्टर अपनी मन—मानी नहीं कर पाता था और न ही नन्दलाल के रहते वह गंगा को एकांत में बुला ही पाता था। साथ ही उसे अपने कैरियर और समाज का भय था ‘कहीं' नासमझ गंगा उसकी ज्यादती को लेकर शोर—शराबा न कर दे। वैसे भी वह गंगा की माँ के आत्महत्या कर लेने से भयभीत और पहले से अधिक सतर्क हो चुका था।

किशोरी गंगा अपने यौवन में थी। उसे कलेक्टर अंकल का साथ बहुत अच्छा लगता। वह अंकल की गोद में बैठने के लिए तरसती रहती। उसे प्रतिदिन लॉन टेनिस खेलकर अंकल के वापस आने का इन्तजार रहता, क्योंकि यही एक ऐसा समय होता था जब वह हॉफ पैण्ट पहने कलेक्टर अंकल की गोद में बैठ पाती थी, जब कभी एक दो दिन के लिए कलेक्टर अंकल अल्मोड़ा से बाहर जाते, तो वह बड़ी बेसब्री से उनकी प्रतीक्षा करती। वह कलेक्टर अंकल के दिये कपड़े पहनती और मनमाने ढंग से पैसा व्यय करती। समाज के लोग गंगा के प्रति कलेक्टर साहब के झुकाव को उनकी दरियादिली और एक मामूली कर्मचारी के ऊपर बहुत बड़ी कृपा मानते।

गंगा के इसी झुकाव ने अवकाश के एक दिन जब राय सुरेन्द्र बहादुर अपने अध्ययन कक्ष में बैठा गंगा के बारे मे ही सोच रहा था। तभी अचानक निश्छल हँसी बिखेरती गंगा वहाँ आ गयी। दरअसल वह अपने अंकल के द्वारा लखनऊ से उसके लिए लाये गये जीन्स के स्कर्ट—टॉप पहन कर उन्हें दिखलाने वहाँ आयी थी।

गौर वर्ण अनुपम सुन्दरी पर्वतीय बाला गंगा, जिसका यौवन उसके गुलाबी गाल, कमल की पंखुड़ियों के समान होंठोंं, से स्पष्ट झलक रहा था। यह सब उस कामान्ध कलेक्टर की मति भ्रष्ट करने के लिए पर्याप्त था।

उस समय वह कलेक्टर अध्ययन कक्ष से नहाने जाने वाला था। उसने अपने शरीर में केवल लुंगी लपेट रखी थी।

अपनी स्वाभाविक आदत के अनुसार हाथ बढ़ाने पर गंगा उसकी गोद में जा बैठी। कामान्ध कलेक्टर ने गोद पर बैठ चुकी गंगा की सुन्दरता के तारीफ के पुल बाँधने शुरू कर दिये। साथ ही बीच—बीच में वह उसके बालों को सहलाने लगा। गंगा को अंकल की ज्यादती आज कुछ ठीक नहीं लग रही थी; किन्तु बुरी भी नहीं लग रही थी। कुछ देर बाद कामान्ध कलेक्टर पूरी तरह से उत्तेजित हो उठा। फलस्वरूप अब उसने गंगा की पीठ से पेट पर हाथ फेरना शुरू कर दिया। उसने गंगा के टॉप के अन्दर अपना हाथ डालकर उसके दोनों उभारों के पास धीरे से सहलाया। अंकल की इस प्रतिक्रिया से गंगा सिहर उठी, उसके गाल लाल हो उठे। अंकल के यत्र—तत्र पड़ रहे चुम्बनों की बौछार उसे बेसुध किये दे रही थी और जब अंकल ने उसके दोनों उभारों को अपने दोनों हाथों की मुट्‌ठी में भर लिया, तब वह बेहाल हो उठी। अनुभवी कलेक्टर ने गंगा की इस उत्तेजित अवस्था का पूरा—पूरा फायदा उठाते हुए उसका टॉप उसके शरीर से हटा दिया। अर्द्धनग्न गंगा के गुलाबी उभारों ने कामुक कलेक्टर के होश उड़ा दिये; फिर कुछ ही पल बाद उसने गोद में बैठी अपनी बेटी की उम्र की गंगा को लड़की से स्त्री बना दिया।

