विषय: भ्रम
ये आँखें तुम्हारी ही हैं, जो अब तक भीगा करती हैं,
उन्हें मालूम था, इंतज़ार हमारा व्यर्थ जाएगा।
हमारी क्या ख़ता, जो रात भर तकते रहे तारे,
वो चाँद था ही नहीं, जो छत पर उतर के आएगा।
कहो तो आज भी उसी चौखट पे जा बैठें? हम
जहाँ झूठी आहटों से दिल बहल जाता है।
मगर अब लौटकर जाने से भी क्या हासिल? है
जब शहर-ए-वफ़ा में अब कोई दिया ही नहीं जलता।
नहीं वो मिस कॉल था, न कोई आहट दरवाज़े की, थी
बस तुम्हारे नाम पर ये दिल ”स्वयम’भु "धड़क जाता है।
– अश्विन राठौड़ "स्वयम’भु"
- અશ્વિન રાઠોડ - સ્વયમભુ