यौवन की उत्तेजना का ज्वार जाने पर हल्की पीड़ा के बाद भी गंगा को अंकल की ज्यादती बुरी नहीं लगी और वह वहाँ से शर्माकर भाग गयी, फिर तो अंकल की यह ज्यादती गंगा को पसन्द आने लगी। वह अंकल की इस ज्यादती की इतनी आदी—सी हो गयी कि अब वह स्वयं राय सुरेन्द्र बहादुर को जब—तब इस नये खेल के लिए स्वयं उकसाने लगी।

यौवन के इस पाप पूर्ण खेल के लगातार चलने के परिणामस्वरूप अगले दो माह बाद ही गंगा गर्भवती हो गयी।

‘‘वेरी इंटरेस्टिंग.... यह तो गोया कोई बड़ी वैसी कहानी आप सुना रहीं हैं।'' मैं पद्‌मा के और निकट खिसकते हुए बोली।

‘‘आपके लिए यह कोई बड़ी वैसी कहानी हो सकती है, मिसेज चौधरी! किन्तु मेरे लिए यह एक स्याह इतिहास है..... जानती हो गंगा के गर्भ में कौन पल रहा था...... वह मैं थी...... मैं...... कामांध कलेक्टर और अबोध पर्वतीय बाला की अवैध संतान।'' पद्‌मा तेज स्वर में काँपते हुए बोली।

मैं यह सुनकर हतप्रभ रह गयी। महिला थाने की थानेदारी करते छेड़खानी एवं बलात्कार की बीसियों घटनाएँ मेरे सामने आ चुकी हैं; परन्तु यह घटना उन सबसे एकदम हटकर थी।

मेरी इच्छा आगे जानने के लिए बढ़ी; परन्तु पद्‌मा के बदले तेवर देखकर उससे कुछ कहने की हिम्मत न जुटा पायी। वह आकाश की ओर शून्य में निहार रही थी। मैं लॉन में उगी महीन दूब तोड़ने लगी। कुछ पल के लिए हम दोनों के बीच चुप्पी—सी छा गयी, फिर वह स्वतः ही मेरी आँखों पर अपनी दृष्टि डालते हुए बोली, ‘‘दुष्ट कलेक्टर को जब गंगा के गर्भवती होने का पता चला तब उसके होश उड़ गये। तमाम यत्नों के पश्चात्‌ भी डॉक्टर ने गंगा के बच्चे को जन्म देने के लिए कहा..... मैं जो थी।'' पद्‌मा एकाएक मुस्कराते हुए बोली।

पद्‌मा के चेहरे पर गम्भीरता के स्थान पर हास्य का पुट देखकर मैं भी मुस्करा दी। माहौल की गम्भीरता के कम होने से मैंने राहत की साँस ली; किन्तु अगले ही पल वह पुनः गम्भीर हो बोली—‘‘जब मैं गर्भ में नष्ट नहीं हुई तब दुष्ट कलेक्टर ने एक और चाल चली। वह लखनऊ से अपने एक परिचित की सेवा में लगे एक नेपाली ठाकुर लड़के को समझा—बुझाकर अल्मोड़ा ले आया और उसे मेरे नाना नन्दलाल उप्रेती को पहाड़ी ब्राह्मण बतलाकर मेरी गर्भवती माँ का विवाह उसके साथ कर दिया।

षड्‌यंत्रों से अनभिज्ञ मेरे नाना भी अपनी बेटी को कमाऊ वर मिल जाने से बेटी के बोझ से मुक्त हो गये।

अपने बुरे कमोर्ं के कारण मेरे जन्म होने के एक माह पहले ही वह दुष्ट कलेक्टर मेरा वास्तविक बाप कार के पलट जाने से उसी खाई में गिरकर मरा जहाँ पर मेरी नानी की लाश मिली थी।

‘‘अच्छा!'' मैं इस संयोगपूर्ण घटना को सुनकर अचरज से भर उठी।

उस कलेक्टर के मरने के बाद मेरी माँ ने विवाह के केवल छः माह बाद ही मुझे जन्म दिया। मेरे जन्म के बाद से ही मेरी माँ का जीवन नर्क बनता गया।

मेरा तथाकथित सामाजिक पिता बिना नागा रोज शराब पीकर मेरी माँ के साथ बुरी तरह मार—पीट करता था, पर मेरी माँ अपने शंकालु शराबी पति की यंत्रणाओं को सहती हुई मुझे पालने—पोसने में लगी रहती।

आज जो व्यक्ति इस अस्पताल में भर्ती है। वह मेरी माँ का वही अत्याचारी पति है। मेरी माँ शायद मेरा विवाह कर देने के लिए अपने जीवन के शेष दिन काट रही थी।

मात्र बारह वर्ष की अवस्था में उसने मेरा विवाह अपनी एक सहेली के लड़के से अपने पति के विरोध करने के बावजूद उसकी अनुपस्थिति में कर दिया।

विदा के दिन ही जब मैं ससुराल चली गयी। उसी रात मेरे इसी दुष्ट पिता ने शराब पीकर मेरी माँ को तब तक पीटा जब तक कि वह बेचारी बेहोश नहीं हो गयी। पता नहीं कैसे बेहोश माँ की साड़ी में आग लग गयी। जब—तक पास—पड़ोस के लोग आकर उसे आग से बचाते, तब तक वह बहुत अधिक जल चुकी थी, जिसके कारण वह बच न सकी। लोग बताते हैं कि एक ओर मेरी माँ आग से बचने के लिए तड़प रही थी, वहीं दूसरी ओर मेरा यही शराबी बाप नशे में धुत्त पास ही लुढ़का पड़ा था।''

पद्‌मा की आँखें सजल हो आयीं। उसका गला भर आया। उसने साड़ी के पल्लू से अपने आँसू पोंछे और भरे गले से बोली, ‘‘मिसेज चौधरी! आप कल्पना नहीं कर सकतीं कि अपनी माँ की मौत के दिन मैं इतना रोयी कि जीवन भर के लिए नेत्र शुष्क हो गये। कमजोर, दुबली, हडि्‌डयों का ढाँचा मात्र रह गयी थी मेरी माँ, जो अपने राक्षस पति की यातना से तड़प—तड़प कर जलकर मर गयी। अरे! उसकी उम्र ही कितनी थी। वह तीस साल की भी तो नहीं हुई थी।

माँ की दुःखद मृत्यु के कुछ ही माह बाद पता नहीं मेरे ससुराल वाले मेरे इतिहास को कहाँ से खोजकर ले आये थे। फलस्वरूप अब माँ जैसी स्थिति मेरी भी शुरू होने लगी। मेरा पति चौदह—पन्द्रह साल का नासमझ लड़का ही था।। उसने मुझे कभी भी तंग नहीं किया; किन्तु मेरी सास ताने देकर मेरी पिटाई किया करती; जिससे तंग आकर एक दिन मैं अपने नाना के पास चली आयी; जो उन दिनों पत्नी और पुत्री को खोने के बाद नौकरी छोड़कर एक मन्दिर के पुजारी बन गये थे।

मेरे नाना ने मुझे नये सिरे से समझाया, मेरी छूटी पढ़ाई पुनः शुरू करायी और उन्हीं के अथक प्रयासों के कारण मैंने इतिहास से परास्नातक में कुमायूँ यूनीवर्सिटी में प्रथम स्थान प्राप्त किया और मात्र तेइसवें वर्ष ही मुझे डिग्री कालेेज में इतिहास के प्रवक्ता की नौकरी मिल गयी।''

कुछ देर तक शान्ति बनी रहीं, फिर मैंने शान्ति भंग करते हुए पद्‌मा से पूछा, ‘‘ आपके पति..... मेरा..... मतलब.....

‘‘हाँ.....हाँ मेरा पति, पद्‌मा मेरे प्रश्न को सुन बीच में बोलकर बेसुरी हँसी हँसने लगी, ‘‘पति क्या एक पुरुष, जो मेरे प्रवक्ता बनते ही मेरे तलवे चाटने को तैयार हो गया, क्योंकि वह बेरोजगार था, मैंने उसे ससुराल वालों से अलगकर अपने पास रख लिया। यदि मैं स्पष्ट शब्दों में कहूँ तो मेरा पति नाम का जीव, मेरा सबसे प्रिय सेवक है, जो अनुशासनबद्ध मेरी सेवा के लिए चौबीसों घंटे तत्पर रहता है।''

‘‘......और बच्चे?'' मैंने अगला प्रश्न किया।

‘‘बच्चे....'' पद्‌मा हँस पड़ी, जैसे मैंने उससे मूर्खता पूर्ण प्रश्न पूछ लिया हो।

‘‘बच्चे... मुझे चाहिए ही नहीं थे। मैंने अपना बच्चे न होने का ऑपरेशन करा लिया है। मैं एक और गंगा या एक और अत्याचारी पुरुष को इस संसार में जन्म नहीं देना चाहती।''

पद्‌मा दृढ़ता से बोल रही थी।

मैं उसके उत्तर को सुन सन्न रह गयी। अजीब औरत है, जो नारी होकर मातृत्व सुख नहीं चाहती थी। पुरुष जाति के प्रति इसके हृदय में घृणा कूट—कूट कर भरी हुई है। मैं अभी अनुमान लगा ही रही थी कि वह आगे बोली ‘‘मिसेज चौधरी!..... ये पुरुष जाति बहुत कामी, स्वार्थी, अत्याचारी, मक्कार और धोखेबाज होते हैं। मुझे पुरुष जाति से घोर नफरत है।''

पद्‌मा के इस कथन को मैं सहन नहीं कर पायी। मैं अपने आप को संयत करते हुए बोली, ‘‘मैं आपकी इस बात से कतई सहमत नहीं हूँ। पद्‌मा जी! सभी पुरुष एक जैसे नहीं होते..... यह संयोग ही था, जो आपके या आपकी माँ और नानी के साथ घोर अत्याचार हुआ; परन्तु इससे यह मान बैठना कि समस्त पुरुष जाति ही ऐसी है..... मैं नहीं मानती। वार्ड में जो भर्ती हैं वह मेरे ससुर हैं, जो मेरी सास को इतना चाहते थे, जिसे मैं व्यक्त नहीं कर सकती। पति—पत्नी के प्रेम की वे दोनों जीते—जागते उदाहरण थे। मेरी सास का पिछले माह ही स्वर्गवास हो चुका है। तब से हमारे बाबूजी टूट से गये हैं और जहाँ तक मेरे पति का सवाल है। मैं उन जैसा आदर्श पुरुष पाकर अपने जीवन को धन्य मानती हूँ। हम दोनों सच्चे मित्र की तरह अपना सुखद दाम्पत्य जीवन बिता रहे हैं..... देखिए पद्‌मा जी! नारी पुरुष की सहचरी है। वह पुरुष के बिना अधूरी है और पुरुष उसके बिना अधूरा है, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। पुरुष या स्त्री दोनों में से जब किसी एक के अन्दर दूसरे के ऊपर शासन करने का भाव आ जाता है, तभी से नारी व पुरुष के सम्बन्धों का सन्तुलन बिगड़ने लगता है। अहम्‌ की तुष्टि दोनों के लिए घातक है। और..... जहाँ तक आपका कहना या मानना है कि पुरुष स्वार्थी, कामी, अत्याचारी, मक्कार और धोखेबाज होते हैं। इस पर मैं यह कहूँगी कि केवल पुरुष ही नहीं, अपितु संसार ऐसी अय्याश और अत्याचार, घमंडी औरतों के इतिहास से भी भरा पड़ा है, जहाँ कई मामलों में तो वे पुरुषों से भी कहीं ज्यादा आगे निकल गयी हैं। हाँ दोनों को परस्पर सौहार्द्रपूर्ण व्यवहार करते हुए प्रेम से एक दूसरे का दिल जीतना चाहिए, अहम्‌ या शक्ति से वर्चस्व स्थापित कर कदापि नहीं।''

पद्‌मा मेरे चेहरे को ऐसे देखे जा रही थी, जैसे कि मैं कोई मन्त्र— मुग्ध कर देने वाला भाषण दे रही होऊँ। अभी तक वह बोल रही थी और मैं सुन रही थी। अब मैं बोल रही थी और वह मुझे सुन रही थी। मैं आगे अभी और कुछ कहना चाहती थी कि, ‘‘मम्मी—मम्मी'' की आवाज ने मुझे आगे कहने से रोक दिया। यह मेरे सत्रह वर्षीय बेटे संदीप और चौदह वर्षीय बेटी अपूर्वा की संयुक्त आवाज थी। हम दोनों लॉन के अन्दर दौड़कर अपने निकट आ रहे दोनों भाई—बहन को देखने लगे।

‘‘यह मेरा बेटा संदीप और मेरी बेटी अपूर्वा है।'' मैंने पद्‌मा से कहा

‘‘बड़े प्यारे हैं, आपके बच्चे” पद्‌मा बोली

‘‘मम्मी..... मम्मी आप यहाँ हैं।''

‘‘हाँ बेटे आपके बाबाजी सो रहे थे.... इसलिए हम यहाँ आ गये।''

‘‘.... आण्टीजी से नमस्ते करो।''

‘‘नमस्ते आण्टी।'' दोनों समवेत स्वर में बोले।

‘‘नमस्ते'' पद्‌मा का स्वर शिष्ट व मृदु था।

गुलाबी ठंड में भी दोनाें भाई बहन के सुन्दर मुखड़ों पर उभर आये स्वेद कण गर्मी का एहसास दिला रहे थे।

‘‘मम्मी हम दोनाें बाबाजी को देख आयें, शायद जाग गये हों।'' संदीप बोला।

‘‘हाँ—हाँ देख आओ'' दोनों वार्ड की ओर चले गये।

हम दोनों संदीप व अपूर्वा को जाते देखने लगे।

पद्‌मा के हृदय में पुरुषों के प्रति भरी वितृष्णा को बाहर निकालने का जोर मेरे अन्दर तेज होता चला गया, क्योंकि पुरुष जाति के अत्याचाराें ने मेरे जीवन को कभी स्पर्श नहीं किया था। मैं पद्‌मा की ओर मुखातिब हो बोली ‘‘ पद्‌माजी! आपने मेरे दोनों बच्चों को देखा.... कुछ गौर किया या नहीं।''

‘‘गौर किया..... मैं समझी नहीं।'' पद्‌मा मेरे अटपटे प्रश्न पर चौंकी।

‘‘यही कि दोनों एक जैसे कहाँ दिखते हैं।'' मैंने कहा।

‘‘वो.... मैंने वास्तव में इतना गौर से नहीं देखा।''

‘‘ठीक.... ठीक मैं आपको अपने जीवन की अति गोपनीय बात बताने जा रही हूँ। जिसे मेेरे पति के सिवा अन्य कोई नहीं जानता। आपको मैं इसलिए बताने जा रही हूँ कि शायद इसे सुनकर आपके मन से पुरुषों के प्रति व्याप्त वितृष्णा समाप्त हो सके।

‘‘वह क्या है?'' पद्‌मा ने जिज्ञासा से मेरे और निकट आकर पूछा।

‘‘वह यह कि मेरे बेटे संदीप और बेटी अपूर्वा के पिता अलग—अलग हैं।''

‘‘क्या?'' अब चौंकने की बारी पद्‌मा की थी। वह आश्चर्य में डूबी मुँह खोले मुझे ही देखे जा रही थी, जब कि मैं धीमी मुस्कान लिए लॉन की नर्म घास के मुलायम तने को अपने नाखून से छील रही थी।

‘‘क्या यह सच है, जो आप कह रही हैं?''

‘‘जी हाँ! ठीक उतना सच, जितना यह कि सूरज के प्रकाश में अस्पताल के लॉन में हम दोनोें यहाँ बैठे हैं।

‘‘अच्छा'' इसके बाद भी आपके पति आपको प्यार करते हैं।''

‘‘जी हाँ..... आदर्श पति की तरह। रत्ती भर भी उनका प्यार कम नहीं है। सुनिए पद्‌मा जी! मेरे माता—पिता का देहान्त ट्रेन दुर्घटना में तब हो गया था, जब मैं मात्र पाँच वर्ष की थी। जब बोगी काटकर दुर्घटना के दूसरे दिन मेरे माता—पिता की मृत देह निकाली गयी थी, तब मैं अपनी माँ की लाश के नीचे दबी बेहोश मिली थी। अपने ऊपर सारी चोट सहकर मेरे प्राण बचाने वाली मेरी माँ और पिता की मुझे धुँधली—सी याद है। मैं बचा ली गयी और मेरे मामा—मामी ने मुझे अपने बच्चों की तरह पाला—पोसा, पढ़ाया—लिखाया। कॉलेज के दिनों में मुझे अपने सहपाठी सुदीप से प्यार हो गया था। हम दोनों एक दूसरे को बहुत चाहते थे। स्नातक करने के बाद मैंने सब—इंस्पेक्टर की परीक्षा पास कर ली थी और ट्रेनिंग में चली गयी। ट्रेनिंग करने के बाद हम दोनों ने विवाह करने का निश्चय किया था। ट्रेनिंग से लौटकर आने पर लम्बी जुदाई के बाद हम दोनों बातों ही बातों में प्रेम की असीम गहराइयों में उतरते चले गये और नादानी कर बैठे। इस तरह अंजाने में ही मैं गर्भवती हो गयी। इसी बीच मेरी पोस्टिंग भी हो चुकी थी। पोस्टिंग के बाद ही मुझे पता चला कि मैं माँ बनने वाली हूँ। मैं घबरायी। मैंने यह बात सुदीप को बतायी, तो उसने शीघ्र विवाह कर लेने को कहा। अगले ही दिन मेरे घर आकर मेरे मामा—मामी से मेरा हाथ माँगने का उसने निर्णय लिया, क्योंकि वह ससम्मान मुझे माँग कर ले जाना चाहता था, किन्तु ऐसा न हो सका, जिस समय सुदीप मामा जी की अनुमति लेने हमारे घर आ रहा था। रास्ते में उसकी मोटर साइकिल ट्रक के नीचे आ गयी और वह दर्दनाक मृत्यु का ग्रास बन गया। उसकी हुई आचानक मृत्यु से मैं होश खो बैठी। मैंने आत्महत्या करनी चाही; परन्तु मामाजी ने ऐसा नहीं होने दिया।

मेरी स्थिति विषम और विकट थी। सुदीप से मिले गर्भ का भार तीन माह का हो चुका था।

नयी—नयी नौकरी, सुदीप की दर्दनाक मौत और बदनामी का भय। ये सभी स्थितियाँ मेरी मनःस्थिति को विकृत किये हुए थीं।

मेरी नियुक्ति एस. एस. पी. कार्यालय में की गयी थी। मैं एस. एस. पी. के साथ अटैच थी। मैं हमेशा अपने आप में खोयी रहती थी। फलस्वरूप कभी—कभी मेरे कार्य में त्रुटियाँ भी हो जाती थींं। मेरी मनःस्थिति का फायदा उठा एस.एस.पी. ने मुझसे एक दिन अभद्रतापूर्ण व्यवहार करना चाहा; परन्तु केबिन के बाहर बैठे मेरे वर्तमान पति जो उस समय एस.एस.पी. के पी.आर.ओ. थे किसी कार्य से अन्दर आ गये। उन्होंने मुझे एस.एस.पी. की गिरफ्त से छुड़ाया। वह एस.एस.पी. उस समय अपने कुकृत्य के कारण अपमान का घूँट पीकर रह गया; किन्तु बाद में उसने अपने अधिकारों का दुरुयोग करते हुए हम दोनों का स्थानांतरण अन्यत्र करा दिया।

मिस्टर चौधरी ने दरिंदे एस.एस.पी. से मेरी रक्षा तो की, मगर कुछ दिन की ही मुलाकत में उनके शिष्ट व्यवहार से मैं इतनी अधिक प्रभावित हुई कि कुछ कह नहीं सकती। एक दिन जब उन्होंने मेरे समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा, तब मेरे सब्र का बाँध टूट गया। मेरे नेत्र शुष्क न रह पाये। मेरे रोने से वह समझे कि उनके द्वारा विवाह का प्रस्ताव रखने से मुझे बुरा लगा। उन्होंने पश्चाताप कर मुझसे क्षमा माँगी, उनका हाथ अपने हाथ में लेते हुए भावावेश में मैंने उन्हें अपनी आप बीती सुना दी। मुझे विश्वास था कि वह मेरी वास्तविकता जानकर अपने विवाह का प्रस्ताव वापस ले लेंगे; परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया उन्होंने न केवल मुझे अपना लिया; बल्कि मेरी होने वाली सन्तान को अपनी सन्तान की तरह पालने का वचन दिया, जिसे वह आज भी निभाते चले आ रहे हैं......पद्‌मा जी! मैंने आप को अपनी अति गोपनीय सच्चाई केवल इसलिए नहीं बतायी कि आप अपने मन से पुरुषों की घृणित छवि उतार फेंके, अपितु जीवन—सार को समझते हुए अपने पति से सच्चा प्रेम करते हुए, अपने पति में अच्छाइयाँ तलाशें। हजारों, लाखों पुरुष ऐसे हैं, जिनमें आदर्श पिता, आदर्श पति, आदर्श भाई, आदर्श बेटे के गुण विद्यमान हैं।

‘‘मिसेज चौधरी वाकई आपके पति जैसा पुरुष मैंने न कभी देखा है, न सुना है; परन्तु बहनजी ऐसे सब कहाँ होते हैं?'' पद्‌मा ने पुनः प्रश्न किया।

‘‘मैंने यह कब कहा कि सभी पुरुष अच्छे होते हैं। न ही मैंने यह कहा कि सभी महिलाएँ बुरी होती हैं। हमें तो ऐसे पुरुष, ऐसी महिलाओं को अपना समर्थन और विश्वास देना चाहिए, जिनमें मानवीय गुण विद्यमान हों और ऐसे सभी पुरुष और स्त्रियों का बहिष्कार करना चाहिए, जो अपनी स्वार्थ सिद्धि में संलग्न होकर सामाजिक दायरों से हटकर कृत्य करते हों। हम सभी को अपनी एकाकी सोच बदलनी होगी। संकीर्ण मानसिकता को विस्मृत करना होगा, तभी स्त्री—पुरुष सम्बन्ध बेहतर बनेंगे। स्त्री, पुरुष के प्रति और पुरुष, स्त्री के प्रति अपने हृदय में सम्मान रखेगा। ध्यान रहे कि ताली एक हाथ से कभी नहीं बजती है। अतः त्याग, प्रेम और विश्वास की भावना पति—पत्नी के परस्पर संबंधों को प्रगाढ़ बनाते हुए सुखद दाम्पत्य जीवन का मार्ग प्रशस्त करते हैं।'' मैंने अपनी बात पूरी करते हुए पद्‌मा के चेहरे पर दृष्टि डालकर उसे गौर से देखा। मैंने पाया उसके चेहरे पर पहले से बदले भाव उभर आये थे। उसकी भृकुटी निश्चयात्मक निर्णय से खिंच चुकी थी।

वह भावुक हो बोली, ‘‘आज आपने मेरी आँखें खोल दीं..... मुझे सही राह दिखायी। वास्तव में सभी पुरुष खराब नहीं होते। मेरे स्वर्गीय नाना जी इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। पर मैंने उनकी ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया और न ही उनकी सीख ही मानी, आज मैं महसूस कर रही हूँ। मैंने अपने जीवन में कुछ गलत निर्णय लेकर और गलत धारणाएँ अपनाकर केवल स्वयं भोगे और देखे यथार्थ के घेरे में स्वयं को रखकर अपना ही अब तक अहित किया है'' पद्‌मा की आँखों में पश्चाताप के आँसू छलक आये।

‘‘......नहीं पद्‌मा! अभी कुछ नहीं बिगड़ा है...... अभी भी समय है। आप अपने पति से आदर्श मित्र की तरह व्यवहार करें। जहाँ तक बच्चे की बात है.. अनाथालय से कोई एक बच्चा गोद लेकर मातृत्व सुख भी प्राप्त करें। मैं और मेरे पति इस कार्य में आपकी हर संभव मद्‌द करेंगे।'' पद्‌मा की पीठ पर हाथ रख मैंने उसे दिलासा दी।

‘‘मम्मी—मम्मी, बाबाजी जाग गये, आइये।'' संदीप, अपूर्वा मुझे बुला रहे थे। मैंने लॉन से उठते हुए वार्ड में पद्‌मा को चलने का संकेत दिया।

हम दोनों साथ—साथ लॉन से बाहर निकल रहे थे। पद्‌मा शान्त मेरे साथ चल रही है। मैं उसका बायाँ हाथ थामें हुए हूँ; जिसके स्पर्श से मैं इतना तो महसूस कर ही रही हूँ कि अब वह पुरुषों के प्रति एकाकी सोच और वितृष्णा से सदा के लिए मुक्त हो चुकी है।

मगर यह क्या वह अचानक रुकी और मेरे हाथ से अपना हाथ अलग करते हुए बोली, ‘‘..... थैंक्यू, नेवर आई शैल फारगेट यू ....मेरे पति घर में अकेले हैं वह मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे।'' पद्‌मा के नेत्रों से निरन्तर पश्चाताप के झर रहे अश्रु इस बात के प्रतीक थे कि वास्तव में नारी हृदय अत्याचारों के तहत कुछ अवधि के लिए कठोर अवश्य हो जाये, मगर उसके हृदय में कहीं न कहीं करुणा, दया, प्रेम के अंश विद्यमान्‌ रहते हैं, जो सही समय पर परिलक्षित हो उठते हैं; यदि उसे उचित समय में उचित मार्गदर्शन मिल जाये।

ऐसा ही कुछ पद्‌मा के साथ हो चला था, तभी वह बाबली—सी अपने घर चल दी। उसे जाते देख मेरी आँखें भी नम हुए बिना न रह सकीं, क्याेंकि आज पद्‌मा की भावनाओं में एक सकारात्मक सोच वाली स्त्री ने जन्म ले लिया है। वह अपने सेवक नहीं अपने पति के पास जा रही है। धीरे—धीरे पद्‌मा मेरी आँखों से ओझल हो चली। अब सिर्फ उसकी साड़ी का आँचल लहराता दिखायी दे रहा है, जो शायद मुझसे टाटा कर रहा है।

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